‘कसाब’ से ‘सराब’ तक तार-तार होती चुनावी भाषा
जब किसी दल के शीर्ष नेता और संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल होता है तो इससे न सिर्फ भाषा की मर्यादा का उल्लंघन होता है, बल्कि विपक्षी दलों को सौम्यता और शालीनता के दायरे में संबोधित करने की परंपरा भी टूटती है।
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय
औरन को शीतल करै, आपहु शीतल होय...
इस दोहे में कबीरदास कहते हैं कि इंसान को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जो सुनने वाले के मन को बहुत अच्छी लगे। इस दोहे की याद इसलिए क्योंकि इस लोकसभा चुनावों के दौरान बीते दिनों में जो भाषा सुनने को मिली उसे शालीन कहना तो दूर मर्यादित तक नहीं कहा जा सकता। दुखद और चिंताजनक यह है कि ऐसी भाषा का प्रयोग शीर्ष नेतृत्व द्वारा किया जा रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव प्रचार की शुरुआत गुरुवार को मेरठ से की। उन्होंने टेलीप्रॉम्पटर पर लिखी इबारत में नाटकीयता भरते हुए जिस शब्द का प्रयोग किया, वह बेहद निंदनीय और चिंताजनक है। उन्होंने कहा, “सपा का स, रालोद का र, बसपा का ब मतलब ‘सराब’। अच्छी सेहत के लिए ‘सराब’ से बचना चाहिए या नहीं बचना चाहिए? ये ‘सराब’ आपको बर्बाद कर देगी।“
मोदी ने भले ही ‘सराब’ शब्द का इस्तेमाल किया, लेकिन उनका मंतव्य शराब था। जब किसी दल के शीर्ष नेता और संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति द्वारा ऐसी भाषा का इस्तेमाल होता है तो इससे न सिर्फ भाषा की मर्यादा का उल्लंघन होता है बल्कि विपक्षी दलों को सौम्यता और शालीनता के दायरे में संबोधित करने की परंपरा भी टूटती है।
नतीजा क्या हुआ... कुछ ही समय में विपक्षी दलों ने भी इसका तुर्की ब तुर्की जवाब सामने रख दिया। उन्होंने कहा कि, ‘नरेंद्र मोदी का न और अमित शाह का शा मिलाकर ‘नशा’ बनता है और इससे देश को मुक्त करना है।‘ बात यहीं नहीं रुकी। एक और विपक्षी दल के नेता ने तो यहां तक सवाल उठा दिया कि, “क्या मोदी जी गांजा पीते हैं...”
अभी पीएम मोदी के बयान पर प्रतिक्रियाएं आ ही रही थीं कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का ‘ईलू-ईलू’ वाला बयान आ गया। अमित शाह ने असम के जोरहाट में कहा, ”जनता से कहना चाहता हूं कि छलावे में मत रहिए। दिन में तो कांग्रेस के गोगोई जी और अजमल आमने-सामने चुनाव लड़ते हैं। मगर जब रात होती है तो दोनों के बीच में ईलू-ईलू चालू हो जाता है।“
खुद को दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी होने का दावा करने वाले दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष के यह बोल हाल के दिनों में राजनीतिक विमर्श के स्तर को सामने रखते हैं।
याद होगा कि दो साल पहले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में अमित शाह ने आजमगढ़ में हुई एक जनसभा में ‘कसाब’ शब्द का इस्तेमाल किया था। उन्होंने कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को संयुक्त रूप से ‘कसाब’ कहा था।
जब पीएम और पार्टी अध्यक्ष ऐसी भाषा का इस्तेमाल करें तो पार्टी के बाकी उम्मीदवार भी कहां पीछे रहने वाले थे। उत्तर प्रदेश में मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य की बेटी और बीजेपी की बदायूं से उम्मीदवार संघमित्रा मौर्य ने खुद के सबसे बड़ी ‘गुंडी’ होने का ऐलान कर दिया। उन्होंने कहा, “आप अपना आशीर्वाद मुझे दीजिए। अगर आपके बीच में कोई दादागीरी करने आता है, गुंडागर्दी करने आता है तो उससे भी आप मत डरिएगा। अगर किसी ने आपके सम्मान, स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश की तो ये संघमित्रा मौर्य उससे भी बड़ी गुंडी बन जाएगी।“
आखिर किसे और क्यों डराने की कोशिश की जा रही है इन बयानों से। इस बीच समाजवादी पार्टी के एक नेता का भी एक बयान सामने आया है। एसपी नेता फिरोज खान एक बयान में पूर्व फिल्म अभिनेत्री और बीजेपी उम्मीदवार जया प्रदा के बारे में कहते सुने जा रहे हैं कि, “एक दिन बस में जा रहा था, तो जयाप्रदा का काफिला जा रहा था। मैंने बस से उतरकर उन्हें देखने की कोशिश की। मैं ये भी देख रहा था कि ट्रैफिक जाम खुलवाने के लिए कहीं ठुमका ना लगा दें। चुनावी माहौल चलेगा तो रामपुर की शामें बड़ी रंगीन हो जाएंगी।“
वहीं नेशनल कॉन्फ्रेंस नेता जावेद अहमद राणा ने पुंछ में बयान दिया, “खुदा की कसम अगर मेरा बस चले तो जम्मू-कश्मीर और इस देश में जितने भी कत्ल हुए हैं, मैं भारत के प्रधानमंत्री को कत्ल के केस में अंदर ठोक दूंगा।“
अभी तो सिर्फ पहले चरण के चुनाव की गर्माहट शुरु हुई है और सात चरणों में होने वाले आम चुनावों के दौरान अभी और क्या-क्या सुनने को मिलेगा इसका आभास होने लगा है। विरोधी नेताओं पर निजी और व्यक्तिगत हमले करने में शालीनता को जिस तरह मुंह चिढ़ाया जा रहा है, वह भारतीय तो बिल्कुल नहीं।
आज के चुनावी माहौल में नेता क्यों भूल रहे हैं कि यह देश गांधी, जेपी और बुद्ध का है। यहां शब्दों में भी अहिंसा बरती जाती है। यूं भी शब्द को तो ब्रह्म ही कहा गया है। नेताओं को यह ध्यान रखना होगा कि विनम्रता से ज्यादा शक्तिशाली और प्रभावशाली कुछ नहीं होता। तल्ख टिप्पणियों से जनसभा में मौजूद लोग ताली तो बजा सकते हैं, लेकिन ईवीएम का बटन दबाते वक्त उनके मन में यही शब्द नेताओं के विरुद्ध भी हो सकते हैं।
सबसे ज्यादा आश्चर्य तब होता है जब पूर्व लिखित भाषण में भी नेता शब्दों के साथ खिलवाड़ करते हुए विरोधियों के प्रति कुट भावना का भौंडा प्रदर्शन करते हैं। संभवत: नेताओं को भ्रम हो गया है कि नाम-उपनाम और अटपटी शाब्दिक व्याख्याओं से उनका भला होगा। लेकिन अमर्यादित भाषा के इस अंधड़ में आम लोग उद्धेलित होंगे, इसमें संदेह है। और अगर ऐसा होता तो सत्तर के दशक में की गई दिनकर की याचना बेमानी साबित हो चुकी होती।
दिनकर जी ने कहा था-
दो राह समय के रथ को
घर-घर नाद सुनो
सिंहासन खाली कर दो
कि जनता आती है...
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