गुजरात नरसंहार के 16 सालः जुल्म और संघर्ष की एक लंबी दास्तान
2002 के गुजरात नरसंहार पर अब तक कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जांच रिपोर्टेें, लेख, डॉक्यूमेंट्री और फीचर फिल्में लोगों के सामने आ चुकी हैं और अब इस पर कुछ नया लिखने की शायद कोई गुंजाइश नहीं बची है।
मैंने पिछले 16 साल का एक अच्छा-खासा हिस्सा गुजरात में काम करते हुए बिताया है, जिसकी शुरुआत मार्च 2002 के पहले सप्ताह से हुई थी। गुजरात नरसंहार के शुरुआती महीनों में हिंसा की घटनाओं के बीच वहां के दौरे के दौरान 1.5 लाख लोगों का विस्थापन देखकर, राहत शिविरों में उनकी हालत देखकर और सामूहिक बलात्कार की शिकार महिलाओं की आपबीती से रूबरू होकर, मैं पूरी तरह से टूट गई थी। ऐसा उन सभी लोगों के साथ हुआ था, जो उन पीड़िताओं के बीच काम कर रही थीं।
16 साल के बाद भी आज ऐसी कई यादें हैं जो जहन से नहीं मिटती हैं। वहां तकरीबन 80 साल की एक बूढ़ी महिला थी, जो मुझे आज भी याद है। मैं बहुत थोड़ी देर के लिए उससे दरिया खान गुंबद कैंप में मिली थी। वह सफेद सलवार कमीज पहने हुई थीं। उसका सिर एक झीने से सफेद दुपट्टे से ढंका हुआ था। उनका चेहरा झुर्रियों से भरा था और उनकी पीठ थोड़ी झुकी हुई थी। मैं एक पीड़िता नूरजहां से धीमी आवाज में बातें कर रही थी कि तभी वह बूढ़ी महिला कार्यालय में दाखिल हुई, मेरे पास आई और मुझसे पूछा, क्या आप यहां विधवाओं को रुपये दे रही हैं? इससे पहले कि मैं कोई जवाब देती नूरजहां ने उससे कहा कि सिलाई मशीनें बाहर बांटी जा रही हैं और वह फौरन वहां से चली गईं। मैं उसके पीछे भागी। दरिया खान गुंबद राहत शिविर एक स्कूल की इमारत में चल रहा था और उस समय वहां 6000 पीड़ित थे। औरतों और सैकड़ों बच्चों के बीच से जगह बनाते हुए मैं अगले 20 मिनटों तक उस महिला को खोजती रही, लेकिन वह महिला कहीं दिखाई नहीं दी। मेरे गालों पर आंसू बहना शुरू हो गए, मैं नहीं जानती थी कि मैं क्यों रो रही थी। वह बूढ़ी औरत एक बगैर नाम और बगैर पहचान की एक महिला थी, जिसने शायद अपने बेटे-बेटियों या पूरे परिवार को दंगों में खो दिया था। मैं अक्सर सोचती हूं कि वह मेरी या आपकी, किसी की भी मां हो सकती थीं। उसका चेहरा मेरी यादों में दर्ज हो गया है।
सद्दाम अब शायद 24 साल का हो गया होगा। गोधरा शिविर चलाने वाली लतीफा ने मुझे उससे और उसके भाईयों से मिलवाया था। 8 साल का सद्दाम बहुत बोलता था। गोधरा शिविर में छोटे बच्चों को अपने आस-पास इकट्ठा कर लेता और उन्हें बताता कि कैसे गुंडों ने उसकी मां के साथ बलात्कार किया था। शायद उस सदमे से निपटने का उसके पास यही एक रास्ता था। उसको ये समझाने में लतीफा को कई दिन लग गए कि उसे बच्चों के साथ ये सब बातें नहीं करनी चाहिए। सद्दाम के पिता का निधन हो चुका था। जिस दिन उसके गांव पर हमला हुआ उस वक्त उसकी अम्मी ने उसे 50 रुपया दिया और कहा कि वह वहां से भाग जाए और अपनी जान बचा ले। लेकिन वह वहां से नहीं भागा औऱ वहीं झाड़ियों में छिप गया। वह इस बात को विस्तार से बताता था कि उसकी मां के साथ मोदी के लोगों ने क्या किया था।
मैंने उसके बारे में जैसा सोच रखा था, वह उससे पूरी तरह से अलग थी। शाह आलम शिविर के मेरे कई दौरों के दौरान उससे मिलने की मेरी हर कोशिश विफल हो गई थी। मैं उसके पति से भी दो बार मिली। मैंने बहुत सारे दूसरे चशमदीद गवाहों से बात की थी, लेकिन उसने अपने आपको बाहरी दुनिया से बिल्कुल काट लिया था और वह किसी से बात नहीं करना चाहती थी। 20 पुरुषों ने उसके साथ बलात्कार किया था और उसे ऐसे ही फेंक दिया था। उसे जब पाया गया था तो उसके बदन पर एक कपड़ा भी नहीं था। बलात्कार पीड़िताओं की कहानियां अभी तक लोगों के सामने नहीं आई हैं। सैकड़ों बलात्कार की घटनाओं में से सिर्फ तीन घटनाएं अदालत तक पहुंच सकी हैं।
ऐसी अनगिनत दर्दनाक यादें हैं। सिर्फ मायूसी ही नहीं लंबे संघर्ष और धैर्य की भी कई कहानियां हैं। इतने सारे दस्तावेजों, कहानियों और फिल्मों के सामने आ जाने के बावजूद सारी कहानियां लोगों के सामने नहीं आ पाई हैं। आपके और हमारे लिए नरसंहार से संबंधित कई दस्तावेज और सबूत हैं, लेकिन हर पीड़ित चाहे वह पुरुष हो या महिला उसकी अपनी एक कहानी है, जिसको अब भी सुने जाने की जरूरत है। उनको अभी भी न्याय और सहानुभूति की जरूरत है।
