पूर्वांचल में दलित-ओबीसी एकजुटता बीजेपी के लिए बनी मुसीबत, वाराणसी में हर मोड़ पर मोदी को मिल रही चुनौती

पूर्वांचल की जमीनी हकीकत बताती है कि दलित और पिछड़ी जातियों में एकजुटता है। यादव, जाटव और मुसलमान तो गठबंधन के साथ हैं ही, भदोही, जौनपुर और सुल्तानपुर में गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों से बात करने से समझ में आ गया कि वे लोग भी गठबंधन के साथ हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

पूर्वी उत्तर प्रदेश में वाराणसी सीट से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जीत निश्चित बताई जा रही है, लेकिन वाराणसी के आसपास के क्षेत्रों में माहौल ऐसा नहीं है। वहां बीजेपी को हर मोड़ पर चुनौती मिल रही है। जमीन पर देखने से साफ पता लग जाता है कि दलित और पिछड़ी जातियों में एकजुटता है। यादव, जाटव और मुसलमान तो गठबंधन के साथ हैं ही, भदोही, जौनपर और सुल्तानपुर में गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों से उनके गांव में जाकर बात करने से समझ में आ गया कि वे लोग भी गठबंधन के साथ हैं।

दिल्ली में यह बात सभी कहते रहते हैं कि पासी, कुर्मी, नाई, कुम्हार, कहार, धोबी आदि जातियां यादव और जाटव एकाधिकार से नाराज हैं और वे गठबंधन का विरोध कर रही हैं, लिहाजा बीजेपी के साथ हैं। लेकिन जमीन पर पड़ताल करने से पता चला कि ऐसा नहीं है।

इस संदर्भ में बहुत ही दिलचस्प वाकया हुआ। वाराणसी के एक बहुत महंगे होटल में बहुत सारे पत्रकार ठहरे हुए थे। नाश्ते के समय उनमें से एक ने प्रतिपादित करना शुरू किया कि पासी जाति के दलित बीजेपी के साथ हैं। अपनी बात को सही साबित करने के लिए उन्होंने बहुत सारे सैद्धांतिक और दार्शनिक तर्क दिए। एक अन्य पत्रकार उनको समझाने की कोशिश कर रहा था कि जमीन पर ऐसा नहीं है, क्योंकि एक दिन पहले ही बड़े पैमाने पर गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलितों से उनके गांवों में बात की गई थी और वे सभी गठबंधन के साथ थे।

लेकिन दूसरा ज्ञानी जिसने किसी गांव की यात्रा नहीं की थी अपने सिद्धांत को जमाए हुए था। इसी बीच वहां नाश्ता परोस रहा एक बैरा बीच में ही बोल पड़ा, “साहब मैं खुद पासी हूं और मेरे गांव के सभी लोग गठबंधन के साथ हैं।” हालांकि बड़े होटलों में काम करने वाले लोग अपने काम के अलावा कोई बात नहीं करते, लेकिन वह बोल पड़ा। उसने यह भी बताया कि उस होटल में कई कर्मचारी ऐसे हैं जो अन्य पिछड़ी जातियों से ताल्लुक रखते हैं, लेकिन बीजेपी के खिलाफ वोट कर रहे हैं। दिल्ली से आए पत्रकार महोदय ने उसकी बात को खारिज कर दिया और कहा कि यह बैरा पूर्वाग्रह से भरा है।

अपने सिद्धांतों को सही साबित करने वाली पत्रकारिता के कारण बहुत सारी गलत सूचनाएं 23 मई तक आती रहेंगी। पूर्वी उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश यादव की रैलियों का एक संयुक्त संदेश भी है। उनके भाषणों से साफ है कि वे सवर्णों को दलित-ओबीसी एकता से अलग रखना चाह रहे हैं। ज्ञानपुर (भदोही) की सभा में मायावती ने साफ कहा, “अगर हम लोग अर्थात दलित और ओबीसी एकजुट रहेंगे तो ऊंची जाति के लोग सरकार का इस्तेमाल करके हमारे अधिकारों पर कब्जा करने में सफल नहीं होंगे।”


यह एक बड़ा बदलाव है। 2007 में जिस सोशल इंजीनियरिंग की बात करके मायावती ने उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत हासिल किया था, उस सिद्धांत को अब वह पीछे छोड़ चुकी हैं। 2019 की दलित-पिछड़ा एकता ऐसी है, जिसमें सवर्णों को सत्ता के जरिये शोषक के रूप में पेश किया जा रहा है। इमकान है कि आने वाले समय में यही एसपी-बीएसपी की राजनीति का मूल आधार बनेगा।

