चुनाव आयोग से पूछे बिना ही केंद्र ने खोल दी इलेक्टोरल बॉन्ड बिक्री की नई विंडो, फिर भी चुप क्यों हैं आयोग!
आखिर सरकार ने ऐसा क्यों किया जबकि अक्टूबर माह की बिक्री हुए ज्यादा दिन नहीं हुए थे। यह एक रहस्य है। इससे भी बड़ा रहस्य है कि इन बॉन्ड की बिक्री तब खोली गई जब हिमाचल प्रदेश और गुजरात दोनों राज्यों में आदर्श चुनावी आचार संहिता लागू है।
चुनावी बॉन्ड पर चुनाव आयोग की रहस्यमयी खामोशी न तो चौंकाती है और न ही इस पर चर्चा हो रही है। लेकिन केंद्र सरकार ने अभी जब 7 नवंबर को एक आदेश जारी कर इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री की नई खिड़की खोल दी, वह भी ऐसे वक्त में जब दो राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, तो सवाल तो उठना ही चाहिए।
हालांकि इससे पहले चुनाव आयोग पूर्व में कई मौकों पर इन बॉन्ड को लेकर अपनी आशंकाएं जता चुका है। 2017 से 2020 के बीच आयोग ने केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट दोनों के ही सामने कहा कि यह एक ऐसी व्यवस्था है जो कालेधन और शेल कंपनियों (ऐसी कंपनियां जो सिर्फ नाम का कारोबार कर पैसे को इधर-उधर करती हैं) को चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करने का मौका देगी। लेकिन अब लगता है कि चुनाव आयोग भी लाइन में आ गया है और तमाम संस्थाओं की तरह ही सिर्फ मूक दर्शक बन कर सरकार के कदमों और फैसलों को देख भर रहा है। इसके बावजूद जब इस महीने की शुरुआत में केंद्र ने दुस्साहसी और बेशर्म तरीके से इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री की नई तारीखें तय कीं तो आयोग से कम से कम प्रतिरोध दिखाने की उम्मीद की गई थी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
सरकार ने 7 नवंबर को जो अधिसूचना जारी की कि उसके लिए उसने 2018 की अधिसूचना में संशोधन किया जिसमें एक साल में अधिकतम चार बार ही इलेक्टोरल बॉन्ड (जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में हर माह 10 दिन के लिए) की बिक्री का नियम था। इस दौरान स्टेट बैंक की चुनी हुई शाखाएं इन बॉन्ड की बिक्री कर सकती थीं। लेकिन अचानक से सरकार ने इस बार ऐन चुनावों के बीच 9 से 15 नवंबर तक के लिए फिर से यानी पांचवीं बार बॉन्ड बिक्री की अधिसूचना जारी कर दी।
सवाल है कि आखिर सरकार ने ऐसा क्यों किया जबकि अक्टूबर माह की बिक्री हुए ज्यादा दिन नहीं हुए थे। यह एक रहस्य है। इससे भी बड़ा रहस्य है कि इन बॉन्ड की बिक्री तब खोली गई जब हिमाचल प्रदेश और गुजरात दोनों राज्यों में आदर्श चुनावी आचार संहिता लागू है। वैसे तो इसे आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन माना जाना चाहिए, क्योंकि हिमाचल प्रदेश में 12 नवंबर को मतदान था और गुजरात में पहली और पांच दिसंबर को दो चरणों में मतदान होना है। सरकार के इस कदम को लेकर चुनाव आयोग से शिकायतें भी की गईं, लेकिन हुआ कुछ नहीं।
