देश की आर्थिक सेहत बताने वाला आर्थिक सर्वे आज होगा पेश, लेकिन क्या सरकार के पास है अव्यवस्था से उबरने का रोडमैप !
बीजेपी के साथ दिक्कत यह है कि उसके लिए सियासत हमेशा सबसे ऊपर रही है। राष्ट्र हित का नंबर उसके बाद ही आता होगा। राष्ट्र हित का तकाजा है कि बीजेपी यह स्वीकार करे कि देश जिस तनाव में है, उसके लिए वह किसी और को दोष नहीं दे सकती क्योंकि पिछले पांच साल से वही सरकार चला रही है।
बीजेपी सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले बजट से कुछ खास उम्मीद करना बेमानी है। देश जिस आर्थिक अव्यवस्था के भंवरजाल में फंसा है, उससे निकालने के लिए न तो सरकार के पास पैसे हैं और न ही कोई नई सोच। हम सब की सहानुभूति वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के साथ है। हर भारतीय चाहता है कि सीतारमण सफल हों क्योंकि जो भारत के लिए अच्छा है, वह हम सबके लिए अच्छा है लेकिन ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री और पूर्व वित्त मंत्री के आर्थिक दुस्साहसों के लिए अंततः सीतारमण को बलि का बकरा बना दिया जाएगा।
इससे पहले कि सीतारमण के बजट की इस आधार पर आलोचना हो कि उसमें कुछ भी नई दिशा नहीं, यह ध्यान में रखना चाहिए कि मौजूदा वित्त मंत्री को विरासत में ऐसी कड़वी अर्थव्यवस्था मिली है जिस पर चॉकलेट की परत चढ़ी हुई है। ‘चॉकलेट की परत चढ़ी’ भाव इसलिए मौजूं है क्योंकि कई सालों से सरकार यह कहती नहीं थकी कि भारत सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है और सच का एक-एक कतरा उसने खूबसूरत कालीन के नीचे छिपा दिया। लेकिन अब सच्चाई सामने आने लगी है और तमाम ऐसे संकेतक हैं जो गड़बड़ी की ओर इशारा कर रहे हैं और जो संकेतक सही दिख रहे हैं, संभव है उनके पीछे की हकीकत भी छिपी हुई हो।
अखबार के पहले पन्ने और अंदर के पन्नों के बीच के विरोधाभास पर भी गौर करना चाहिए। टीवी की हेडलाइन हो या अखबार का पहला पन्ना, उसे देखकर ऐसा लगता है सब कुछ ठीक है, लेकिन जैसे ही आप अंदर के पन्ने तक पहुंचते हैं, एक अलग ही कहानी सामने होती है। विकास दर पांच साल के न्यूनतम स्तर पर है, नई परियोजनाओं में निवेश 15 साल के न्यूनतम स्तर पर आ गया है, बेरोजगारी 45 साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है और जून में जीएसटी संग्रह एक लाख करोड़ से नीचे आ गया है। उस पर, ऑटो और ट्रैक्टर बिक्री लगातार गिरती जा रही है और 2018-19 में कृषि विकास दर गिरकर 2.7 फीसदी हो गई जबकि 2017-18 में यह 5 फीसदी थी।
बीजेपी को लोगों ने पूर्ण बहुमत के साथ चुना और यह जनमत स्पष्ट रूप से भारत को बदलने का है। पिछली बार बीजेपी ने इस विचार को आगे रखा था कि उसने गुजरात को एक आर्थिक पावर हाउस में बदला है और अगर मौका मिले तो वह देश के लिए भी ऐसा ही कर सकती है। लेकिन यह बात सही साबित नहीं हो सकी। इसका मुख्य कारण यह था कि गुजरात में बीजेपी को डॉ. मनमोहन सिंह की भारतीय अर्थव्यवस्था की शानदार समझ और सामाजिक बदलाव के प्रति यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी की प्रतिबद्धता का लाभ मिला। गुजरात को पूरी अर्थव्यवस्था की दशा का लाभ मिला लेकिन संभवतः उसे इसका अंदाजा नहीं था कि विकास को बढ़ाने वाले कारक क्या थे।
नोटबंदी एक विनाशकारी फैसला था और आज भी हम इसका खामियाजा भुगत रहे हैं। व्यापारियों को जीएसटी व्यवस्था को अपनाने के लिए और समय दिया जाना चाहिए था लेकिन अब यह बीते दिनों की है। अब तो यही सच्चाई है कि बीजेपी अगले पांच सालों के लिए सत्ता में है और बेशक हम इसकी आलोचना करें कि कहां क्या गलती हो गई, लेकिन यह समझना जरूरी है कि आज हम जिस अव्यवस्था में घिरे हैं, उससे निकलें कैसे। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था को ‘औपचारिक’ बनाने का लगातार प्रयास कर रही है। 2017 के बजट भाषण में तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने इस बात की ओर स्पष्ट इशारा किया था कि उनकी सरकार का लक्ष्य अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को औपचारिक अर्थव्यवस्था में बदलने का है।
