CAA को लेकर किसी भ्रम में न रहें, दस्तावेज सबको देने होंगे, साबित करनी होगी अपनी नागरिकता

बिहार के लोग इसलिए चिंतित हैं कि नीतीश कुमार भले ही ना-ना करते रहें, अंत में बीजेपी के सामने झुक ही जाते हैं। यही हाल ओडिशा का है, जहां नवीन पटनायक सार्वजनिक तौर पर दिखें कुछ भी, बीजेपी की कई नीतियों में किसी-न-किसी बहाने साथ आ ही जाते हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

केंद्रीय गृहमंत्रीअमित शाह बार-बार और घूम-घूम कर कह रहे हैं कि पूरे देश में एनआरसी की प्रक्रिया लागू की जाएगी। मतलब, हर व्यक्ति को अपनी नागरिकता सिद्ध करनी है- चाहे वह कोई हो- हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन- कुछ भी। नागरिकता (संशोधन) कानून (सीएए) के खिलाफ हो रहे देशव्यापी प्रदर्शनों की ओर से आंखें मूंदे और इनका मजाक उड़ा रहे लोगों को भी अपनी नागरिकता प्रमाणित करने वाले दस्तावेज सरकारी दफ्तरों में जमा करने होंगे- वे सरकारी कर्मचारी हों, तब भी। इसलिए गैर-मुस्लिमों में भी चिंता बढ़ रही है।

उन राज्यों के लोगों में चिंता अधिक है जहां बीजेपी शासन में है क्योंकि कई गैर बीजेपी शासित राज्यों ने साफ कहा है कि वे अपने यहां एनआरसी की प्रक्रिया शुरू नहीं होने देंगे। इसलिए बीजेपी शासित यूपी, उत्तराखंड, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में लोगों में बेचैनी बढ़ रही है। बिहार के लोग इसलिए चिंतित हैं कि नीतीश कुमार भले ही ना-ना करते रहें, अंत में बीजेपी के सामने झुक ही जाते हैं। यही हाल ओडिशा का है, जहां नवीन पटनायक सार्वजनिक तौर पर दिखें कुछ भी, बीजेपी की कई नीतियों में किसी-न-किसी बहाने साथ आ ही जाते हैं।

यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यह कह कर तो माहौल गर्मा ही दिया है कि यूपी में भी एनआरसी की जरूरत है। इसीलिए योगी के ही शहर- गोरखपुर, के ऐसे लोग भी आपस में बातचीत करने लगे हैं जो टैक्स आदि तो जमा कर रहे हैं लेकिन उनके पास जमीन और मकान आदि का दस्तावेज नहीं है। जमीन के लिए जिस प्रकार खसरा-खतौनी जरूरी है, उसी तरह मकान के लिए नगर निगम के कर निर्धारण सूची में नाम होना जरूरी है। एनआरसी के शोर के बाद तमाम लोग नगर निगम से कर निर्धारण सूची की नकल लेने के लिए दौड़ लगाने लगे हैं। टैक्स विभाग के कर्मचारी देनानंद बताते हैं कि पिछले एक महीने में कर निर्धारण सूची की नकल मांगने वालों की संख्या 100 के पार पहुंच गई है।

नगर निगम में भी आंकड़े 1980 के बाद के ही हैं। बिछिया की सुमन सहाय ने 1980 में मकान खरीदा था। वह पिछले 20 वर्षों से हाउस टैक्स भी जमा कर रही हैं। एनआरसी के शोर के बाद वह कर निर्धारण सूची का नकल लेने पहुंची तो उनका नाम फाइल में नहीं था। खुद बीजेपी के पार्षद ऋषि मोहन वर्मा के पिता का नाम कर निर्धारण सूची में नहीं है। पार्षद कहते हैं कि पैतृक मकान की नकल के लिए आवेदन दिया था। बताया गया कि कर निर्धारण सूची की फाइल के पन्नों को दीमक चाट गए हैं। प्रतिष्ठित व्यापारी आनंद रूंगटा ने भी पिछले दिनों कर निर्धारण सूची के नकल के लिए आवेदन दिया तो निगम की तरफ से मुहैया कराई गई नकल की काॅपी में ‘अस्पष्ट’ लिखकर कागज थमा दिया गया। निगम कह रहा है कि फाइल बारिश में भीग गई थी, इसलिए पन्ने पर लिखा हुआ स्पष्ट नहीं। अपर नगरआयुक्त डीके सिन्हा स्वीकारते हैं कि फाइल के पन्ने गायब हैं। दीमक चट कर गए हैं। यूनिवर्सिटी में शिक्षक प्रो. विनोद कुमार सिंह का कहना है कि गूगल में सर्च कर देखा है कि एनआरसी में कौन से कागजात की जरूरत पड़ेगी। उनके मुताबिक, जो जरूरी कागजात चाहिए, उन्हें जुटाने में सबसे अधिक दिक्कत उन्हें होगी जो झोपड़पट्टियों में रह रहे हैं।


