विशेष: गांधी और बा के दिल के करीब था भितिहरवा आश्रम

बिहार में विकास की पटरी ऐसे उखड़ी है कि देश-दुनिया का ऐतिहासिक धरोहर से तार ही कट गया है। ये ऐतिहासिक धरोहर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का आश्रम है।

फोटो: अफरोज आलम साहिल
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अफरोज आलम साहिल

भितिहरवा आश्रम का निर्माण गांधी जी ने खुद किया था। यह आश्रम बेतिया से 65 किलोमीटर और नरकटियागंज से 18 किलोमीटर दूर है।

1917 में चम्पारण सत्याग्रह के समय की वह खपरैल कुटिया आज भी है। इसे बचाने के लिए मूल कुटिया के ऊपर एक शेड डाल दिया गया है।

आश्रम की इस कुटिया में गांधी और कस्तूरबा द्वारा इस्तेमाल की गई घंटी, टेबल और चक्की संग्रहित हैं।

1951 में गांधी स्मारक निधि का गठन हुआ और आश्रम का संचालन इसी के तहत होने लगा।

2 अक्टूबर, 1970 को गांधी स्मारक निधि के भंग होने के बाद आश्रम की देखभाल यहां के स्वतंत्रता सेनानी और मुखिया मुकुटधारी प्रसाद चौहान करने लगे।

पिछले साल पूरे देश में चम्पारण सत्याग्रह का शताब्दी वर्ष मनाया गया। करोड़ों रुपये खर्च हुए, लेकिन जो आश्रम इस सत्याग्रह का एक अहम केन्द्र रहा, वह आज भी देश-दुनिया से कटा हुआ है। 100 साल पहले गांधी और उनके साथी ट्रेन से इस आश्रम और आस-पास के इलाकों में आते-जाते थे, लेकिन आज आलम यह है कि वह ट्रेन मार्ग पटरी सहित उखड़ चुका है।

गांव के लोगों का कहना है कि गांधी ने भितिहरवा गांव की बदहाली देखकर यहां काम शुरू किया था। उनका सबसे अधिक जोर शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छता पर रहा, लेकिन आज यह इलाका इन तीनों मामलों में सबसे ज्यादा पिछड़ा हुआ है। बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं।

भितिहरवा आश्रम हॉल्ट को 24 अप्रैल 2015 को यह कहते हुए बंद कर कर दिया गया कि छोटी लाइन को बड़ी लाइन में तब्दील किया जाएगा, लेकिन आज भी जो स्थिति है, उसे देखते हुए लगता नहीं कि यह काम साल-दो साल में भी शुरू हो पाएगा।

गांव के लोग अपना गुस्सा नीतीश कुमार पर उतारते नहीं थकते। गांव के एक बुजुर्ग रत्नेश लाल कहते हैं कि लालू यादव जब रेल मंत्री बने, उन्होंने पहली बार इस ओर ध्यान दिया। 2 अक्टूबर, 2004 को यहां एक जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने भितिहरवा रेलवे हॉल्ट को मॉडल स्टेशन बनाने के लिए कहा था। अगर वह रेलवे मंत्री बने रहते तो शायद अब तक यह हॉल्ट बिहार का मॉडल स्टेशन बन गया होता। लाल कहते हैं, “नीतीश कुमार इस आश्रम में कई बार आए। हर बार बड़े-बड़े वादे करते हैं, लेकिन पटना लौटते ही सब भूल जाते हैं।”

बता दें कि नीतीश सरकार ने इसे आदर्श पंचायत घोषित किया था। मीडिया भी इसे अपनी रिपोर्टों में कई बार आदर्श पंचायत बता चुका है। लेकिन सच्चाई यह है कि भितिहरवा कहीं से भी आदर्श नजर नहीं आता यानी गांधी ने चम्पारण सत्याग्रह के दौरान आदर्श ग्राम पंचायत का जो सपना देखा, वह आज भी अधूरा है।

गांधी स्मारक व संग्रहालय के प्रभारी डॉ शिव कुमार मिश्र का कहना है कि यहां आने-जाने की कोई सुविधा नहीं। फिर भी, हर साल देशी-विदेशी 250-300 पर्यटक आ जाते हैं। अगर सरकार यहां के लिए बस सेवा ही शुरू कर देती तो पर्यटकों की संख्या काफी बढ़ जाती। डॉ मिश्र इसके अलावा तीन और संग्रहालयों के भी प्रभारी हैं।

