महाश्वेता देवी की 'द्रौपदी' को पाठ्यक्रम से हटाकर दिल्ली विश्वविद्यालय ने खुद ही करा ली अपनी थू-थू
पाठ्यक्रम को सैकड़ों शिक्षाविदों की राय से तैयार किया जाता है। साहित्य तो मुख्यतया असहमति की ही जगह है। और इससे किसी-न-किसी की भावनाएं आहत होती ही हैं। पर, अगर निरीक्षण समिति के अधिकतर सदस्य साहित्य पृष्ठभूमि के नहीं होंगे तो वे यह बात कैसे समझ सकेंगे?
इन कहानियों का विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है। भारत और बाहर के कई विश्वविद्यालयों में इन्हें पढ़ाया जाता है। ये काफी प्रतिष्ठित साहित्यिक रचनाएं हैं और सबसे खास बात यह कि ये कई वर्षों से दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में रही हैं। लेकिन तमिल और बांग्ला से अंग्रेजी में अनुवाद की गई इन तीन कहानियों को विश्वविद्यालय ने अंग्रेजी के पाठ्यक्रम से हटाने का पिछले महीने फैसला किया। ये कहानियां तमिल लेखिकाएं- सुकीर्ता रानी और बामा तथा बांग्ला लेखिका महाश्वेता देवी की हैं।
हालांकि औपचारिक कारण सामने नहीं आया और इस संवाददाता ने विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार को फोन कॉल और ई-मेल किए, तब भी खबर लिखने तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। लेकिन अनौपचारिक सूत्रों को यह कहते हुए उद्धृत किया गया कि महाश्वेता देवी की कहानी ‘द्रौपदी’ में साफ तौर पर ‘सेक्सुअल’ सामग्री है इसलिए उसे हटा दिया गया है। यह सुरक्षाबलों द्वारा आदिवासियों के दमन और ‘दौपदी’ नामक महिला द्वारा उसके प्रतिरोध की कहानी है। इस प्रतिरोध को भारतीय सेना के प्रति अपमानजनक माना गया। जिन दो तमिल कहानियोंको पाठ्यक्रम से हटाया गया, उनके बारे में तो कुछ भी नहीं बताया गया है।
तमिल लेखिका सुकीर्ता रानी का कहना है कि इस किस्म के फैसले से उन्हें आश्चर्य नहीं हुआ। लेकिन वह यह जरूर कहती हैं कि विदेशी भाषाओं में अनुवाद होने पर उनकी कहानी पहले बाहर लोकप्रिय हुईं। उन्होंने अंग्रेजी अखबार द हिन्दू से कहा कि ‘हम आदमी को अंतरिक्ष आदि में भेज रहे हैं लेकिन हम सिर पर मैला ढोने की प्रथा भी जारी रखे हुए हैं। वे जब भारत की ऐसी छवि दिखाना चाहते हैं जहां कोई जातीय और धार्मिक गैर-बराबरी नहीं है, हमारी रचनाएं बताती हैं कि जातीय और धार्मिक गैर-बराबरियां मौजूद हैं। यह बहुत साफ है कि वे ऐसी रचनाएं पाठ्यक्रम से हटाना चाहते हैं।’
एक अन्य तमिल लेखिका बामा ने कहा कि ‘2,000 साल से भी अधिक समय से हमें अलग-थलग किया हुआ है, हमारे इतिहास नहीं लिखे गए हैं। यह सरकार हमारी आवाज को गला घोंटकर दबा देना चाहती है लेकिन हम चिल्लाएंगे। इस देश के युवा समझ गए हैं (कि क्या हो रहा है)। लेकिन दुखी होने की बजाय हम गुस्से में हैं। यह गुस्सा भविष्य में हमारी रचनाओं में दिखेगा।’
महाश्वेता देवी की कहानी का अंग्रेजी में सशक्त अनुवाद गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक ने किया है और याद ताजा करा देने वाली इस कथा ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ध्यान खींचा। ऐसा क्यों है, इसे इनअंशों से समझा जा सकता हैः
’1971 में चर्चित बाकुली ऑपरेशन में, जब तीन गांवों को चारोंओर से घेर लिया गया और मशीनगन से गोलियां चलाई गईं, तो वे लोग भी जमीन पर लेटकर मर जाने का नाटक करने लगे। वास्तव में, वे ही मुख्य अभियुक्त थे। सुरजा साहू और उसके बेटे की हत्या, अकाल के दौरान उच्च जाति के कुओं और ट्यूबवेलों पर कब्जा और उन तीन युवकों को पुलिस को न सौंपा जाना। इन सबसे वे प्रमुख बहकाने वाले थे। सुबह में, लाशें गिनने के दौरान उस दंपती को नहीं पाया जा सका।’
