पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण को धार देने में बीजेपी नाकाम, कैराना के नाम पर लोगों को बांटने की कोशिश फेल
पश्चिमी उत्तर प्रदेश को सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में रंगने की बीजेपी की हर रणनीति फ्लॉप हो रही है। कैराना के नाम पर किसानों और आमजन को भरमाने का हर प्रयास नाकाम रहा है। वहीं जाटों और मुसलमानों के बीच खाई पैदा करने की भी हर कोशिश फेल ही हुई है।
अभी शुक्रवार को गढ़मुक्तेश्वर में एक नुक्कड़ चुनावी सभा में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने लोगों को सचिव और गौरव की याद दिलाई। ये दोनों वे युवक हैं जिनकी कथित तौर पर छेड़छाड़ का विरोध करने पर हत्या हुई थी और जिसके बाद 2013 में मुजफ्फरनगर में दंगे भड़क उठे थे।
योगी ने ऐसा जानबूझकर कुछ ऐसे अंदाज में किया जिससे कि लोगों की सांप्रदायिक भावनाएं भड़क जाएं और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण को धार मिल सके। योगी ही नहीं, केंद्रीय गृहमंत्री अमित साह ने भी जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कैराना से चुनाव प्रचार की शुरूआत की थी जो उन्होंने पलायन का मुद्दा जोरशोर से उछाला था। उन्होंने उन 11 परिवारों के से भी मुलाकात की थी जो कथित तौर पर मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान पलायन कर गए थे लेकिन अब वापस आ गए हैं।
यहां याद दिला दें कि बीजेपी सांसद हुकुम सिंह ने 2013 में पलायन का मुद्दा उठाया था जिसका फायदा बीजेपी को मिला था, क्योंकि इससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ, सहारनपुर और मुरादाबाद जैसे इलाकों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण तेज हुआ था। 2014 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी ने इस इलाके में ध्रुवीकरण से रोपी गई राजनीतिक फसल काटी थी और 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में क्षेत्र की 70 में से 51 सीटें उसकी झोली में गई थीं।
बीते 7 साल के दौरान बीजेपी एक संदेश फैलाने में लगी रही है कि जाट और मुस्लिम कभी एक साथ नहीं आ सकते। कभी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रभारी रहे एक बीजेपी ने कहा कि, “पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हमारा प्रदर्शन बहुत शानदार रहेगा। इस इलाके में मुस्लिम और जाट एक-दूसरे के विरोधी है, वे कभी एक साथ वोट नहीं करते, और इस बार भी जाट बीजेपी के पक्ष में वोट देंगे।”
लेकिन अभी तक के संकेतों से सामने आने लगा है कि ध्रुवीकरण की रणनीति इस विधानसभा चुनाव में काम नहीं कर पा रही है। किसान आंदोलन ने जाति, समुदाय और धर्म से ऊपर उठकर किसानों को एकजुट कर दिया है और हिंदू-मुसलमानों के बीच भाईचारा स्थापित हुआ है। बीजेपी सांसद हुकुम सिंह की मौत के बाद कैराना में हुए लोकसभा उपचुनाव में इसका संकेत भी मिला था जब समाजवादी पार्टी की तबस्सुम बेगम ने आरएलडी के टिकट पर चुनाव जीता था। उन्होंने चुनाव में हुकुम सिंह की बेटी मृगांका सिंह को मात दी थी।
इस बार के विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दल, एनजीओ, सिविल सोसायटी के सदस्यों और धार्मिक संगठनों ने लोगों से अपील की है कि वे विभाजन की राजनीति के बरगलाने में न आएं। किसान नेता मनिंदर चौधरी कहते हैं कि, “हमें पता है कि कुछ नेता सांप्रदायिक कार्ड खेलेंग, लेकिन इस बार हम तैयार हैं। जाट और मुसलमानों ने कामयाबी के साथ कृषि कानून विरोधी आंदोलन 13 महीनों तक चलाया है और यही एकता विधासनभा चुनावों में भी दिखेगी।”
ऑल इंडिया इमाम एसोसिएशन के प्रदेशाध्क्ष मौलाना जुल्फिकार का कहना है कि लोगो को बांटने वाली राजनीति समझ आ गई है, अब मुसलमानों से कहा गया है कि बीजेपी नेता कोई भी आरोप लगाते रहे, उस पर प्रतिक्रिया नहीं देनी है।
मुजफ्फरनगर में अस्तित्व नाम का एनजीओ चलाने वाली रेहाना अदीब कहती हैं कि मुसलमानों से धैर्य रखने की अपील की गई है। और यही वह खास बात है जिसके चलते बीजेपी को तमाम कोशिशों के बावजूद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ध्रुवीकरण करने में कामयाबी नहीं मिल रही है।
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