बाबरी की 30वीं बरसी: बिना मीनारों और बिना ऐतिहासिक वास्तुकला के संदर्भ के बन रही नई मस्जिद क्या भर पाएगी जख्म!

मस्जिद के विशाल परिसर में एक 300 बिस्तरों वाला अस्पताल, एक संग्रहालय, एक पुस्तकालय और एक सामुदायिक रसोईघर बनाया जा रहा है। लेकिन क्या यह उन जख्मों को भर सकता है, या यादों को मिटा सकता है?

बाबरी मस्जिद की जगह बनाई जा रही नई मस्जिद का आर्किटेक्ट डिजाइन
बाबरी मस्जिद की जगह बनाई जा रही नई मस्जिद का आर्किटेक्ट डिजाइन
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नवजीवन डेस्क

क्या यादें मिटाई जा सकती हैं? क्या एक आधुनिक, भविष्यवादी मस्जिद जिसमें कोई मीनार नहीं है और जिसका इस्लामी वास्तुकला से कोई लेना-देना नहीं है, अतीत से अलग हो सकती है? सुप्रीम कोर्ट ने दो साल पहले अयोध्या विवाद का निपटारा किया था। लेकिन विवाद तो रुका नहीं। वाराणसी, मथुरा और अन्य स्थानों पर अन्य मस्जिदों पर ताजा दावे किए जा रहे हैं। अदालती आदेश से कोई सद्भाव बहाल नहीं हुआ  और न ही मुसलमानों, उनकी संस्कृति और उनके कामधंधों पर हमलों में कमी आई।

अयोध्या की 400 साल से ज्यादा पुरानी बाबरी मस्जिद तोड़कर जिस राम मंदिर का रास्ता साफ किया गया, उसके निर्माण का काम तो दो साल पहले आए सुप्रीम कोर्ट के विवादास्पद फैसले से बहुत पहले शुरू हो गया था। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में आदेश दिया था कि एक अलग मस्जिद के निर्माण के लिए भूमि आवंटित की जाए। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आज भी माना जाता है कि यह इंसाफ के आधार पर नहीं दिया गया था और कानून के स्कूलों में अभी भी अध्ययन का विषय है। इस दौरान नए राम मंदिर से 30 किमी दूर एक नई मस्जिद का निर्माण किया जा रहा है।

मस्जिद का निर्माण इंडो-इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन (IICF) ट्रस्ट द्वारा किया जा रहा है। मस्जिद का डिजाइन दिल्ली स्थित आर्किटेक्ट (वास्तुकार) एस एम अख्तर ने तैयार किया है। नई मस्जिद के इस डिजाइन में एक महलनुमा इबादतगाह बनाई जा रही है जिसमें 2000 लोग नमाज पढ़ सकते हैं, 300 बिस्तरों वाला एक अस्पताल बनया जा रहा है, एक सामुदायिक रसोईघर और एक पुस्तकालय भी बनाया जा रहा है।

बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी पर मंगलवार को इंडियन एक्सप्रेस के लिए एक लेख में स्कॉलर और रिसर्चर फहद जुबेरी कहते हैं, “मस्जिद एक आधुनिक इमारत है, जिसमें कांच, सफेद कवरिंग और तकनीकी रूप से जटिल झरोखे हैं। इसके डिजाइन को फ्यूचरिस्टिक यानी भविष्यवादी कहा जा रहा है और कहा जा रहा है कि इसमें जलवायु परिवर्तन संवेदनशीलता का ध्यान रखा गया है, लेकिन मस्जिद सिर्फ इतनी ही होती है, एक शानदार इमारत भर।

बाबरी की 30वीं बरसी: बिना मीनारों और बिना ऐतिहासिक वास्तुकला के संदर्भ के बन रही नई मस्जिद क्या भर पाएगी जख्म!

जुबेरी लिखते हैं कि इस नई आधुनिक इमारत में उस मस्जिद का कोई संदर्भ ही नहीं है जिसे तोड़ दिया गया था। इसमें बाबरी के आर्किटेक्ट का कोई हवाला ही नहीं है, ताकि लोगों को याद दिलाया जा सके उस घटना का सदमा और असर कैसा था, कैसे हिंसक प्रचार हुए थे. किस तरह पुलिस ने लोगों पर फायरिंग की थी और कैसे आखिरकार एक ऐतिहासिक मस्जिद को गिरा दिया गया था।

उन्होंने लिखा है कि इस आधुनिक इमारत में, ‘कोई पारंपरिक मीनार नहीं हैं, इस्लामी आर्किटेक्ट का कोई संदर्भ ही नहीं है।’ लेकिन इस इमारत के आर्किटेक्ट एस एम अखतर कहते हैं कि यह इमारत तो अतीत से आगे जाकर आधुनिकता को अपने में समेटे हुए है। लेकिन सवाल है कि आखिर क्यों?

