मुजफ्फरनगर दंगे के 7 सालः बच्चों की किताबें तो वहीं छूट गई थीं, अब तो ख्वाहिशें मजदूरी कर रही हैं!
साल 2013 के उस भयावह दंगे का कहर झेल चुकीं 49 वर्षीय जेबुन्निसा कहती हैं कि अब किसी से भी कोई शिकायत नहीं, हम जी लेंगे। वह जोर से हंसते हुए कहती हैं, “अब ये जो बीमारी आई है तो इसमें जमीदारों के बच्चे भी नहींं पढ़ पा रहे, अब अल्लाह ही असली कारसाज है।”
साल 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों को देश की आज की एकदम बदल चुकी परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार माना जा सकता है। गुड़ की मिठास के लिए मशहूर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस जनपद में क्रूरतम और शर्मनाक दंगे को अब 7 साल पूरे हो चुके हैं। उस दंगे में सैकड़ों लोगों की जान चली गई। लाखों ने पलायन किया और हजारों सर्द रातों में खुली छत के नीचे महीनों तक रहे। इस दौरान बहुत सी तकलीफदेह कहानियां सामने आईं। जिनमें उन बच्चों की भी कहानियां हैं, जिन्होंने दंगे के बाद अपना स्कूल छोड़ दिया। उनकी किताबें नफरत की लगाई हुई आग में जलकर खाक हो गईं और कामयाब होकर बड़ा साहब बनने की ख्वाहिश दम तोड़ गई।
दयानंद सरस्वती शिशु निकेतन जूनियर हाईस्कूल फुगाना में है । फुगाना, बुढ़ाना से करनाल और शामली जाने वाले मुख्य मार्ग पर एकदम सड़क के किनारे है। जाबिर बताते हैं कि उनके बच्चे वहीं पढ़ते थे। 8 सितंबर को जब सैकड़ों लोग उनके घर नारेबाजी करते हुए चढ़ आए तो वो रातोंरात जान बचाकर पास के एक दूसरे गांव लोई में आ गए। वह कहते हैं, “किताबों की तो बात ही मत कीजिये। 7 दिन पहले ब्याह कर लाए बड़े लड़के की बहू को भी कंधे पर उठाकर भागना पड़ा। सोचा था कि जान रहेगी तो बालक पढ़ भी लेंगे। मगर वो फिर कभी स्कूल नही जा पाए ।”
मुजफ्फरनगर के रुड़कली में दंगा पीड़ितों के लिए बनी कॉलोनी में रहने वाले जाबीर शेख़ कहते हैं, "हम चार भाइयों- मैं, साबिर, इरशाद और निजामुद्दीन के 11 बच्चे इस स्कूल में पढ़ते थे। इनमें से एक भी उसके बाद स्कूल नहीं गया। जो उस वक्त छोटे बच्चे थे, वो जरूर स्कूल गए। अभी भी जा रहे हैं।
55 साल के मजदूर जाबिर कहते हैं, “गांव में लोग इसे श्रीपाल का स्कूल कहते थे और उन्होंने टीसी (ट्रांसफर सर्टिफिकेट) नहीं दिया। वो एक बच्चे की टीसी देने के लिए 1200 रुपये मांग रहे थे। इस कागज के बिना कोई स्कूल इन्हें दाखिला नहीं दे रहा था। झगड़ा सितंबर में हुआ था। यह स्कूल की पढ़ाई की शुरुआत थी। स्कूल जुलाई से लगते थे। सब कुछ बर्बाद हो गया। मस्जिदें वीरान हो गईं। घरों में जलकर किताबें राख हो गईं। जहनी तौर पर बच्चे टूट गए। जब जिंदा रहना पहली जरूरत हो तो किताबें याद नहीं आतीं।"
जाबीर के सामने बैठे उनके भतीजा साहिल बताते हैं, “मैं 9वीं में था। पढ़ाई में ठीक था। मेरी क्लास में पुलिस में भर्ती होना सबका लक्ष्य था। हम दौड़ लगाते थे। मैं दिल्ली पुलिस में भर्ती होना चाहता था। मेरे साथ के जाट दोस्त पुलिस में भर्ती हो गए और मैं अब मजदूरी करता हूं।” साहिल बताते हैं कि फुगाना के इस स्कूल के 100 से ज्यादा मुस्लिम बच्चे फिर कभी स्कूल नहीं गए। उनकी जिंदगी बिल्कुल बदल गई। उनके सपने खत्म हो गए। साहिल कहते हैं, "ऐसा सबके साथ हुआ, किताबें तो वहीं छूट गईं और ख़्वाहिशें मजदूरी करने लगीं!”"
2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद फुगाना से 1800 के आसपास मुसलमानों ने पलायन किया। किसी भी एक गांव में इतनी संख्या में किया गया यह सबसे बड़ा पलायन था। इसी फुगाना थाने के इलाके में सबसे ज्यादा हिंसा हुई थी। लांक, बहावड़ी, मोहम्मद पुर राय सिंह, लिसाढ़ जैसे गांव इसी इलाके में थे।
साहिल तब 14 साल के थे और अब 21 के हैं और हालात को बेहतर समझते हैं। वो कहते हैं, “राजनीति सिर्फ बर्बाद करती है। सरकार और विपक्ष सब अपने-अपने फायदे-नुकसान के गणित में लगे थे। हत्या, हत्यारे, घर, पलायन, कैम्प, बलात्कार, तबादले, मुआवजा और एक दूसरे पर इल्ज़ाम लगाने में लगे थे। इन्हें किताबें याद नहीं थीं। काश इन्हें इसकी फिक्र होती और हम पढ़ पाते!”
