सुशासन बाबू के राज में बिहार बदहाल, कौन दिखाए आईना जब मीडिया पर लगा हो अघोषित प्रतिबंध !
बिहार से प्रकाशित होने वाले और सरकारी विज्ञापन हासिल करने वाले अखबार सही खबरों को अंडरप्ले करने को मजबूर हैं। मुजफ्फरपुर का चमकी बुखार भी ऐसा ही मसला है। लेकिन जब राष्ट्रीय स्तर पर बहुत किरकिरी होने लगी, तब जाकर सरकार थोड़ी एक्टिव हुई।
सुशासन के दावे पर उछलने वाले नीतीश कुमार की सरकार ने बिहार के लोगों को बुरे दिनों में पहुंचा कर छोड़ दिया है। लोकसभा चुनाव में 40 में से 39 सीट एनडीए जीत गई लेकिन तेजी से बढ़ी आपराधिक वारदातों, मुजफ्फरपुर के चमकी बुखार, भीषण गर्मी में बिजली संकट आदि ने कुशासन से जुड़ी हर फाइल पर जनता को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है।
लेकिन यह सब मीडिया में उस तरह हाईलाइट नहीं हो रहा। दरअसल, ये बिहार में भी सुर्खियां नहीं बने, इसके लिए नीतीश ने सब इंतजाम कर रखे हैं। बिहार में मीडिया पर अघोषित प्रतिबंध है। बिहार से प्रकाशित होने वाले और सरकारी विज्ञापन हासिल करने वाले अखबार सही खबरों को अंडरप्ले करने को मजबूर हैं। जब-जब जिसने कुछ ‘हिमाकत’ की, उस अखबार का विज्ञापन बंद कर बिहार सरकार ने आर्थिक रूप से उसकी कमर तोड़ दी।
अब देखिए न! सिर्फ पटना जिले में जून महीने में 30 हत्याएं हुईं। पांच बड़ी डकैतियों ने कुछेक टीवी चैनलों के जरिये राष्ट्रीय स्तर पर कुछ सुर्खियां बटोरीं। पटना में दिनदहाड़े ज्वेलर्स के शोरूम लूटे जा रहे तो कारोबारी या छात्र को सीने में सटाकर गोली मार दी जा रही है। लूट, छिनतई, चोरी आदि की वारदातों के साथ वर्चस्व के लिए फायरिंग तक की घटनाएं अब आम हो गई हैं। ऐसा कोई जिला नहीं, जहां से हत्या की खबर नहीं आ रही हो। पटना की बुरी हालत को देखकर पूरे बिहार का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है, लेकिन अपराध की खबरों पर कोई भी सरकार को घेरने की स्थिति में नहीं है।
मुजफ्फरपुर का चमकी बुखार भी ऐसा ही मसला है। राष्ट्रीय स्तर पर बहुत किरकिरी होने लगी, तब जाकर सरकार थोड़ी एक्टिव हुई। लेकिन यह भूलने की बात नहीं है कि यह बीमारी मुजफ्फरपुर औरआसपास के जिलों में हर साल फैलती है और हर साल सैकड़ों बच्चे काल के शिकार बनते हैं। बिहार सरकार का स्वास्थ्य महकमा हर साल इस पर नियंत्रण के उपाय के तमाम दावे करता है, लेकिन पिछले पंद्रह साल में नीतीश कुछ कर तो नहीं पाए हैं। इससे उनकी चमक भले निकल गई हो, नीतीश सरकार की अकड़ नहीं निकली।
इस बार भी नीतीश कुमार वहां काफी देर से जायजा लेने गए। स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय गए भी तो बैठक में क्रिकेट में भारत का स्कोर अपडेट लेने के कारण ही चर्चा में रहे। यह भी ध्यान रखने की बात है कि नीतीश कुमार की विभिन्न सरकारों में मंगल पांडेय के पहले चंद्रमोहन राय, नंदकिशोर यादव, अश्विनी चौबे आदि स्वास्थ्य मंत्री रहे हैं और ये सभी बीजेपी नेता हैं।