सुनने में कितना भी अच्छा लगे, जेटली की बातों से ही सरकार के गलत दृष्टिकोण का पता चलता है। सरकार ने सोचा कि एक दस्तखत से वह करोड़ों व्यवसायों को एक झटके में औपचारिक कंपनियों में बदल देगी। उन्हें यह समझाने वाला कोई होना चाहिए था जो बताता कि वैसे व्यवसायों के लिए, जो किसी तरह अपना अस्तित्व बचाने में जुटे हैं, उनके लिए अनौपचारिक अर्थव्यवस्था से औपचारिक अर्थव्यवस्था की राह तय करना सबसे मुश्किल काम है। व्यवसाय करने वालों को प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है, अपने कर्मचारियों को पैसे देने पड़ते हैं और उसके बाद ही उनकी जेब में पैसे आते हैं। नए नियमों का पालन करने के चक्कर में उन पर दबाव बढ़ाऔर पिछले दो वर्षों के दौरान लाखों छोटे व्यवसाय बंद हो गए और इस तरह लाखों रोजगार खत्म हो गए।
बीजेपी ने शायद भारतीय अर्थव्यवस्था की बुनियादी बातों को ही गलत समझ लिया है और इसे कांग्रेस की हर चीज से उसकी नफरत में देखा जा सकता है। बीजेपी नेतृत्व निवेश और विनिर्माण से निर्देशित होने वाले चीनी विकास मॉडल से काफी प्रभावित है और उसका मानना है कि अगर भारत ने अपने बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने में भारी निवेश किया और निर्यात आधारित विनिर्माण को बढ़ावा दिया तो भारत विकास के अगले दौर में प्रवेश कर सकता है।
हमें यह समझने की जरूरत है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में घरेलू खपत इंजन का काम करती है, जो जीडीपी का 59% है, जबकि नियत पूंजी पर निवेश जीडीपी का 28.5% है। जबकि चीन में नियत पूंजी पर निवेश उनकी जीडीपी का 42.7% है और घरेलू खपत की जीडीपी में हिस्सेदारी 39% है। ज्यादा पूंजी निवेश चाहने में कुछ भी गलत नहीं है लेकिन यह मान लेना सही नहीं कि इस अतिरिक्त संसाधन की व्यवस्था आप अधिक कर संग्रह से करेंगे।
बीजेपी सरकार के लिए बड़ा अच्छा मौका था जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत कम थी। तब सरकार ने इसका लाभ मध्यम वर्ग को देने के बजाय अपने राजस्व भंडार को बढ़ाने का फैसला किया। सरकार ने तब पेट्रोलियम उत्पादों पर अतिरिक्त करों से लगभग 10 लाख करोड़ रु. की कमाई की। इसके बाद जीएसटी की शक्ल में एक और आफत आई जिसने एक झटके में लाखों छोटे व्यवसायों के सामने जीने- मरने का सवाल खड़ा कर दिया। ऐसे व्यवसाय जो किसी तरह जिंदा रहने का संघर्ष कर रहे थे, उनके लिए अनुपालन की लागत बढ़ गई। यह स्थिति तब आई जब नोटबंदी की मार से उबरने के लिए वे अभी संघर्ष ही कर रहे थे। तब हम नोटबंदी और जीएसटी के दुष्प्रभावों को सही तरीके से समझ नहीं पा रहे थे, लेकिन अब निश्चित रूप से कह सकते हैं कि इन्हीं से परेशानी शुरू हुई।
देश की अधिसंख्य आबादी खेती-किसानी से जुड़ी है और सरकार के पास इस क्षेत्र को मजबूत बनाने और गांवों में मांग बढ़ाने का कोई विचार नहीं है। सरकार ने जाने- माने कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी को कृषि पर बने टास्क फोर्स के सदस्य के साथ-साथ नीति आयोग का सदस्य बनाया है और उन्हें कृषि बाजार सुधार पर विशेषज्ञ समूह का अध्यक्ष भी बनाया है। कृषि क्षेत्र की बेहतरी के लिए मुख्यमंत्रियों की एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया गया है। इस समिति की अध्यक्षता महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस कर रहे हैं और समिति को अगले दो महीनों के भीतर अपनी रिपोर्ट देने के लिए कहा गया है। लेकिन हकीकत यह है कि फडणवीस के पास आज देश की सबसे जटिल समस्याओं में से एक का हल खोजने के लिए न तो समय है और न ही योग्यता।
बीजेपी के साथ दिक्कत यह है कि उसके लिए सियासत हमेशा सबसे ऊपर रही है। राष्ट्र हित का नंबर उसके बाद ही आता होगा। राष्ट्र हित का तकाजा है कि बीजेपी यह स्वीकार करे कि देश जिस तनाव में है, उसके लिए वह किसी और को दोष नहीं दे सकती क्योंकि पिछले पांच साल से वही सरकार चला रही है। देश शायद सीतारमण से कुछ ज्यादा ही उम्मीद कर रहा है। लोग उम्मीद कर रहे हैं कि वह वास्तविक स्थिति को समझेंगी, उसका सामना करेंगी और एक ऐसा बजट लेकर आएंगी जिससे अर्थव्यवस्था की दुर्दशा सुधरती हो।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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