संघ परिवार भारत को एक फासीवादी देश में बदलने के लिए रात-दिन काम कर रहा है, जिसका एक छोटा सा उदाहरण 2002 में गुजरात में पेश किया जा चुका है। वे उसे 'गुजरात मॉडल' कहते हैं और अब उनकी पूरी कोशिश है कि वह इस नफरत और हिंसा के मॉडल को पूरे भारत में दोहराएं। उनका स्पष्ट लक्ष्य पूरे भारत में अशांति और उथल-पुथल फैलाना है।
हालांकि अब गुजरात में एक नया मोड़ आ गया है। अब गुजरात की जनता के दिल और दिमाग में एक छोटी सी खिड़की खुलनी शुरू हो गई है। मासूम युवाओं को अब इस बात एहसास हो रहा है कि किस तरह से समाज का ताना-बाना तोड़ा गया, किस तरह नफरत के बीज बोए गए और किस तरह इन सबका इस्तेमाल मोदी की सत्ता को फायदा पहुंचाने के लिए किया गया। सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, वकीलों और समाज के जागरुक लोगों की नफरत के खिलाफ संयुक्त लड़ाइयों के नतीजे अब सामने आने लगे हैं। युवा नेता अब अपनी बेचैनी और असहमति को आवाजें दे रहे हैं। वे सिर्फ सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर संघर्ष नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे निर्भीक होकर नफरत के खिलाफ लड़ने और सांप्रदायिक सद्भाव कायम करने की बातें कर रहे हैं।
2002 के नरसंहार के बाद से इन मुद्दों पर काम कर रहे लोगों की एक लंबी फेहरिस्त है। इन 16 वर्षों में इंसाफ के लिए और नफरत के खिलाफ कई मोर्चों पर लड़ाई लड़ी गई। और ये लड़ाई गुजरात के अंदर और बाहर दोनों जगहों पर लड़ी गई। इन लड़ाइयों को लड़ने वालों की सूची इतनी लंबी है कि उनके नाम लिख पाना संभव नहीं है।
गुजरात से पूरे हिंदुस्तान के लिए जो सबसे बड़ी बात निकल कर आती है, वह यह सच्चाई है कि गुजरात को 'हिंदुत्व की प्रयोगशाला' बनाने के बावजूद संघ हर दिमाग को फासीवादी दिमाग में बदलने में नाकाम रहा है। वह हर आवाज को खामोश नहीं कर पाए। जब हिंसा और नफरत अपने चरम पर थी, जब मुसलमानों का कत्लेआम जारी था, सैकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार किया जा रहा था और लाखों लोग बेघर हो रहे थे तो उस वक्त भी आम महिलाओं ने कई मुसलमान महिलाओं को पनाह दी और साधारण हिंदुओं ने अपनी जान को जोखिम में डालकर गुजरात के हर कोने में मुसलमानों की मदद की और उनकी हिफाजत की। सभी समुदायों के सैकड़ों की संख्या में सामाजिक कार्यकर्ताओं ने राहत और पूनर्वास का काम किया, कई वकील साथी आगे आए और मुकदमे दर्ज कराने से लेकर केस लड़ने तक में मदद की।
अगर भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों ने गुजरात मॉडल को गंभीरता से लिया होता और इसका गहनता से अध्ययन किया होता तो शायद भारत को इन ताकतों से बचाया जा सकता था। दुर्भाग्य से, हम में से कई लोगों के सनकी बताकर हमारा मजाक उड़ाया गया। लेकिन इससे लड़ाई कमजोर नहीं ह सकती। हम तब तक किसी समस्या का हल नहीं ढूंढ सकते जब तक कि समस्या को समझ ना लें और प्रत्येक कोण से इसका विश्लेषण न कर लें। फासीवादी झुकाव की मौजूदगी से इनकार करना, दक्षिणपंथी आतंकियों के नेटवर्क से अनभिज्ञ होना, दंगाइयों को हिंसा फैलाने के बाद भी छोड़ देना, बचाव और डर की राजनीति करना, अपने कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर काम नहीं करना और अपनी अंतरात्मा को भी सोते रहने देना, ये ऐसी बड़ी गलतियां हैं, जिनको धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों को फौरन सही करना होगा।
यह एक राजनीतिक लड़ाई है और सामाजिक कार्यकर्ता, मानवाधिकार संगठन, नागरिक समाज इन ताकतों के खिलाफ लड़ाई में सिर्फ एक मददगार की भूमिका निभा सकते हैं। अब अगर-मगर का समय नहीं रह गया है। यह वक्त की जरूरत है कि राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का एक व्यापक गठबंधन बने। देश राजनीतिक दलों की ऐतिहासिक गलतियों की कीमत चुकाने की स्थिति में नहीं है।
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