नीतीश कुमार ने कागजों पर स्वास्थ्य की प्रगति दिखाने के लिए पटना में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का नाम तो अर्बन प्राइमरी हेल्थ सेंटर (यूपीएचसी) कर दिया लेकिन व्यवस्था के शहरीकरण की योजना जमीन पर नहीं ला सके। जहां यूपीएचसी का बोर्ड भी लगा है, वहां मरीजों के बैठने और इलाज करने की व्यवस्था नहीं दिख रही। चमकी बुखार के मामले में भी ऐसी ही हकीकत सामने आई।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रहे आरटीआई एक्टिविस्ट विकास चंद्र उर्फ गुड्डू बाबा कहते हैं कि पटना के पीएमसीएच और एनएमसीएच, मुजफ्फरपुर के एसकेएमसीएच, भागलपुर के जेएलएनएमसीएच, गया के एएनएमसीएच- जैसे सरकारी अस्पतालों के सीनियर डॉक्टर्स को अस्पताल में निर्धारित समय तक रोकने तक में नीतीश सरकार विफल साबित रही है।
यही कारण है कि बिहार में 83 प्रतिशत डॉक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस वाले हैं। राष्ट्रीय मानक पर 84 फीसदी पीएचसी की कमी और 40 प्रतिशत डॉक्टरों की कमी सामने आने के बावजूद सब कुछ भगवान भरोसे है। इसलिए स्वास्थ्य के क्षेत्र में बिहार का हाल सुधरने के हाल-फिलहाल आसार की उम्मीद नहीं पालनी चाहिए।
वैसे, नीतीश के ‘कुशासन’ के प्रमाण तो मिलते रहे हैं। मुजफ्फरपुर का शेल्टर होम केस भी वैसा ही प्रमाण है। नीतीश की करीबी और तत्कालीन समाज कल्याण मंत्री मंजू वर्मा की जानकारी में बिहार सरकार संपोषित मुजफ्फरपुर के शेल्टर होम में संवासिनों का मानसिक-शारीरिक शोषण होता रहा। हद तो यह रही कि नीतीश सरकार ने दुष्कर्म तक की रिपोर्ट भी सचिवालय में अरसे तक दबाए रखी। सब कुछ सार्वजनिक होने के बाद भी विभागीय मंत्री से इस्तीफा तब लिया गया, जब पानी सिर के ऊपर आ गया।
भागलपुर का सृजन घोटाला भी नीतीश सरकार में ही हुआ। बैंकों के साथ मिल कर की गई इस बड़ी हेराफेरी में जब सरकार के बड़े नामों के फंसने की बातें सामने आईं तो मामला छोटी मछलियों की ओर डायवर्ट कर दिया गया। इस मामले में तब बिहार बीजेपी के बड़े माने जाने वाले नेता उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का भी नाम सामने आया था। अब जैसे भी हो, डबल इंजन की केंद्र और राज्य सरकारों ने इसकी आवाज दबा दी है।
शिक्षा भी खोलती है कलई
बीजेपी के साथ पहली बार सरकार बनाने पर नीतीश शिक्षा को बढ़ावा देने की बात कहते थे। लेकिन किया कुछ नहीं। हकीकत यह है कि अब भी 35 प्रतिशत शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों की कमी है। राजधानी की सुगमता के कारण पटना के कुछ सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की संख्या मांग से अधिक है, जबकि यहीं के कई स्कूलों में विषयवार शिक्षकों की मांग अरसे से चली आ रही है।
