अपनी शक्तियां भूल एक 'सरकारी कागजी शेर' बनकर रह गया है NHRC: जस्टिस अरुण मिश्रा के नाम खुला पत्र
एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ने एनएचआरसी के अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस अरुण मिश्रा को खुला पत्र लिखा है। इस पत्र में बताया गया है कि आखिर आयोग कहां क्या गलत कर रहा है, और कैसे अपनी शक्तियां भूल चुका है।
सोशल मीडिया पर लगभग हर दिन और मुख्यधारा के मीडिया में नियमित रूप से मानवाधिकार उल्लंघन की खबरें सामने आती रहती हैं, लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग शायद ही कभी खबरों में नजर आता हो। वैसे मुश्किल से ही याद आता है कि मानवाधिकार आयोग ने कभी समय रहते या सार्थक रूप से किसी मामले में दखल दिया हो और उसका आम भारतीयों के जीवन पर कोई असर पड़ा हो। इसी संदर्भ में एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ने एनएचआरसी के अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस अरुण मिश्रा को खुला पत्र लिखा है। इस पत्र में दावा किया गया है और बताया गया है कि आखिर आयोग कहां गलत कर रहा है:
सेवा में,
अध्यक्ष,
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग
प्रिय जस्टिस मिश्रा,
भारत के एक नागरिक के रूप में - और एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसने लंबे समय तक आयोग के साथ काम किया है, और लगातार दो कार्यकालों तक एनजीओ/एचआरडी (मानव संसाधन विकास) पर आयोग के राष्ट्रीय समूहों में सेवा की है, लेकिन मैं आपके नेतृत्व में भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की मौजूदा कार्यप्रणाली को लेकर बेहद निराश हूं। यह बेहद दुखद है कि मानवाधिकारों को लेकर आयोग की बेरुखी और उदासीनता अब आम नागरिकों से भी छिपी नहीं है, बल्कि और भी स्पष्ट होती जा रही है।
माननीय, आपके नेतृत्व में ही इस साल (मार्च 2023 में) , राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने उस संस्था में अपनी मान्यता को दर्ज कराने को एक साल के लिए टाल दिया जोकि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोगों के वैश्विक संगठन की मान्यता के लिए उप समिति है।
मान्यता को दर्ज न कराने के पीछे के कारणों में एक कारण यह भी है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपने कामकाज में नागरिक संगठनों को शामिल करने का कोई ब्योरा उपलब्ध नहीं कराया। इसके अलावा आयोग और इसके लिए काम करने वाले स्टाफ में बहुलतावादी संतुलन की कमी और भारतीय समाज की विविधता को प्रतिबिंबित करने में आयोग की नाकामी (जिसमें धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व भी शामिल है) अन्य कारणों में से एक हैं।
केसों की जांच में पुलिस को शामिल करने की एनएचआरसी की रुचि; महासचिव के पद के लिए एक वरिष्ठ सिविल सर्वेंट को आगे करना, विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम, 2010 (एफसीआरए), नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019, और गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (यूएपीए) सहित नागरिक स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों से संबंधित कानूनों की समीक्षा करने में आयोग की अनिच्छा; और नागरिक समाज और मानव संसाधन विकास समूहों के साथ इसकी रचनात्मक भागीदारी और सहयोग की कमी जैसे मुद्दे हैं जिन्हें लेकर अंतरराष्ट्रीय निकायों ने चिंता जताई है जो आयोग को लेकर हमारी बेचैनी का कारण हैं।
