चुनावों में मीडिया रिपोर्टिंग पर उठे सवाल, आखिर जनता के मुद्दों पर कब बात करेगा चौथा खंभा!
चुनावों में मेनस्ट्रीम मीडिया के कवरेज का दायरा नेताओं और राजनीतिक दलों के आरोप-प्रत्यारोप, खींचतान और नाटकीय प्रचार के इर्दगिर्द ही सीमित दिखता है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि खुद को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहने वाले मीडिया को जनता के मुद्दों से परहेज क्यों है?
लोकसभा चुनाव के लिए मीडिया में होने वाली रिपोर्टिंग और सर्वे में अक्सर यही सवाल पूछा जाता है कि आप किसे वोट देंगे। जबकि मीडिया को ऐसे सतही सवालों से आगे जाकर आम लोगों की जिंदगियों की मुश्किलों और रोजमर्रा की तकलीफों को भी समझना चाहिए। टीवी मीडिया में खासकर एक अलग ढंग का रेटोरिक गढ़ा जाता दिखता है और आम लोगों, किसानों, मजदूरों और स्त्रियों के वास्तविक मुद्दों की तफ्तीश की जगह एक रटा-रटाया नैरेटिव ले लेता है।
इसी का एक दूसरा पहलू उन नेताओं की तस्वीरों में दिखता है जो फोटोशूट पर जाने की तरह वोट मांगने जाते हैं। कोई कूलर लगाकर कड़क धूप में ट्रैक्टर पर बैठता है, गेहूं काटता है और फोटो की ‘बेताबी जो न कराए सो कम’ की तर्ज पर एक नेता तो हरे पौधे को ही मुस्कराते हुए काटता दिखने लगता है। पता नहीं मीडिया में ये प्रचार का विद्रूप है या प्रचार में मीडिया का विद्रूप!
चुनाव जैसी महत्त्वपूर्ण और गंभीर लोकतांत्रिक गतिविधि, नेताओं और दलों की परस्पर तूतू-मैंमैं तक सिमट जाती है या फिर नेताओं के फोटोशूट का मनोरंजक अवसर बन जाती है। आम आदमी के बुनियादी मुद्दों पर जमीनी रिपोर्ट अब टीवी और अखबारी सुर्खियों में बहुत कम जगह ले पाती हैं। इस साल सात चरणों में होने वाले लोकसभा चुनावों को लेकर एक से बढ़कर एक सर्वे, विश्लेषण, आंकड़े और रिपोर्ट, टीवी और अखबारों में आ रही हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश ऊपरी मुद्दों पर ही केंद्रित हैं।
ऐसा लगता है कि गांवों, देहातों, कच्ची सड़कों, बनते बिगड़ते शहरों, अपार विकास परियोजनाओं के साए में बसर कर रहे इलाकों, देश के दूरदराज के हिस्सों तक जाने और विकास के मायने आम लोगों के नजरिये से समझने की न जरूरत रह गई है और न समय। 24X7 टीवी समाचार चैनलों की स्पेस को भरने के लिए रैलियों की लाइव कवरेज हैं, रोड शो हैं, प्रचार अभियान की रौनकें और रोमांच की रिपोर्ट हैं और कुछ नहीं तो टीवी स्टूडियो में भांति-भांति के विशेषज्ञों के साथ अंतहीन बहस तो हैं ही।
जरूरत है तो ये भी दिखाए जाने चाहिए, लेकिन चुनावों को आम जन के परिप्रेक्ष्य में भी तो देखा जाना जरूरी है। क्या कारण है कि बहुत से लोगों को लगता है कि आज के कई टीवी स्टूडियो अब वाचालों, अतिरंजना के पीड़ितों और हुंकार-वीरों के हवाले कर दिए गए हैं?