सरकारी रिकॉर्ड भी मानते हैं कि नौ प्रतिशत प्राइमरी स्कूलों के पास या तो भवन नहीं हैं या काम लायक नहीं हैं। उपाय के नाम पर कभी दो-तीन स्कूलों को एक भवन में कर दिया जा रहा है तो कहीं कई स्कूलों को मिलाकर एक स्कूल बना दिए जा रहे हैं। आंकड़ा सुधार की इस प्रक्रिया में मिड डे मील का भी नीतीश सरकार ने खूब उपयोग किया, लेकिन आज भी हकीकत यही है कि 40 प्रतिशत बच्चे बीच में ही स्कूली पढ़ाई छोड़ दे रहे हैं।
नीतीश की साइकिल, पोशाक जैसी योजनाएं भी इस गति पर विराम लगाने में नाकाम रही हैं। प्राइवेट स्कूल एंड चिल्ड्रेन वेलफेयर एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष सैय्यद शमायल अहमद कहते हैं कि प्राथमिक से आगे की शिक्षा में सुधार के लिए नीतीश सरकार ने अब तक क्या किया है, यह लगातार सामने आए बिहार बोर्ड के टॉपर्स घोटालों ने बता दिया है। टॉपर्स घोटालों के लिए चर्चित बिहार बोर्ड ने अपने खिलाफ एक भी खबर छापने पर विज्ञापन बंद करने का फरमान जारी कर रखा है।
अगर खुदा न खास्ता कहीं कोई खबर छप गई, तो उसे नकारते हुए आधे-आधे पन्ने का खंडन वाला विज्ञापन जारी कर दिया जाता है। दसवीं पास करने वाले बच्चों के लिए कॉलेज की व्यवस्था आज तक नहीं कर पाने के कारण कुछ बच्चे इंटर स्कूलों में 12वीं तक पढ़ाई करते हैं और ज्यादातर के लिए बिहार के कॉलेजों में सीटें ही नहीं हैं। यानी, पढ़ाई के मामले में प्राथमिक से उच्च शिक्षा तक का हाल खराब है।
इंडस्ट्रीज का वही पुराना हाल
बिहार के श्रमिक दूसरे राज्यों में खेती को भी आगे बढ़ा रहे हैं और उद्योग को भी, लेकिन अपने ही प्रदेश में नहीं। वजह श्रमिक नहीं, उद्यम परिस्थितियां हैं। नीतीश सरकार उद्योगों को बढ़ावा देने की बात कहती तो रही, लेकिन पहले टर्म से अब तक भागलपुर में फूड पार्क का सपना ही दिखाती रही। वहां से फूड पार्क का सपना टूटा तो अलग-अलग फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्रीज को बढ़ावा देने की बात आई। इंडस्ट्री के लिए सिंगल विंडो सिस्टम डेवलप करने की बात वर्षों से करने वाले नीतीश कुमार के नाम पर बहुत कम इंडस्ट्री बिहार आईं और जो आईं भी, वह परेशान हैं।
कच्चे माल की सहज उपलब्धता के बावजूद विभिन्न विभागों में समन्वय की कमी के कारण उद्यमी हैरान-परेशान हैं। उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी बिहार सरकार का वित्त मंत्रालय खुद संभालते हैं, लेकिन हर साल बैंकों को लोन सुगमता के लिए चेतावनी देने से ज्यादा कुछ नहीं कर सके हैं। इस हकीकत के बावजूद उद्यमी सीधे तौर पर नीतीश के खिलाफ बोलने से बचते हैं।
नए प्रोजेक्ट पर काम करने के दौरान लंबे समय से परेशानी झेल रहे युवा उद्यमी राजीव रंजन अपने अनुभव से कहते हैं कि बड़े-बड़े प्रोजेक्ट बैंकों की मनमानी के कारण अटक गए या उद्योग विभाग की धीमी चाल के कारण दूसरे राज्यों में चले गए। यही कारण है कि आज भी बिहार की अर्थव्यवस्था में उद्योग का योगदान खींचकर भी 20 प्रतिशत तक ही पहुंच रहा है। 38 प्रतिशत उद्योग कृषि आधारित होने के बावजूद फूड प्रोसेसिंग के मामले में बिहार का डंका बजाने में नीतीश विफल रहे हैं।