जुबेरी कहते हैं कि अपने मौजूदा अस्तित्व और अतीत की घटनाओं के बीच दूरी बनाने के पीछे शायद पहचान छिपाने की कोशिश है ताकि आने वाले समय में किसी किस्म का कोई और संघर्ष न भड़के। लेकिन ऐसा डिजायन उस समुदाय का अपकार करता है या उसे महत्वहीन बनाता है जो पहले से ही पीड़ित है और दिनोंदिन बढ़ते व्यापक इस्लामोफोबिया के साथ-साथ एक तय तरीके से हाशिए पर धकेला जा रहा है। वह आगे कहते हैं, “इस प्रस्ताव ने एक ऐसे समुदाय के धार्मिक अधिकारों की उपेक्षा की जो अपनी एक धार्मिक इमारत पर हमले का बचाव कर रहा था। और अब जबकि तीस साल गुजर चुके हैं, यह हमले अभी भी रुके नहीं हैं, बल्कि बढ़े हैं।

और यह बात यूं ही नहीं कही जा रही। बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी के मौके पर तो इनमें तेजी आ ही जाती है। उत्तर प्रदेश के मथुरा में ही शाही ईदगाह मस्जिद में हिंदू महासभा ने हनुमान चालीसा का पाठ करने का ऐलान किया था। इन्हें रोकने के लिए पीएसी और अर्धसैनिक बलों के करीब 1500 जवानों को लगाना पड़ा। लेकिन हिंदू महासभा के कोषाध्यक्ष दिनेश कौशिक ने तो ऐलान कर दिया था कि वे रुकेंगे नहीं। मथुरा में धारा 144 लगानी पड़ी।

उधर कर्नाटक के श्रीरंगापटना में भी हिंदू जागरण वेदिके नाम की संस्था ने अन्य संगठनों के साथ मिलकर जामिया मस्जिद में घुसने की कोशिश की। इन्हें रोकने के लिए भी भारी तादाद में पुलिस को तैनात करना पड़ा।

इसी किस्म की घटनाओं पर पत्रकार राना अय्यूब ने अपनी इंस्टाग्राम पोस्ट में लिखा है, “बाबरी मस्जिद की बरसी 6 दिसंबर पर जब मैं और मेरे जैसे लाखों मुस्लिमों को आम भारतीयों से अलग रूप में देखा जाने लगा, तो इस मौके पर मैं अपने दोस्तों से पूछना चाहती हूं। आखिर कब इस सब पर बोलोगे या प्रतिक्रिया दोगे। और कितना अपमान अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में झेलोगे और इस नफरत पर सवाल उठाओगे?”


प्रोफेसर ऑड्री ट्रस्शके ने अपने ट्वीट में लिखा है, “भारतीय विरासत के एक अनमोल हिस्से को आज से 30 साल पहले एक मूर्तिभंजक हिंदू राष्ट्रवादी भीड़ ने तबाह कर दिया था।”

बाबरी एक ऐसा घाव है जिसकी परिणति बिना किसी माकूल नतीजे के भारती की अंतरात्मा में दबी हुई है। भले ही अब यह मौजूद हीं है, लेकिन इस मौजूदगी अभी भी नजर आ रही है। भले ही इसे हिंदू राष्ट्रवादी ताकतों ने क्रूरता के साथ नष्ट कर दिया, लेकिन उनके मन में यह आज भी एक कांटे की तरह चुभती है और इसी कारण यह लगातार नफरत और तनाव को बढ़ावा दे रहा है।

रिचर्ड सेनेट, शहरों के नवीनीकरण को याद करते हुए लिखते हैं, "पुनर्निर्मित पुराने पत्थर यानी फिर से बनाई जा रही इमारतें अतीत के प्रेतों और वर्तमान की अनिवार्यता के बीच पारगमन का स्थान बन जाते हैं।"

ज्यादातर शहर खुले सिरों वाले हैं और निरंतर अपने अतीत से जूझते हैं, भले ही उनके बारे में नए सिरे से लिखा जाए या न लिखा जाए। इसीलिए यह सवाल पूछने की जरूरत है, कि हमने वर्तमान में अपना कदम रखने से पहले क्या अपने अतीत को दफ्न कर दिया है? इंसाफ, पश्चात्ताप या यहां तक कि किसी किस्म की सहानुभूति की किसी भी कोशिश के बिना बाबरी का प्रेत हमेशा वर्तमान को उलाहना देता रहेगा।

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