चुनावी कवरेज के तौर-तरीको में ये बदलाव सहसा और आज नहीं आया है। ये एक बहुत लंबी प्रक्रिया रही है। कॉरपोरेट पूंजी के दबाव और सत्ता राजनीति पर कॉरपोरेट का कसता शिकंजा और सत्ताधारियों के राजनीतिक स्वार्थों ने पत्रकारिता की धार बदली है। ऐसे समय में जब ज्यादा से ज्यादा सवाल मीडिया के जरिए उठाए जाने थे, ज्यादा से ज्यादा आमजन की तकलीफों का प्रसारण और प्रकाशन होना था, ज्यादा से ज्यादा प्रासंगिकता, मौलकिता और विश्वसनीयता की दरकार थी, तो ऐसे समय में मीडिया महज बयानों और प्रतिक्रियाओं का मंच बन कर नहीं रह सकता। ये प्लेटफॉर्म बना भी तो किसका- ये अफसोस आज देश के जागरूक नागरिकों के बीच व्याप्त है।
चुनाव पूर्व सर्वे हों या कोई आकलन या विश्लेषण, इनमें अगर आम लोगों की जरूरतों, तकलीफों और मांगों का उल्लेख आता भी है, तो वो जैसे खानापूर्ति लगती है। असल ध्यान इस बात पर रहता है कि नेता का व्यक्तित्व उभारा जाए, उसकी कुछ खट्टी-मीठी आलोचनाएं और कुछ मैनुफैक्चर्ड तुलनाएं की जाएं। विराट छवि निर्माण के इस खेल में और किस-किस का रोल है, इस पर भी गौर करना चाहिए। तभी हम भारत की समकालीन राजनीति और समकालीन चुनावी अभियानों की अतिशयताओं और विद्रूपताओं पर खुलकर बात कर सकेंगे और उन्हें ठीक से समझ भी सकेंगे।
बेशक बाज मौकों पर इधर इक्का-दुक्का टीवी चैनलों या अखबारों ने बुनियादी मुद्दों को तवज्जो देने में कोताही नहीं की, लेकिन वे भी जैसे "संतुलन" बनाते हुए चलते नजर आए। यह पत्रकारीय संतुलन होता तो कितना अच्छा रहता, लेकिन दरअसल ये एक बहुत छुपा हुआ, प्रछन्न और चतुर कमर्शियल और कॉरपोरेट संतुलन था। एक ही पर्दे पर एक समय पत्रकारीय विवेक का साहसी प्रतिनिधि और दूसरे ही पल संस्था के हितों की दुहाई देता सा एक निर्विकार प्रतिनिधि!
कई अखबारों के संपादकीय पेजों और खबरों के पन्नों पर भी आप ऐसे अंतर बखूबी देख सकते हैं। जाहिर है श्रमजीवी पत्रकारों और किसी भी मीडिया संस्थान में काम करने वाले पत्रकारों के लिए ये न सिर्फ जोखिम भरा समय है, बल्कि एक भयंकर ऊहापोह, असमंजस, खतरों और डगमगाहटों का भी समय है. जाहिर है कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, बस फर्क ये है कि आवृत्तियां और उदाहरण बढ़ते ही जा रहे हैं और फिसलन तीव्र हुई है।
लोकतंत्र के लिए इसीलिए ये एक गहरी क्षति बताई जाती है जब उसका "चौथा स्तंभ" आम जन की मुसीबतों और संघर्षों का पक्षधर नहीं, बल्कि सत्ता राजनीति के लैंप पोस्ट की तरह व्यवहार करने लगता है। जबकि ऐसे मौकों पर नेताओं के भाषण, रैलियां, रोड शो से ज्यादा फोकस देश के उन इलाकों पर और ज्यादा समय उन नागरिकों की बदहाली पर देना चाहिए जो चुनावी वादों, नारों और दावों के अंधेरे उजाले में किसी तरह अपना जीवन काट रहे हैं। लेकिन अक्सर मीडिया में ऐसे मुद्दे बनाए जाते हैं, जो एक व्यापक मुख्यधारा और विशेषकर विशाल शहरी मध्यवर्ग को ही सूट करते हैं।
सत्ता पक्ष से सवाल पूछना या उसकी आलोचना करना एक लोकतांत्रिक अधिकार है और इसकी हर हाल में हिफाजत करना सबका दायित्व है। तसल्ली ये है कि मीडिया जगत की निराशा के बीच ऑनलाइन और न्यू मीडिया पत्रकारिता एक बड़े अनुभव से गुजर रही है। उसके लिए भी ये एक बड़े इम्तेहान का वक्त है। हिंदी के वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने अपनी एक कविता में कहा था, “सत्य शायद जानना चाहता है कि उसके पीछे हम कितनी दूर तक जा सकते हैं।”
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