मणिपुर में हुई व्यापक हिंसा जिसमें सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कम से कम 180 नागरिकों की मौत हुई, हजारों लोग बेघर हो गए, कई महिलाओं का यौन उत्पीड़न हुआ या उन्हें मार दिया गया, लेकिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इतने बड़े पैमाने पर हुई हिंसा की निंदा तक न करके अपना नैतिक अधिकार खो दिया है। आयोग ने 23 मई को आयोग की पूर्ण बैठक बुलाई थी, लेकिन इस बैठक के मिनट्स अभी तक सार्वजनिक नहीं किए गए हैं और इसका कोई कारण भी सामने नहीं है।
कुछ हद तक मणिपुर को लेकर शर्मिंदगी कम हुई जब नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वीमने की तरफ से अरुणा रॉय और एनी राजा मणिपुर पहुंचकर हालात का जायजा ले रह थीं, लेकिन उन पर पुलिस केस और आपराधिक आरोप लगा दिए गए। और, अब तो मणिपुर सरकार ने एडिटर्स गिल्ड की तीन सदस्यीय टीम पर ही पुलिस केस दर्ज करा दिया है। इतना सब होने पर पर भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग खामोश है।
जब सुप्रीम कोर्ट ने 21 जुलाई को केंद्र और राज्य सरकार को फटकार लगाई कि मणिपुर में संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, तभी मानवाधिकार आयोग नींद से जागा और उसने मणिपुर सरकार को 25 जुलाई को नोटिस जारी कर हिंसा रोकने और मानवाधिकारों के उल्लंघन की रोकथाम का आग्रह किया।
यह बेहद अचंभे की बात है कि सुप्रीम कोर्ट तक ने मानवाधिकार आयोग को विश्वसनीय और स्वतंत्र संस्था नहीं माना, कि उसे मणिपुर के लिए किसी भी प्रस्तावित कार्यवाही की जिम्मेदारी सौंपी जा सके। होना तो यह था कि सुप्रीम कोर्ट से पहले ही आयोग सामने आता और मणिपुर के मामले पर दखल देता, लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया।
माननीय, आपके नेतृत्व में आयोग ने अगर कभी मानवाधिकार उल्लंघन के किसी मामले को लेकर उत्साह दिखाया है तो वह तभी हुआ है जब घटना किसी गैर-बीजेपी शासित राज्य में हुई हो। ऐसे मामलों में आयोग फैक्ट फाइंडिंग टीम भी भेजता है, और कभी-कभी तो आयोग के नए बने सदस्यों या ऐसे लोगों को टीम में भेजता है जिन्हें सदस्य मान लिया जाता है।
ऐसा लगता है कि आपकी अगुवाई में आयोग शायद यह भूल गया है कि वह एक स्वतंत्र संस्था है न कि सरकार की कोई शाखा। शायद आयोग खुद को हासिल विस्तृत और प्रभावशाली अधिकारों को भूल चुका है। मानवाधिकार उल्लंन के अधिकांश मामलों और शिकायतों को या तो खारिज किया जा रहा है या फिर उन्हें सरकारी संस्थाओं को भेजा जा रहा है। आपको निश्चित रूप से जानकारी है कि आयोग द्वारा दिए गए निर्देशों का पुलिस और जिला स्तर का प्रशासनिक अमला पालन नहीं करता है।
आखिर क्यों सर, आम भारतीयों को जब आयोग की सख्त जरूरत है, तो आयोग नजर क्यों नहीं आता?
जब उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हरियाणा में अल्पसंख्यक समुदायों, विशेषकर मुसलमानों के सैकड़ों घरों को अवैध रूप से ध्वस्त किया जा रहा था, तब एनएचआरसी कहां था? एनएचआरसी तब कहां था जब 84 वर्षीय पादरी फादर स्टेन स्वामी की न्यायिक हिरासत में मृत्यु हो गई थी और जेल में उनके पार्किंसंस रोग से पीड़ित कांपते हाथों को सिपर का उपयोग करने की अनुमति नहीं दी गई थी? जब 95 प्रतिशत विकलांग और व्हीलचेयर पर चलने वाले प्रोफेसर जीएन साईबाबा को बुनियादी अधिकारों से वंचित कर दिया गया तो एनएचआरसी कहां है?
इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट के आंकड़ों के अनुसार, कश्मीर में अप्रैल और सितंबर 2022 के बीच कम से कम 20 पत्रकारों को आपराधिक आरोपों में गिरफ्तार किया गया। ह्यूमन राइट्स वॉच के अनुसार, कम से कम 35 पत्रकारों को उनके काम के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया/ हिरासत में लिया गया/ पूछताछ की गई, पूछताछ की गई/ छापेमारी की गई या उन पर कठोर आरोप लगाए गए। फिर भी एनएचआरसी बेहद उदासीन बना हुआ है।
मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 की धारा 12 (डी) के तहत, संवैधानिक सुरक्षा उपायों और कानूनों की समीक्षा करने और उनके प्रभावी कार्यान्वयन के लिए उपायों की सिफारिश करने की वैधानिक जिम्मेदारी आयोग की है। लेकिन एनएचआरसी ने उन कानूनों पर पूरी तरह से उदासीनता दिखाई है जो मानवाधिकारों के खिलाफ हैं, या अत्याचारी या दुरुपयोग के लिए अतिसंवेदनशील हैं - चाहे वह यूएपीए हो, जिसका मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, छात्रों, प्रोफेसरों और वकीलों के खिलाफ बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया गया और उन्हें लंबे समय तक बिना आरोपों के ही जेल में डाल दिया गया। या फिर एफसीआरए, जिसका उपयोग एनजीओ और मानवाधिकार संगठनों को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है; या आरटीआई अधिनियम में संशोधन जो सूचना आयोगों की स्वतंत्रता को नष्ट कर देता है।
धारा 12(एफ) के तहत, आयोग को अधिकार हैं कि वह अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों का अध्ययन करे और उन्हें लागू करने की सिफारिश करे। हालाँकि, भारत दुनिया के उन मुट्ठी भर देशों में से एक है जिसने अभी तक अत्याचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन का अनुमोदन नहीं किया है।
मंगलवार, 5 सितंबर 2023 को, एनएचआरसी ने 'चुनिंदा' नागरिक समाज के लोगों की एक बैठक बुलाई है, ताकि उन लोगों को यह दिखाया जा सके कि यह मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले सामान्य नागरिकों के साथ जुड़ता है। इसे एक दिखावे से अधिक कुछ नहीं माना जा सकता, और इसका उद्देश्य जी-20 प्रतिनिधियों को गुमराह करना भर है। निःसंदेह, एनएचआरसी में नागरिक समाज से एक भी सदस्य या उस मामले में एक भी महिला सदस्य नहीं है। भारत के अधिकांश मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और संगठनों ने एनएचआरसी के अध्यक्ष के साथ इस एजेंडा-रहित एनएचआरसी 'इंटरैक्टिव मीटिंग' में भाग लेने से इनकार कर दिया है।
एनएचआरसी 20-21 सितंबर को नई दिल्ली में राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थानों के एशिया प्रशांत फोरम के सम्मेलन की मेजबानी करने की योजना बना रहा है। इस कार्यक्रम का उद्घाटन भारत के प्रधानमंत्री द्वारा किया जाना है। हममें से ज्यादातर लोग सोचते हैं कि यह एक मजाक से अधिक कुछ नहीं है। हमारा मानना है कि भारत के एनएचआरसी ने इस एशिया-प्रशांत सम्मेलन की मेजबानी करने का सभी नैतिक अधिकार खो दिया है, क्योंकि इसकी मान्यता स्थगित होने के बाद भी भारत में मानवाधिकारों के उल्लंघन के प्रति यह पूरी तरह उदासीन बना हुआ है।
सच तो यह है कि भारत के लोगों को अब एनएचआरसी से उसके मौजूदा स्वरूप और ढांचे में कोई उम्मीद नहीं है। आयोग अब सिर्फ सरकार और कॉरपोरेट घरानों के पक्ष में पक्षपातपूर्ण 'सिफारिशें' देने के लिए एक 'सरकारी कागजी शेर' बन कर रह गया है।
पीड़ित अब एनएचआरसी में शिकायत दर्ज करने से कतराते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उन्हें कोई समाधान नहीं मिलेगा। पुलिस की धमकी और दुर्व्यवहार के शिकार लोगों का कहना है कि एनएचआरसी उनके मामलों की जांच उन्हीं अधिकारियों को सौंप देता है जिनके खिलाफ शिकायत की गई है, और फिर ऐसे मामलों में नोटिस जारी करने की औपचारिकता के बाद मामलों को बंद कर दिया।
एनएचआरसी में खाली पदों पर खुफिया अधिकारियों की तैनाती हो रही है, जिनमें आयोग में प्रतिनियुक्ति पर रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) से लिए गए व्यक्ति भी शामिल हैं। यह लोग शिकायतों से निपटने वाले प्रभाग को भी संभालते हैं। ऐसे में जस्टिस मिश्रा, हम नागरिकों को एनएचआरसी, से किस न्याय की उम्मीद करनी चाहिए?
इतिहास शायद ही आपके लिए मेहरबान होगा, सर!
भवदीय,
एक चिंतित भारतीय नागरिक
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