इस आश्रम में भ्रष्टाचार की कई कहानियां हैं। आश्रम के परिसर में दूर-दराज से आने वाले मेहमानों के ठहरने के लिए ‘गेस्ट हाउस’ है जिसका उद्घाटन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने बिहार का राज्यपाल रहते हुए किया था। लेकिन गेस्ट हाउस की कहानी यह है कि बनने के साल भर बाद ही खस्ताहाल हो गया है। दीवारों और छतों के प्लास्टर झड़ रहे हैं। यहां दो बार गेस्ट हाउस बनाकर तोड़ा जा चुका है। भितिहरवा के गांधीवादी नेता अनिरुद्ध प्रसाद चौरसिया बताते हैं कि 1991 में जब पर्यटन भवन बनकर तैयार हुआ, बिहार के तत्कालीन पर्यटन मंत्री हिन्द केसरी यादव जांच के लिए आए। उन्होंने मजबूती देखने को दीवार पर लात मारी तो यह दरक गई। इस कारण उसे तोड़कर फिर से बनाने का आदेश हुआ। इस तरह बिल्डिंग दो बार बनी और टूटी और अब तीसरी बार भी इसे तोड़ने की तैयारी चल रही है। इस बारे में डॉ मिश्र का कहना है कि 2013 में जब सीएम नीतीश कुमार यहां आए थे तो उन्होंने डीएम को इसे तोड़ने को कहा था। इस बार भी उन्होंने डीएम को यही आदेश दिया। लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ। हालांकि डॉ मिश्र यह भी कहते हैं कि एक संग्रहालय परिसर में कोई मेहमान कैसे रह सकता है? जब तक यहां हूं, यह नहीं होने दूंगा। संग्रहालय में शाम पांच बजे के बाद हमें भी रहने की इजाजत नहीं।

बता दें कि नीतीश कुमार 20 नवम्बर, 2017 को यहां आए थे। तब उन्होंने उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी, शिक्षा एवं विधि विभाग के मंत्री कृष्णनंदन प्रसाद वर्मा, खाद्य एवं उपभोक्ता संरक्षण विभाग के मंत्री मदन सहनी, गन्ना उद्योग मंत्री खुर्शीद फिरोज अहमद, पर्यटन मंत्री प्रमोद कुमार और यहां के सांसद सतीश चन्द्र दूबे और विधायक भागीरथी देवी की मौजूदगी में गांधी सर्किट के अन्तर्गत यहां बहुउद्देशीय भवन का शिलान्यास किया। यह परियोजना करीब 44 करोड़ की है, लेकिन आश्रम की देख-रेख करने वालों को भी पता नहीं कि यह बहुउद्देशीय भवन कब और कहां बनेगा।

गांधी 1917 में इस आश्रम से लोगों का देसी इलाज करते थे, लेकिन आज इस गांव के लोगों को इलाज के लिए नरकटियागंज या गौनाहा जाना पड़ता है। कई मरीज़ रास्ते में ही दम तोड़ चुके हैं। गांधी इस आश्रम से अपना स्वच्छता अभियान चलाते थे, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी का स्वच्छता अभियान यहां तक नहीं पहुंच सका है। आश्रम के आस-पास के लोग खुले में शौच जाते हैं। गंदगी का यह आलम है कि आप बगैर नाक पर हाथ रखे ज़्यादा देर घूम नहीं सकते। गांधी जी ने यहां अपनी देख-रेख में 20 नवम्बर, 1917 को एक स्कूल शुरू किया। यह उनके द्वारा चम्पारण में खोला गया दूसरा स्कूल है। इससे पहले उन्होंने 13 नवम्बर, 1917 को बड़हरवा लखनसेन में प्रथम निशुल्क विद्यालय की स्थापना की और फिर 17 जनवरी, 1918 को मधुबन में तीसरे स्कूल की।

भितिहरवा वाले स्कूल की ख़ास बात यह है कि यहां खुद कस्तूरबा गांधी रहकर बच्चों की शिक्षा की देख-रेख करती थीं। वहीं, गांधी जी स्वयं महीनों रहकर सफ़ाई एवं स्वास्थ्य कार्य करते रहे। यहां पढ़ाने के लिए गांधी जी ने ख़ास तौर पर बम्बई प्रान्त के वकील सदाशिव लक्ष्मण सोमण, बालकृष्ण योगेश्वर पुरोहित और डॉ देव को लगाया। लेकिन आज इसका एक पुराना भवन जर्जर हो चुका है, पूरी इमारत कूड़े के ढेर में तब्दील हो गई है। हालांकि बगल में कुछ कमरों की पुरानी बिल्डिंग नए रंग-रोगन में ज़रूर दिखाई देती है। यहां ज़्यादातर छात्रों को न गांधी के बारे में ज़्यादा पता है और न ही इस स्कूल के इतिहास के बारे में। बच्चों से जब पूछा जाता है कि गांधी को किसने मारा तो एक का जवाब था - नाथूराम गोडसे…। गोडसे कौन था? इसका जवाब था - अंग्रेज़…।