‘बाकुली ऑपरेशन के योजनाकार कैप्टन अर्जन सिंह का ब्लड शूगर लेवल अचानक से बढ़ा और इससे फिर साबित हुआ कि डायबिटीज व्यग्रता और निराशा का परिणाम है। डायबिटीज के 12 पति हैं- उनमें व्यग्रता भी है।’
‘दुलना और द्रौपदी गहन अंधकार में लंबे समय तक के लिए भूमिगत हो गए। सशस्त्र अभियान के जरिये इस अंधकार को चीरने के प्रयास में सुरक्षा बलों ने पश्चिम बंगाल के विभिन्न जिलों में कुछ संतालों को उनकी इच्छा के विपरीत अपने मालिक से मिलने को विवश किया। भारतीय संविधान के अनुसार, जाति या नस्ल पर ध्यान दिए बिना सभी लोग पवित्र हैं। फिर भी, इस किस्म की दुर्घटनाएं हो ही जाती हैं। इसके दो कारण हैं: पहला, भूमिगत जोड़े को छद्म भेष धरने में महारत हासिल थी और दूसरा, स्पेशल फोर्सेज को न केवल संताल बल्कि ऑस्ट्रो-एशियाटिक मुंडा जनजाति के सभी लोग एक जैसे ही दिखते हैं।’
खैर, डीयू अकादमिक परिषद ने अपने 26 निर्वाचित सदस्यों में से 16 के कड़े विरोध के बावजूद फैसले को मंजूर कर लिया। कोई वोटिंग नहीं कराई गई। विरोध करने वालों को कहा गया कि वे अपनी बात लिखकर दे दें। अकादमिक परिषद में 80-90 सदस्य होते हैं जिनमें केवल 26 निर्वाचित होते हैं। देशबंधु कॉलेज के सहायक प्रोफेसर डॉ बिस्वजीत मोहंती कहते हैं, ‘बैठक के कार्यक्रम से पता चलता है कि पहली बार निरीक्षण समिति का गठन मनमाने तरीके से हुआ और यह सब किसी अज्ञात स्रोत की प्रतिक्रिया से प्रभावित था। वे गुमनाम, अदृश्य और अमूर्त संस्थाओं की ‘आहत भावनाओं’ की बात करते हैं जबकि मुख्यधारा की शिक्षा व्यवस्था में वंचितों के प्रतिनिधित्व के लिए जगह नहीं निकालकर वे खुद उनकी भावनाओं को आहत कर रहे हैं’।
अकादमिक परिषद के निर्वाचित सदस्य और हंसराज कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ मिथुराज धूसिया चुटकी लेते हैं, ‘निरीक्षण समिति के अध्यक्ष डॉ. एम.के. पंडित मीडिया को कहते हैं कि उन्हें उन लेखकों की जाति के बारे में पता नहीं जिनकी रचनाएं हटा दी गई हैं। वह कहते हैं कि उनका जातिवाद में विश्वास नहीं। लेकिन बात तो यह है कि विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए जाति नहीं देखना आसान है। अब तो अमीर कहेंगे कि हम गरीबी में विश्वास नहीं करते!’
डीयू में पाठ्यक्रम का मसौदा प्रत्येक विभाग के स्तर पर पाठ्यक्रम समितियों द्वारा तैयार किया जाता है। फिर प्रस्तावित पाठ्यक्रम की जांच संकाय द्वारा की जाती है, जिसे अकादमिक परिषद में पहुंचने से पहले अकादमिक मामलों की एक स्थायी समिति को भेजा जाता है। इतनी प्रक्रिया के बाद ही कहानियों को शामिल किया गया था। लेकिन अब इसे एक ऐसी निरीक्षण समिति द्वारा हटाया जा रहा है जो खुद ही विधि सम्मत नहीं।
डॉ धूसिया कहते हैं, ‘पाठ्यक्रम को 2-3 वर्षों में सैकड़ों शिक्षाविदों को शामिल करते हुए एक कठोर वैधानिक प्रक्रिया अपनाते हुए तैयार किया गया है। इसे जनता के साथ भी साझा किया गया था’। वह कहते हैं कि साहित्य तो मुख्यतया असहमति की ही जगह है। आपको ऐसा कोई साहित्य नहीं मिलेगा जिससे किसी न किसी की भावनाएं आहत न होती हों। लेकिन अगर निरीक्षण समिति के ज्यादातर सदस्य साहित्य या अंग्रेजी पृष्ठभूमि के नहीं होंगे तो वे भला यह बात कैसे समझ सकेंगे? बहरहाल, जो भी हो, लगता तो नहीं कि फैसला पलटने जा रहा है। हां, इतना जरूर है कि इससे छात्र समेत अन्य पाठक इन कहानियों को पढ़ने से वंचित रह जाएंगे।
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