निर्बाध बिजली नहीं दे सके
नीतीश सरकार ने राजधानी पटना से प्रदेश के अंतिम जिले तक की दूरी छह घंटे में तय कराने का सपना दिखाया था, लेकिन एनएच ठीक कराने में केंद्र सरकार का सहयोग नहीं मिलने और अपने स्तर से जाम का समाधान नहीं कर पाने के कारण पटना जिले के ही एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंचने में तीन घंटे का वक्त लग जा रहा है। यही हाल निर्बाध बिजली के दावे के साथ भी है। पिछले हफ्ते नीतीश बेगूसराय जिले के बखरी गए थे। बिजली संकट के लिए लगातार चर्चित रहे बेगूसराय के इस अनुमंडल मुख्यालय में उस दिन तभी तक बिजली रही, जब तक नीतीश और उनके मातहत अफसर वहां थे। उनके जाते ही बिजली गुल हो गई। यह एक उदाहरण भर है।
पटना में आंधी-बारिश में बिजली गुल हो जाती है तो कई घंटे बाद आती है। बेगूसराय जिले के सामाजिक कार्यकर्ता मो. शमीम कहते हैं कि निर्बाध बिजली तो दूर, लगातार कुछ घंटे बिजली रहना भी आम लोगों के लिए खबर है। बेगूसराय में बिजली बरौनी रिफाइनरी तो पटना में एनटीपीसी के अंदर ही ठीक रहती है, बाकी जगह कम वोल्टेज या लगातार कटौती जैसे संकट कायम हैं।
शराबबंदी के सारे फॉर्मूले फेल
नीतीश को जिस पूर्ण शराबबंदी के कारण आमजन का साथ मिलने की बात कही जा रही है, उसका भी हाल इससे अलग नहीं है। शराबबंदी तो है, लेकिन शराब बंद नहीं है। दुकानों में खुलकर नहीं मिलती, लेकिन मिल जाती है। जहां चाहें, वहां। पिछले दिनों तंग आकर सरकार ने यह तक कह दिया कि जिस थाना क्षेत्र से शराब बरामद होगी, वहां के थानेदार सस्पेंड होंगे। इस घोषणा के बाद थानेदारों ने शराब की बरामदगी दिखानी लगभग बंद कर दी। सिर्फ वैसे ही मामले सामने आ रहे हैं, जिसमें मीडिया को पहले जानकारी हो जाती है।
सूखा और बाढ़- दोनों का समाधान नहीं, लूट जारी
बिहार में सूखा और बाढ़- दोनों ही सरकारी लूट का रास्ता बने हुए हैं और ऐसा नहीं कि नीतीश इससे अनजान हैं। सब कुछ जानते हुए भी नीतीश बाढ़ का कोई स्थायी समाधान नहीं ढूंढ सके हैं। लगभग हर बार बाढ़ आती है और हवाई सर्वेक्षण कर जनता के साथ खुद को दिखाने में नीतीश अपनी तरफ से कामयाब हो लेते हैं। बाढ़ राहत में हर साल घोटाला होता है। अधिकारी बाढ़ का इंतजार करते रहते हैं ताकि वह जन-राहत के बहाने अपनी कमाई कर सकें। अफसर कमाएं और मंत्रियों का पेट भरे बगैर, यह तो संभव नहीं।
यही हाल अब सूखा का हो चला है। डीजल अनुदान के नाम पर उन लोगों को भी हर साल पैसा दिया जाता है, जो वर्षों से खेती नहीं कर रहे। अनुदान का यह पैसा ऐसे ही जारी होता होगा, यह सोचना गलत है। पेयजल का भी संकट बढ़ता ही जा रहा है। हर घर नल जल योजना से नीतीश सरकार जहां पानी पहुंचा भी चुकी है, वहां नलकूपों से पानी नहीं मिलने के कारण किसान पेयजल का इस्तेमाल खेतों में करने को मजबूर हैं।
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