ऐसा लगने लगा है कि मायावती इस नई एकता की सूत्रधार हैं और अखिलेश यादव उनको पूरी तरह से समर्थन दे रहे हैं। इस संदर्भ में उनके उस बयान को गंभीरता से लिया जाना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा है कि वह मायावती को प्रधानमंत्री बनाने के लिए मेहनत कर रहे हैं। यह बात उत्तर प्रदेश की राजनीति का व्याकरण पक्के तौर पर बदलने की क्षमता रखती है।

हालांकि वाराणसी में प्रधानमंत्री की जीत की बात सभी करते हैं, लेकिन वहां उनके खिलाफ विरोध के स्वर भी हैं। एक व्यक्ति है जो यह मानकर चल रहा है कि 23 तारीख के बाद जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं रहेंगे, तो काशी के लिए 2014 चुनाव के पहले किए गए उनके वादों को नई सरकार के सामने रखा जाएगा और कोशिश की जाएगी कि वह सरकार काशी को वह सम्मान दे सके जो उस शहर का अधिकार है।

द्वारिका और बद्रीनाथ के शंकराचार्य जगद्गुरु स्वामी स्वरूपानंद जी महराज के शिष्य स्वामी अविमकु्तेश्वरानंद जी काशी में ही विराजते हैं। उन्होंने मोदी के खिलाफ राम राज्य परिषद् का उम्मीदवार खड़ा किया था, जिसका पर्चा खारिज हो चुका है। उनका आरोप है कि उनके उम्मीदवार का पर्चा खारिज करने में जिला चुनाव अधिकारी ने गड़बड़ी की है। जिस दिन से पर्चा खारिज हुआ है, स्वामी जी सड़क पर हैं। मोदी की वादाखिलाफी के बारे में लोगों को जागरूक कर रहे हैं। दिन भर के काम के बाद जहां शाम हो जाती है, वहीं सो जाते हैं। पूरे काशी में उनके शुभचिंतक हैं।

उनसे हमारी मुलाकात के लिए हमारे दोस्त और वरिष्ठ पत्रकार बद्री विशाल को थोड़ी मशक्कत करनी पड़ी। जब जानकारी मिली कि वह मणिकर्णिका घाट के पास किसी आश्रम में हैं, तो हम वहां पहुंच गए। स्वामी अविमकु्तेश्वरानंद ने 2014 के लोकसभा चुनाव में वाराणसी में नरेंद्र मोदी का समर्थन किया था। लेकिन इस बार वह मोदी को हराने के लिए काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि गंगाजी को निर्मल और अविरल करने के अपने मूल संकल्प से नरेंद्र मोदी भटक गए हैं।


उनका कहना है कि मणिकर्णिका घाट से विश्वनाथ मंदिर तक का कॉरीडोर बनाने के लिए सरकार ने सैकड़ों मंदिरों को तोड़ा है, हजारों मूर्तियों को नष्ट किया है और उन मूर्तियों को मलबे का रूप दे दिया है। पास में हुई तोड़फोड़ को उनके शिष्यों ने हमको दिखाया भी। मंदिरों को तोड़ने के उनके दावे को सरकार सही नहीं मानती। सरकार का आरोप है कि वहां मौजद बहुत ही पुराने मंदिरों को घेरकर लोगों ने अपने घर बना लिए थे और मंदिरों को अपवित्र कर दिया था।

बीबीसी के पूर्व संवाददाता विजय राणा ने बनारस के बारे में एक फिल्म बनाई है, जिसमें इस बात को रेखांकित किया गया है। उन्होंने इसके बारे में विस्तार से लिखा भी है। लेकिन स्वामी अविमकु्तेश्वरानंद को उम्मीद है कि उनकी बात काशी के लोग सुनेंगे और नरेंद्र मोदी को वाराणसी सीट से ही पराजित कर देंगे। काशी क्षेत्र में घूम रहे बहुत सारे पत्रकारों से बात करने के बाद ऐसा लगता है कि वाराणसी के लोग ऐसा नहीं मानते और वे लोकसभा का सदस्य नहीं, प्रधानमंत्री चुन रहे हैं।

(ये लेखक शेष नारायण सिंह के अपने विचार हैं)

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