इसे लेकर पूर्व आइएएस और केंद्र सरकार में सचिव रहे ई ए एस सर्मा ने चुनाव आयोग को पत्र भी लिखा जिसमें रेखांकित किया गया कि ऐसे वक्त में जबकि इलेक्टोरल बॉन्ड का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है, सरकार द्वारा चुनावी मौसम में इनकी बिक्री को नियमों के विपरीत जाकर खोलना चौंकाता है। बता दें कि सुप्रीम कोर्ट में इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर दाखिल याचिकाओं पर अभी हाल में सुनवाई हुई थी और अगली सुनवाई 6 दिसंबर को होनी है,। ऐसे में चुनाव आयोग की जिम्मेदारी थी कि वह इसका संज्ञान लेता। लेकिन तमाम अन्य मामलों की तरह चुनाव आयोग इस मुद्दे पर खामोश ही रहा।
ऐसा कोई संकेत भी नहीं है कि केंद्र सरकार ने आदर्श चुनाव संहिता लागू होने के दौरान ही इलेक्टोरल बॉन्ड की नई विंडो खोलने से पहले चुनाव आयोग की सलाह भी ली होगी। यह भी स्पष्ट नहीं है कि आखिर सरकार को इन बॉन्ड की बिक्री खोलने की जरूरत क्यों पड़ी। 9 नवंबर को खुली इस नई विंडो को हिमाचल चुनाव से तो नहीं जोड़ा जा सकता क्योंकि वहां तो 10 नवंबर को ही प्रचार खत्म हो चुका था और 12 नवंबर को मतदान भी हो गया। गौरतलब है कि विभिन्न स्त्रोतों से हासिल आंकड़े संकेत देते हैं कि चुनावी बॉन्ड के जरिए दिए जाने वाले चंदे का 98 फीसदी हिस्सा बीजेपी को ही मिलता है।
पिछले महीने जब सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई हो रही थी तो अटॉर्नी जरनल और सॉलिसिटर जनरल को कोर्ट के सामने यह बताने में पसीने छूट गए कि इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था एकदम पारदर्शी है और ऐसी कोई गुंजाइश नहीं है कि शेल कंपनियां किसी भी तरह राजनीतिक दलों को कालेधन से चुनावी चंदा दे सकें। उम्मीद करें कि आने वाले वक्त में वह कोर्ट को यह भी बताएंगे कि किस तरह आयकर कानून (इनकम टैक्स ऐक्ट) और कंपनीज एक्ट में बदलाव कर यह व्यवस्था कर दी गई है कि किसी भ कंपनी को राजनीतिक चंदे का जिक्र अपने खातों में करने की जरूरत नहीं है।
लेकिन देश के नागरिकों को यह जानने का अधिकार है कि आखिर इन एक्ट में बदलाव क्यों किए गए, जिससे राजनीतिक दलों को विदेशी चंदा लेने की छूट मिल गई और क्यों कि पहले तीन साल में जो व्यवस्था लागू थी कि कोई भी कंपनी अपने मुनाफे के 7.5 फीसदी से अधिक चुनावी चंदा नहीं दे सकती, उसे क्यों खत्म कर दिया गया।
और, इससे भी बड़ा सवाल कि अगर सरकार पारदर्शिता में इतना ही विश्वास करती है तो उसे इलेक्टोरल बॉन्ड की जरूरत क्यों है? चंदा देने वाले तो चेक के जरिए या फिर डिजिटल ट्रांसफर के जरिए भी राजनीतिक पार्टियों को चंदा दे सकते हैं और पार्टियां चुनाव आयोग के सामने उनकी घोषणा भी कर सकती हैं।
वैसे एक आरटीआई के जरिए स्पष्ट हो चुका है कि केंद्र सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड की नई विंडो खोलने से पहले चुनाव आयोग की सहमति की जरूरत ही नहीं महसूस की। इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक आरटीआई कार्यकर्ता कमोडोर लोकेश बत्रा ने इस बारे में एक आरटीआई आवेदन डाला था जिसके जवाब से सामने आया है कि सरकार के वित्त मंत्रालय ने इस बारे में पहली बार मार्च 2021 में चर्चा की थी और इसकी सिफारिश की थी। लेकिन इसकी अधिसूचना सिर्फ इस साल 7 नवंबर को ही जारी की गई।
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