दिल्ली-आसपास तो करोड़ों लोग रोएंगे

यही हाल गाजियाबाद और नोएडा का है। वजह भी है। यहां पचास लाख से अधिक ऐसे लोग रहते हैं जो यहां के मूल निवासी नहीं हैं और देश के विभिन्न क्षेत्रों से रोजगार की तलाश में आए और बस गए। गाजियाबाद के ट्रांस हिंडन की- वैशाली, कौशाम्बी, इन्द्रापुरम और वसुंधरा- जैसी काॅलोनियां पिछले तीन दशकों में ही बसी हैं। नोएडा और ग्रेटर नोएडा की भी यही कहानी है। वहां भी लगभग पूरी आबादी बाहरी लोगों की है। वसुंधरा निवासी सुधीर मेहरा बताते हैं कि वह करीब बीस साल से किराये के मकान में रह रहे हैं। असम में लागू हुआ एनआरसी यदि हूबहू यहां भी लागू हुआ तो वह अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाएंगे।

पंजाबी समुदाय के श्याम आहूजा कुछ अधिक डरे हुए हैं। असम जैसा प्रावधान हुआ तो उन्हें अपने माता-पिता के जन्म का भी रिकाॅर्ड देना होगा जो मुश्किल काम है। कानूनन उन्हें यह साबित करना होगा कि उनके पूर्वज बंटवारे के बाद भारत आए थे । जाट नेता सत्यपाल चौधरी की मानें तो देश के मुस्लिमों, दलितों और वंचितों के लिए इस रजिस्टर में अपना नाम चढ़वाना बड़ी चुनौती होगी। अकेले दिल्ली-एनसीआर में दो करोड़ ऐसे लोग हैं जिनके पास इस तरह के दस्तावेज मुश्किल से ही होंगे। एडवोकेट हामिद कुरैशी कहते हैं कि दो वक्त की रोटी की लड़ाई लड़ रहे करोड़ों लोगों से दुनिया भर के प्रपत्र की उम्मीद करना मूर्खता ही है। वह पूछते हैं कि 1955 में सिटिजन एक्ट लागू हुआ और उसमें चार बार संशोधन भी हुए, मगरआम लोगों को इसके बारे में कितनी जानकारी दी गई।

हमारे रक्षक भी हो जाएंगे घुसपैठिये

एनआरसी होने पर उत्तराखंड में 10 लाख से अधिक लोग सीधे तौर पर प्रभावित होंगे। इनमें वे नेपाली गोरखे भी हैं जिन्होंने या जिनके पूर्वजों ने भारतीय सीमा की रक्षा के लिए न सिर्फ अपने प्राणों की आहुति दी बल्कि जान पर खेल कर इसे अपना देश मान इसकी रक्षा की। राम संजीवन देहरादून सचिवालय के पास रिसपना पुल के पास फलों की ठेली लगाते हैं। आजादी के बाद के वर्षों में बिहार के गांव में जन्म हुआ, पर अनपढ़ माता-पिता ने जानकारी के अभाव में जन्म प्रमाणपत्र नहीं बनवाया। बरसों पहले अच्छी कमाई की आस में देहरादून आ गए। गांव-घर से नाता ही नहीं रहा। अब उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि कैसे खुद को देश का नागरिक साबित करें।

देहरादून के इंदिरानगर में रहने वाले आदेश सोमानी की चिंता इससे हटकर है। आदेश एक निजी कंपनी में काम करते हैं। पिछले दिनों उन्होंने घर की सफाई की। इस दौरान उन्हें माता-पिता से संबंधित कई कागजात मिले लेकिन चूंकि उनका वर्षों पहले देहांत हो गया इसलिए उन्हें नष्ट कर दिया। अब छुट्टी लेकर पुराने कागजातों की नकल निकालने का जुगाड़ कर रहे हैं। गुस्से से भरे आदेश सोमानी का सवाल है कि सरकार बताए कि नागरिक कौन है- बंटवारे के वक्त पाकिस्तान छोड़कर भारत आए, अब क्या आजादी के 73 साल बाद भारत छोड़कर पाकिस्तान जाना होगा? इंजीनियर रजनीकांत-माधुरी माथुर का परिवार तब इस इलाके में आया जब करीब 25-30 साल पहले असम में हिंसा और बाहरी बनाम स्थानीय का झगड़ा चरम पर था। अब उनके लिए फिर परेशानी खड़ी हो गई है। वह समझ नहीं पा रहे कि वे करेंगे क्या?

(इनपुटः गोरखपुर से पूर्णिमा श्रीवास्तव, गाजियाबाद/नोएडा से रवि अरोड़ा और देहरादून से ज्योति एस)

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