क्या ईरान में हिजाब के विरोध से नहीं बदलेगी देश की सरकार? जानकारों का क्या कहना है?
ईरान में जो विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं उनसे देश की शासन व्यवस्था में कोई बदलाव होगा इसके आसार बहुत कम हैं। शाह के समय से ही क्रांतियों की दशा दिशा देख रहे मौजूदा शासक इनसे निपटने के तौर तरीके जानते हैं।
विश्लेषकों का कहना है कि ईरान के धार्मिक शासक देश में उबल रहे मौजूदा विरोध पर काबू कर लेंगे और इस बात के आसार बहुत कम हैं कि किसी नयी राजनीतिक व्यवस्था का उदय होगा। बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। विरोध प्रदर्शनों का रुख बहुत हद तक हिजाब तक सीमित है और दशकों से पर्दे में रहता आया इस्लामी देश कम से कम इस मुद्दे पर तो अपनी सरकार बदलने का माद्दा नहीं दिखायेगा।
अंतरराष्ट्रीय मामलों की भारतीय परिषद के सीनियर रिसर्चर और मध्यपूर्व के जानकार फज्जुर रहमान कहते हैं, "ईरान के लोगों की ज्यादा बड़ी चिंता आर्थिक मुश्किलें हैं, ईरान के व्यापारी से लेकर बुर्जुआ वर्ग तक को हिजाब या पर्दे से उतनी दिक्कत नहीं है, समाज लंबे समय से पर्दे में रहता आया है। ऐसे में यह आंदोलन ईरान की सत्ता में कोई बदलाव का कारण बनेगा इसकी कोई उम्मीद फिलहाल नहीं दिख रही।"
प्रदर्शनकारियों के मुताबिक22 साल की महसा अमीनी की मोरलिटी पुलिस की गिरफ्त में हुई मौत के बाद शुरू हुए प्रदर्शनों ने अब सत्ताधारी मौलवियों की बढ़ती निरंकुशता के खिलाफ विद्रोह का रूप धर लिया है। हालांकि 2011 में ट्यूनीशिया और मिस्र के शासकों को जिस तरह विरोध प्रदर्शनों के बाद सत्ता छोड़नी पड़ी थी उस हाल तक पहुंचने के आसार दूर दूर तक नहीं दिख रहे हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि ईरान के शासकों की सत्ता पर पकड़ काफी मजबूत है और वह इस तरह के विरोध का सामना करने में माहिर हैं।
पिछले कुछ दिनों से वो ईरान की जनता को यह समझाने में जुटे हैं कि यह सब कुछ पश्चिमी देशों और अमेरिका की शह पर हो रहा है। रहमान कहते हैं, "ईरान की सरकार और वहां के लोगों के लिए अमेरिका से बड़ा कोई दुश्मन नहीं है और इस बार भी सरकार लोगों को यह समझाने में सफल रही है कि सब कुछ विदेशी ताकतों के दबाव में हो रहा है ऐसे में ईरान के दूसरे तबकों का समर्थन इन विरोध प्रदर्शनों का उस तरह से नहीं मिल रहा है जो सरकार बदलने के लिये जरूरी है। बीते 40-50 सालों से ईरान के मौलवी अपने लोगों की नब्ज पहचानते रहे हैं और इन विरोध प्रदर्शनों में वो बात नहीं है कि सरकार बदल सके।"
रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स का इस्तेमाल नहीं
कई दशकों से मौलवियों के तंत्र ने अपनी भरोसेमंद एलीट फोर्स रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स को हिंसक तरीके से विरोध प्रदर्शनों को दबाने में इस्तेमाल किया है। अब यह चाहे छात्रों का विरोध रहा हो या फिर आर्थिक मुश्किलों के विरोध में आम लोगों का प्रदर्शन। इस बार अब तक ये गार्ड्स सामने नहीं आये हैं लेकिन किसी भी क्षण इन्हें बुलाया जा सकता है।
अगर विरोध प्रदर्शन जारी रहे तो इस्लामिक रिपब्लिक इसका वही समाधान निकालेगा जो आमतौर पर यहां होता आया है। टोनी ब्लेयर इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल चेंज के ईरान प्रोग्राम प्रमुख कसरा अराबी का कहना है, "प्रदर्शन रोकने के लिए निहत्थे आम लोगों के खिलाफ बेरोक टोक हिंसा कभी भी हो सकती है।"
विरोध प्रदर्शन को शुरू हुए तीन हफ्ते हो चुके हैं और बीते सालों में ईरान की इस्लामी सत्ता के खिलाफ बड़े प्रदर्शनों में यह शामिल हो चुका है। फिर भी इन विरोध प्रदर्शनों की तुलना 1979 के इस्लामिक क्रांति से नहीं की जा सकती जब दसियों लाख लोग विरोध करने वालों के साथ खड़े होने के लिए सड़कों पर उतर आये थे। विश्लेषकों का यह जरूर कहना है कि इन प्रदर्शनों को जिस तरह का समर्थन और सहयोग मिल रहा है उससे इस्लामिक क्रांति की याद ताजा हो गई है।
अराबी का कहना है, "मौजूदा विरोध प्रदर्शनों की 1979 के प्रदर्शनों से एक समानता है सड़कों पर उतरे लोगों का मूड, जो साफतौर पर क्रांतिकारी है... वे सुधार नहीं बल्कि सत्ता में बदलाव चाहते हैं। निश्चित रूप से कोई इस बात की भविष्यवाणी नहीं कर सकता कि यह कब होगाः यह हफ्तों, महीनों या सालों में हो सकता है...लेकिन ईरान के लोगों ने अपना मन बना लिया है।"
