9/11 के सत्रह साल : अब भी डराते हैं कुछ सवाल
आंतक के खिलाफ अमेरिका की कथित लड़ाई बीते 17 वर्षों से जारी है। इस दौरान अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, लीबिया और यमन जैसे देश मलबे के ढेर में तब्दील हो गए।
आंतक के खिलाफ अमेरिका की कथित लड़ाई बीते 17 वर्षों से जारी है। इस दौरान अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, लीबिया और यमन जैसे देश मलबे के ढेर में तब्दील हो गए। लेकिन क्या इस लड़ाई में अभी भी जीत नहीं हुई है। कोई आश्चर्य?
दुनिया का एक बड़ा हिस्सा कट्टरपंथी इस्लाम की वजह से बेचैन दिखाई दे रहा है, और इसका प्रभाव पूरी दुनिया पर नजर आ रहा है। लेकिन, विडंबना यह है कि कट्टरपंथी इस्लाम से अगर सबसे ज्यादा कोई प्रभावित है, तो वो खुद मुस्लिम समुदाय है। इराक और उसके पड़ोसी देशों में आईएसआईएस की बढ़ती क्रूरता से पैदा घबराहट में एक गैर मुस्लिम दोस्त ने सवाल पूछा: “आईएसआईएस अल्लाह का नाम लेते हुए एक शख्स का गला रेत दिया, लेकिन मारा जाने वाला व्यक्ति भी अल्लाह का ही नाम ले रहा था। आखिर मुसलमान, खुद मुसलमानों को ही क्यों मार रहे हैं।”
मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है। यह बेहद तकलीफदेह और हैरान करने वाला तथ्य है कि एक मुसलमान दूसरे मुसलमान की अल्लाह के नाम पर हत्या कर रहा है। आतंक के खिलाफ कथित लड़ाई में अब तक 20 लाख से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है। अफगानिस्तान, इराक, सीरिया,यमन और लीबिया जैसे देश मलबे का ढेर बन चुके हैं। इन देशों की बरबाद हो चुकी शानो-शौकत हाल फिलहाल में नहीं वापस आने वाली, कम से कम मेरे जीते जी तो ऐसा संभव नहीं लगता। इस पूरी लड़ाई और संघर्ष में पश्चिम एशियाई देश भी प्रभावित हुए हैं, क्योंकि अपने लोगों की खुशहाली के लिए कदम उठाने के बजाय वे पश्चिमी देशों से हथियार खरीदने की एक होड़ में शामिल हो गए हैं।
लेकिन एक बात मेरी समझ से परे है, वह यह कि आईएसआईस, अल-शबाब और बोको हराम जैसे कट्टरपंथी इस्लामिक संगठनों के पास पैसा कहां से आ रहा है? इन्हें अत्याधुनिक हथियार कौन दे रहा है? इनकी रसद और दूसरी आपूर्ति कहां से हो रही है? इसके कोई शक नहीं कि इस सबके लिए बेशुमार पैसा चाहिए, क्योंकि इसमें से कुछ भी यूं ही नहीं मिलता। तो क्या इन्हें किसी देश या किसी किस्म का अंतर्राष्ट्रीय संरक्षण हासिल है?
जी-8 और जी-20 देशों के एजेंडा में सबसे ऊपर कट्टरपंथी इस्लाम से निपटने की कोशिश है, लेकिन क्या यही वह देश नहीं हैं जो इन आतंकी संगठनों को हथियार और दूसरे सामान मुहैया करा रहे हैं। इस बात पर तो विश्वास नहीं किया जा सकता कि इन संगठनों ने रातों-रात हथियार बनाने की फैक्टरियां लगा ली हैं।
9/11 के हमलों के बाद आतंकवाद के खिलाफ अमेरिकी जंग बीते 17 वर्षों से जारी है, लेकिन हालात बद से बदतर ही हुए हैं। इतना ही नहीं ये सारी सुपर पॉवर शांति बहाल करने में पूरी तरह नाकाम भी साबित हुई हैं। ऐसे में इस बात पर संदेह होता है कि क्या सच में ये शक्तिशाली देश अमन और शांति चाहते हैं।
दुनिया को इन नेताओं से पूछना चाहिए कि आखिर आंतकियों के पास पैसे और हथियार कहां से आ रहे है? लाखों लोग मारे जा चुके हैं, और मरने वालों में सबसे ज्यादा तादाद मुसलमानों की ही है। कहीं यह सिर्फ जी-8 देशों की अपने हथियार बेचने और हथियार व्यापार बढ़ाने की एक प्रक्रिया तो नहीं? आखिर सबसे ताकतवर देशों को इन आतंकियों की सप्लाई चेन का पता लगाने और उस पर रोक लगाने में दशकों का वक्त क्यों लग रहा है?
हालांकि ब्रिटेन इराक युद्ध की जांच कर शिल्कोट रिपोर्ट को संसद में रख चुकी है, लेकिन किसी भी तथाकथित विकसित समाज या देश ने ये जानने की कोशिश ही नहीं की कि इस रिपोर्ट में क्या है और उस पर अमल कैसे किया जाए?
क्या कट्टरपंथी इस्लामिक संगठनों के पास इतना पैसा, हथियार और तकनीक है कि वे दुनिया के सबसे शक्तिशाली और विकसित देशों के काबू में नहीं आ पा रहे हैं? सवाल यह भी है कि इतने कम समय में वे इतने शक्तिशाली कैसे बन गए ?
सवाल यह भी है कि आखिर अमेरिका ने “मदर ऑफ ऑल बॉम्ब” आबादी वाले इलाकों में क्यों गिराया, जिसमें हजारों मासूमों की मौत हो गयी? क्या अमेरिका से ये सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर उनपर इसे लेकर मुकदम क्यों नहीं चलना चाहिए या फिर ऐसा ही बम उत्तरी कोरिया पर गिराने से उन्हें कौन रोक रहा है।
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Published: 11 Sep 2017, 8:01 PM