ये बच्चे अपने गांव के संत राउत को भी नहीं जानते, जिनके घर गांधी जी एक रात ठहरे थे और कस्तूरबा तो कई दिनों तक रहीं।

इस स्कूल के बारे में गांधी जी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “लोगों ने भीतिहरवा में पाठशाला का जो छप्पर बनाया था, वह बांस और घास का था। किसी ने रात को उसे जला दिया। सन्देह तो आस-पास के निलहों के आदमियों पर था। फिर से बांस और घास का मकान बनाना मुनासिब मालूम नहीं हुआ। ये पाठशाला श्री सोमण और कस्तूरबा के जिम्मे थी। श्री सोमण ने ईंटों का पक्का मकान बनाने का निश्चय किया और उनके स्वपरिश्रम की छूत दूसरों को लगी, जिससे देखते-देखते ईंटों का मकान बनकर तैयार हो गया और फिर से मकान के जल जाने का डर न रहा।” यह स्कूल पहले आश्रम में ही संचालित होता था, बाद में इसे पास ही शिफ्ट कर दिया गया। लेकिन पहली बार जिस खपरैल में गांधी का यह स्कूल शुरू हुआ था, उसे आज भी सुरक्षित रखा गया है। इसमें स्कूल की घंटी और कस्तूरबा की चक्की भी है।

1964 में यह स्कूल आश्रम के पास नए परिसर में चला गया। इसकी वजह यह है कि 1959 में देश के तत्कालीन शिक्षा मंत्री ज़ाकिर हुसैन आश्रम आए और जब उन्होंने स्कूल की दशा देखी तो उन्हें काफी दुख हुआ। उन्होंने सरकार को प्रस्ताव भेजा कि इसका बेहतर तरीके से संचालन हो।

स्थानीय गांधीवादी नेता अनिरुद्ध चौरसिया बताते हैं कि इस स्कूल के लिए जितनी जमीन की जरूरत थी, वह एक साथ नहीं मिल रही थी। तब इसी स्कूल के पहले छात्र मुकुटधारी चौहान समेत तीन-चार लोगों ने अपनी-अपनी जमीन दी और इस तरह एक ही जगह पांच एकड़ का बंदोबस्त हो सका। फिर उस जमीन पर नए सिरे से सीनियर बेसिक स्कूल बना। तब से वह स्कूल इसी जमीन पर चल रहा है और अब यह बिहार सरकार के अधीन है। 1937 में गांधी जी ने रोजगारोन्मुख शिक्षा की उपयोगिता पर बल दिया। इस मिशन में डॉ जाकिर हुसैन उनके साथ थे। जाकिर हुसैन के अध्यक्षता में बुनियादी शिक्षा का पाठ्यक्रम बना। 7 अप्रैल, 1939 को महात्मा गांधी के शिक्षा मंत्र के आधार पर चम्पारण के प्रजापति मिश्र और रामशरण उपाध्याय के कुशल प्रशासन में वृन्दावन क्षेत्र में 35 बुनियादी स्कूल खोले गए, अब ये 29 ही बचे हैं।

महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, “मैं कुछ समय तक चम्पारण नहीं जा सका और जो पाठशालाएं वहां चल रही थीं, वे एक-एक कर बंद हो गईं। साथियों ने और मैंने कितने हवाई किले रचे थे, पर कुछ समय के लिए तो वे सब ढह गए।” गांधी ने आत्मकथा में एक और जगह लिखा है, “मैं तो चाहता था कि चम्पारण में शुरू किए गए रचनात्मक काम को जारी रखकर लोगों में कुछ वर्षों तक काम करूं, अधिक पाठशालाएं खोलूं और अधिक गांवों में प्रवेश करूं। क्षेत्र तैयार था। पर ईश्वर ने मेरे मनोरथ प्रायः पूरे होने ही नहीं दिए। मैंने सोचा कुछ था और दैव मुझे घसीट कर ले गया एक दूसरे ही काम में।”

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