इस्लामिक रिपब्लिक की वैधता को चुनौती देते हुए प्रदर्शनकारियों ने सुरक्षा बलों के आंसू गैस के गोले, लाठियों और कुछ जगहों पर बंदूक की गोलियों की परवाह किये बगैर अयातोल्लाह अल खमेनेई के की तस्वीरें जलाई है और "तनाशाह मुर्दाबाद" के नारे लगाये हैं।
"कोई कमजोरी नहीं"
ईरान के शासक ऐसी कोई कमजोरी नहीं दिखाना चाहते जो उनकी नजर में अमेरिका समर्थित शाह की सत्ता के पतन का कारण बनी थी. उस वक्त शाह की सबसे बड़ी गलती थी कि मानवाधिकार के लिए प्रदर्शन करने वालों का दमन, जिससे वो आम लोगों से दूर चले गये थे। हालांकि कुछ इतिहासकारों का यह भी कहना है कि शाह ज्यादा कमजोर थे और धीमे होने के साथ ही दमन के जरिये समाधान निकालने में सक्षम नहीं थे।
मिडिल ईस्ट इंस्टीट्यूट में ईरान प्रोग्राम के निदेशक आलेक्स वातांका का कहना है, "शासन का रुख शाह की तुलना में दमन पर ज्यादा भरोसा करने वाला है।"
मानवाधिकार गुटों का कहना है कि प्रदर्शनकारियों पर सरकार की कार्रवाई में अब तक कम से कम 150 लोगों की मौत हुई है और सैकड़ों लोग घायल हुए हैं जबकि हजारों लोगो को गिरफ्तार किया गया है।
अधिकारियों का कहना है कि सुरक्षा बलों के कई जवान "विदेशी दुश्मनों से जुड़े बदमाशों और दंगाइयों" के हाथों मारे गये हैं. पिछले दिनों खमेनेई ने भी अपने बयान में अमेरिका और इस्राएल पर "दंगों" को हवा देने का आरोप लगाया था।
विरोध प्रदर्शन अमीनी के इलाके कुर्दिस्तान प्रांत से शुरू हो कर ईरान के सभी 31 राज्यों में फैल गये हैं और इसमें जातीय से लेकर धार्मिक अल्पसंख्यकों तक समाज का कई तबका शामिल हो रहा है। कनाडा में रहने वाले राजनीतिक इस्लाम के विशेषज्ञ वाहिय येसेसॉय कहते हैं, "इन व्यापक प्रदर्शनों ने आबादी के हर उस हिस्से को आकर्षित किया है जिनकी समस्याएं शासन नहीं सुन रहा है।"
17 सितंबर को अमीनी के अंतिम संस्कार में कुर्द स्वतंत्रता आंदोलन का एक मशहूर राजनीतिक नारा गूंज रहा था, "औरत, जिंदगी, आजादी।" अब यही नारा पूरी दुनिया में अमीनी की मौत के विरोध में हुए प्रदर्शनों में सुनाई दे रहा है।
विश्लेषकों का कहना है कि जातीय विद्रोह के डर से सरकार ने पहले जैसी ज्यादा कठोरता दिखाने की बजाय थोड़ा संयम के साथ दमन का सहारा लिया है।
"मौलवियों के खिलाफ विद्रोह"
टेनेसी यूनिवर्सिटी में राजनीतिक शास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर सईद गोलकर का कहना है कि विरोध प्रदर्शन "धर्मनिरपेक्ष, गैर वैचारिक और कुछ हद तक इस्लाम विरोधी हैं। ईरानी लोग "मौलवियों के खिलाफ विद्रोह कर रहे हैं, जो धर्म का इस्तेमाल लोगों को दबाने के लिए करते हैं।"
शाह विरोधी प्रदर्शनों की गूंज राज्यों के शहरों, कस्बों और गांवों में सुनाई दे रही थी लेकिन उनके शासन को सबसे ज्यादा जिसने प्रभावित किया वह तेल कामगारों की हड़ताल थी। इसकी वजह से देश के राजस्व पर असर पड़ा। दूसरी तरफ बाजार के कारोबारी थे जिन्होंने विद्रोही मौलवियों को पैसा दिया।
यूनिवर्सिटी के छात्रों ने मौजूदा प्रदर्शनों में प्रमुख भूमिका निभाई है, दर्जनों यूनिवर्सिटियों में हड़ताल हुई है लेकिन इस बात के संकेत नहीं हैं कि बाजार या तेल कामगार इसमें शामिल हो रहे हैं।
रहमान ने इस पूरे मामले में अमेरिका के साथ परमाणु करार नहीं होने को भी एक कारण माना है। उनका कहना है, "ईरान की आर्थिक ताकतें प्रतिबंधों के हटने के इंतजार में हैं और वह मामला फंसा हुआ है। अगर करार होने के बाद ये विरोध प्रदर्शन हुए होते और उनसे आर्थिक क्षेत्र में बदलाव की उम्मीद होती तो शायद कुछ हो सकता था।"
वातांका का कहना है, "बाजार ने 1979 की क्रांति में बहुत अहम भूमिका निभाई, उस वक्त उन्होंने शाह के लागू किये सुधारों को अपने हितों के खिलाफ देखा और इसलिये क्रांति को समर्थन दिया। आज बाजार के पास बचाने को कुछ नहीं है क्योंकि वह अब अर्थव्यवस्था को नियंत्रित नहीं करता, सब कुछ अब गार्ड्स के हाथों में है।"
खमेनेई के भरोसेमंद गार्ड्स ताकतवर सैन्य बल होने के साथ ही एक औद्योगिक साम्राज्य भी चला रहे हैं। ईरान के तेल उद्योग पर नियंत्रण इन्हें राजनीतिक ताकत भी दे रहा है।
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