इसी फुगाना के 19 साल के जुनैद अब चेन्नई में अपने बड़े भाई इंतेजार के साथ मजदूरी करते हैं । जुनैद और इंतेजार दोनों रेल के डिब्बों पर रंग चढ़ाते हैं। जुनैद तब 8वी में थे और इंतजार 10वीं में। दंगों के बाद ये दोनों भी कभी स्कूल नहीं गए। इनके चाचा इंसाफ अली बताते हैं कि “हम कभी नहीं पढ़े, हमारे बच्चों को पढ़ने की सीख भी इन्हीं चौधरियों के बच्चों को देखकर मिली थी और इन्हीं ने हमारे बच्चों की किताबें छीन ली।” इंसाफ अली कहते हैं कि आखिर क्यों बच्चों की पढ़ाई का मुद्दा सबसे बड़ा मुद्दा नहीं था! इस झगड़े से सैकड़ों बच्चों का मुस्तकबिल बर्बाद हो गया। इनके मां बाप के सपने मर गए।
फारुख, हारिस अली और वसीम ऐसे बच्चे थे, जिन्होंने पढ़ने के लिए इस बेहद मुश्किल परिस्थितियों को भी छोटा कर दिया। शामली करनाल के इसी मार्ग पर लोई में दंगा पीड़ितों की कॉलोनी में रहने वाले इन तीनों लड़को ने हर हाल में पढ़ाई जारी रखने का फैसला किया। कुछ सालों के बाद हारिस और वसीम तो टूट गए, मगर पढ़ाई-लिखाई में होशियार फारुख पढ़ता रहा। आज फारुख एक प्राइवेट बैंक में सम्मानजनक ओहदे पर है। फारुख कहते हैं, "किसी भी लकीर को छोटा करने के लिए उससे बड़ी खींचनी पड़ती है। अगर कोई हमें बर्बाद करना चाहता है तो हमें आबाद रहने के लिए पूरी ताकत लगा देनी चाहिए। हम हमेशा हालात पर आंसू नहीं बहा सकते हैं। हमें काबिलियत के दम पर खड़ा रहना होगा।”
मुजफ्फरनगर के बिजनौर मार्ग पर जानसठ के पास बलवा गांव में आसिफ सैफी भी ऐसे ही युवा हैं। आसिफ अब एमए कर रहे हैं और टीचर बनना चाहते हैं। आसिफ कहते हैं, "पढ़ने दीजिये, हमारे सारे रिश्तदारों के बच्चे पढ़ रहे हैं। उनमें और हममें यही फर्क है कि बस हम एक साल पिछड़ गए, फेल नहीं हुए हैं। अब कोरोना से भी तो पढ़ाई का नुकसान हुआ है। दंगे को भी आपदा मान लेते हैं। दुःख तो बहुत था कि साथियों की पढ़ाई छूट गई है, मगर मेरे अब्बू ने मेरी हिम्मत नहीं टूटने दी।
कैराना के मेहरबान अली कैरानवी बताते हैं कि “संभवतः दंगो का सबसे बड़ा कैंम्प यहीं मलकपुर में लगा था। हम महीनों तक वहां खिदमत में जुटे रहे। नेता लोग और अफसर आते थे। पढ़ाई पर बात ही नहीं होती थी। दुसरे मुद्दे इतने प्रभावी थे। मुकदमा लिखाने, गिरफ्तारी, घर, पलायन, मुआवजा, भाषण इन सब में एक साल कब गुजर गया पता ही नहीं चला। हजारों बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हुई। यह वाला डैमेज कहीं गिनती में नहीं आया, नस्लें तबाह हो गईं। सिर्फ 5 फीसदी बच्चों ने उस साल के बाद आगे पढ़ाई करने की हिम्मत की। लड़कियां तो बिल्कुल नहीं पढ़ीं। दंगा पीड़ितों के बच्चे अब तो स्कूल जा रहे हैं, लेकिन उस समय जो पढ़ रहे थे, वो ठहर गए। कुछेक अपवाद हो सकते हैं।”
ऐसा नहीं है कि 2013 में दंगे के तुरंत बाद मुस्लिम तंजीमों को यह ख्याल नहीं आया था कि इन बच्चों के स्कूल का क्या होगा। इससे जुड़ी भी एक कहानी है। दरअसल 2013 के उस साल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में सर सैयद डे का कार्यक्रम रद्द कर उससे इकट्ठा हुआ पैसा दंगा पीड़ितों के लिए स्कूल खोलने पर खर्च करना तय हुआ और जोला में डेढ़ करोड़ रुपये की इमदादी रकम से 8 अक्टूबर 2014 को एएमयू वीसी रहे जमीरउद्दीन शाह ने इसकी नींव रखी। उस समय बताया गया था कि इसमें दंगा पीड़ितों के बच्चे पढ़ेंगे।
सीबीएसई पैटर्न का 12 बीघा में बनाया गया यह स्कूल अब भी चल रहा है, मगर इसमें अमीरों के बच्चे पढ़ते हैं। स्थानीय निवासी महबूब अली जोला के अनुसार यह अच्छा स्कूल है। गांव के बड़े लोगों के बच्चे यहीं पढ़ रहे हैं। जानकारी करने पर पता चलता है कि दंगा पीड़ितों के बच्चे सरकारी स्कूल में जाते हैं।
दंगे के दर्द को झेलने वाली 49 साल की जेबुन्निसा कहती हैं कि अब किसी से कोई शिकायत नहीं, हम जी लेंगे। जेबुन्निसा जोर से हंसती हुई कहती हैं "अब ये जो बीमारी आई है तो इसमें तो जमीदारों के बच्चे भी नहींं पढ़ पा रहे, अब अल्लाह ही असली कारसाज है।"
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