बिहारः जब सरकार-प्रशासन ने नहीं दिया साथ, तो एक दिव्यांग ही बना दिव्यांग का मददगार
लॉकडाउन में दिल्ली और मुंबई से ट्राई साइकिल चलाकर बिहार के गोपालगंज पहुंचे दो दिव्यांगों को जब कोई सरकारी सहायता नहीं मिली, तो दोनों ने एक दूसरे का सहारा बनकर न केवल इंसानियत की मिसाल पेश की, बल्कि यह संदेश भी दिया कि अगर हौसला हो तो कोई राह मुश्किल नहीं।
कहते हैं कि अगर हौसला हो तो न शारीरिक कमजोरी आपकी मंजिल तक पहुंचने में बाधक बनती है और न ही सपने ही टूटते हैं। ऐसा ही कुछ देखने को मिला बिहार के गोपालगंज में जहां कोरोना संक्रमण के इस दौर में दिल्ली और मुंबई से ट्राई साइकिल चलाकर पहुंचे दो दिव्यांगों को जब कोई सरकारी सहारयता नहीं मिली, तब इन दोनों ने एक दूसरे का सहारा बनकर इंसानियत की न केवल मिसाल पेश की, बल्कि यह संदेश भी दे गए कि अगर हौसला हो तो कोई राह मुश्किल नहीं। हालांकि, ये दोनों जाते-जाते दिव्यांगता के साथ-साथ सरकारी और प्रशासनिक लिफलता का दंश झेलने का दर्द भी बयां कर गए।
बिहार के बेगूसराय के बखरी प्रखंड के घघरा पंचायत के रहने वाले 28 वर्षीय प्रवीण कुमार अपने क्षेत्र में कोई रोजगार नहीं मिलने के कारण साल 2012 में दिल्ली चले गए थे। वहीं एक बैग बनाने वाली कंपनी में काम करने लगे। कोरोना महामारी के कारण लॉकडाउन में जब सब कुछ बंद हो गया तब उनके सामने खाने के भी लाले पड़ गए। पास में जो पैसे थे, वो डेढ़ माह में खत्म हो गए।
प्रवीण कहते हैं, "लॉकडाउन नहीं टूटा और वापस आने के लिए कोई संसाधन भी नहीं मिला। तमाम मुश्किलों को देखते हुए ट्राई साइकिल से ही डेढ़ हजार किलोमीटर की दूरी तय करने का फैसला ले लिया। आठ दिन पहले दिल्ली से निकले और बीते रविवार को उत्तर प्रदेश-बिहार की सीमा पर पहुंचा।
यहां पहुंचते ही दिव्यांग को एक आशा की किरण दिखाई दी कि शायद अब यहां से ट्राई साइकिल नहीं चलाना पड़ेगा। बस के द्वारा यहां का प्रशासन अब उन्हें उनके गांव भेज देगा। लेकिन कुछ ही देर में इस दिव्यांग की सारी आशा निराशा में तब्दील हो गई, क्योंकि इस दिव्यांग को किसी ने बस पर नहीं चढ़ाया। उसके आंखों के सामने से ही बस अपनी मंजिल की ओर निकल गई।
प्रवीण ने फिर भी हार नहीं मानी और फिर से हिम्मत जुटाकर अपने मुकाम के लिए ट्राई साइकिल से रवाना हो गया। वह बताता है, "चेकपोस्ट से 25 किलोमीटर आगे जब गोपालगंज के कोन्हवा मोड़ के पास पहुंचा, तब एक दिव्यांग ने मदद के लिए हाथ बढ़ाया, जो मुम्बई से अपनी जुगाड़ी गाड़ी से दरभंगा जा रहा था।"
मुंबई में इस लॉकडाउन में फंसे बिहार के दरभंगा जिले के दोनों पैर से दिव्यांग मदन साह स्टॉल लगाकर चाय बेचा करते थे। मदन को बचपन से ही पोलियो मारने के कारण दोनों पैर काम नहीं करते, जिसकी वजह से दरभंगा में न तो कोई काम मिला और न ही रोजगार कर सके।
मदन साह कहते है, "घर-परिवार को चलाने के लिए मुंबई चला गया। जहां कोरोना की कहर बढ़ते देख लौटने का फैसला किया। आठ दिन पहले मंबई से मोटरयुक्त ट्राइ साइकिल से गांव तक पहुंचने का ठान लिया। रास्ते में जो दिव्यांग मिला, उसके ट्राइ साइकिल में रस्सी बांधकर सहारा भी दिया। बिहार में प्रवेश करने पर बेगूसराय का मजबूर प्रवीण मिल गया, जिसे अब सहारा दिया।"
मदन साह कहते हैं, "मुंबई से चले हैं, दरभंगा के बहेरा जाउंगा। मुंबई में खाने-पीने का कुछ नहीं बचा था। काम-धंधा ठप हो गया। कोरोना होने का डर भी था, इसलिए ट्राइ साइकिल से ही घर लौटने का फैसला किया। रास्ते में खाने के लिए भी तरसना पड़ा। आठ दिनों के सफर में कोई दिया तो खाया, नहीं तो पानी पी-पीकर आया हूं।"
रोजगार के लिए दूसरे प्रदेशों में पलायन करने की बात पर मदन साह कहते हैं कि सरकार से कुछ मिला नहीं, इसलिए प्रदेश कमाने के लिए जाना पड़ता है। हालांकि उन्हें इस बात का फख्र है कि दिव्यांग होने के बाद भी वे दूसरे की मदद करने लायक हैं। इसके बाद मदन अपने मोटरयुक्त ट्राई साईकिल में प्रवीण के ट्राईसाइकिल को एक रस्सी से बांधकर साथ-साथ अपने आगे के सफर पर निकल गए।
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