हांगकांग ने किया चीन की नाक में दम, लोकतंत्र की मांग के लिए आन्दोलन ने जोर पकड़ा

1997 में जब हांगकांग को चीन के अधीन किया गया था, तब वादा हुआ था कि अगले पचास साल यानी 2047 तक हांगकांग को न्यायिक स्वायत्तता मिलती रहेगी। पर लोकतंत्र समर्थकों को इस बात से निराशा है कि चीन सरकार धीरे-धीरे इसे निरंकुश व्यवस्था में तब्दील करती जा रही है।

फोटोः सोशल मीडिया
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प्रमोद जोशी

हांगकांग में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन थमने का नाम नहीं ले रहा है। एक दिन पहले रविवार को आंदोलनकारियों ने विशाल प्रदर्शन किया। इसके पिछले हफ्ते पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच कई झड़पें हुईं। इस ‘नगर-राज्य’ की सीईओ कैरी लाम ने कड़ी कार्रवाई की चेतावनी दी है। लेकिन प्रेक्षक पूछ रहे हैं कि कड़ी कार्रवाई के माने क्या हैं?

उधर चीन ने धमकी दी है कि अगर हांगकांग प्रशासन आंदोलन को रोक पाने में विफल रहा, तो वह इस मामले में सीधे हस्तक्षेप भी कर सकता है। यह आंदोलन ऐसे वक्त जोर पकड़ रहा है, जब चीन और अमेरिका के बीच कारोबारी मसलों को लेकर जबर्दस्त टकराव चल रहा है। बीते हफ्ते के शुक्रवार को अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर प्रदर्शन के दौरान कुछ आंदोलनकारी अमेरिकी झंडे लहरा रहे थे।

चीन के सरकारी मीडिया का आरोप है कि इस आंदोलन के पीछे अमेरिका का हाथ है। चीनी मीडिया ने हांगकांग स्थित एक अमेरिकी कौंसुलेट जनरल की राजनीतिक शाखा प्रमुख जूली ईडे की एक तस्वीर प्रसारित की है, जिसमें वह एक होटल की लॉबी में आंदोलनकारी नेताओं से बात करती नजर आ रही हैं। इनमें 22 वर्षीय जोशुआ वांग भी है, जो सरकार विरोधी आंदोलन का मुखर नेता है।

क्या चीन करेगा हस्तक्षेप?

हांगकांग से निकलने वाले चीन-समर्थक अखबार ‘ताई कुंग पाओ’ ने लिखा है कि जू ली ईडे इराक में ऐसी गतिविधियों में शामिल रही हैं। चीन के सरकारी सीसीटीवी का कहना है कि सीआईए ऐसे आंदोलनों को भड़काता रहता है। चीन सरकार एक अक्टूबर को कम्युनिस्ट क्रांति की 70वीं वर्षगांठ मनाने जा रही है। हांगकांग का आंदोलन समारोह के माहौल को बिगाड़ेगा, इसलिए सरकार आंदोलन को खत्म कराना चाहती है। विधि विशेषज्ञों का कहना है कि यदि हांगकांग प्रशासन अनुरोध करेगा, तो चीन सरकार सीधे हस्तक्षेप कर सकती है। चीन को अंदेशा है कि हांगकांग में चल रही लोकतांत्रिक हवा कहीं चीन में न पहुंच जाए।

उधर, प्रदर्शनकारी पुलिस-प्रशासन से सीधे भिड़ने के बजाय ‘हिट एंड रन’ की रणनीति अपना रहे हैं। पिछले हफ्ते अनुमति न मिलने के बाद भी प्रदर्शनकारी ताई पो जिले में जमा हुए और पुलिस जैसे ही वहां पहुंची, वे पीछे हट गए और छोटे-छोटे समूहों में बंटकर शहर के अलग-अलग हिस्सों में चले गए। इसके बाद उन्होंने शहर के क्रॉस हार्बर टनल में यातायात को ठप कर दिया। पिछले दस हफ्तों से हरेक शनिवार को प्रदर्शन हो रहा है।


अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल करने के उद्देश्य से प्रदर्शनकारियों ने शुक्रवार को हांगकांग के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर प्रदर्शन किया था। वे अपने परिवार और बच्चों के साथ भी शामिल हो रहे हैं। उनका कहना है कि इससे आंदोलन का महत्व बच्चों को भी समझ में आएगा। हांगकांग के लोगों ने अंग्रेजी की वर्णमाला में पी फॉर प्रोटेस्ट (विरोध) और डी फॉर डिमांस्ट्रेशन (प्रदर्शन) प्रसारित करना शुरू कर दिया है। उनका कहना है कि वे अपना प्रदर्शन तब तक जारी रखेंगे जब तक लाम उनकी मांगें नहीं मान लेतीं। उनकी मांगों में शहर के प्रमुख का प्रत्यक्ष चुनाव और पुलिस हिंसा की जांच शामिल है।

जून में एक प्रस्तावित कानून के खिलाफ हांगकांग के निवासी न केवल खड़े हुए, बल्कि उन्होंने इसे अपने अस्तित्व का प्रश्न बना लिया। मोटे तौर पर यह कानून हांगकांग के अधिकारियों को यह अधिकार देता था कि वे जरूरी समझें तो किसी नागरिक का प्रत्यर्पण मेनलैंड चीन को कर सकें। इसका प्रत्यक्ष कारण था हांगकांग में बढ़ती आपराधिक गतिविधियां, पर नागरिकों को अंदेशा है कि इस अधिकार का दुरुपयोग किया जाएगा।

पांच साल से आंदोलन

हांगकांग में 2014 से आंदोलनों का क्रम चल रहा है। 1997 में हांगकांग पर ब्रिटिश संप्रभुता खत्म करके उसे चीन के अधीन कर दिया गया था, इस आश्वासन के साथ कि वहां की व्यवस्था मेनलैंड चीनी व्यवस्था से अलग होगी। हांगकांग के शासन में तीन अंग हैं। मुख्य कार्याधिकारी, विधायिका और न्यायपालिका। पर वास्तविक शक्ति मुख्य कार्याधिकारी के पास है, जिसकी नियुक्ति में चीन सरकार की भूमिका होती है।

2007 में यह निर्णय किया गया कि 2017 में होने वाले चुनावों में लोगों को मताधिकार का प्रयोग करने का हक मिलेगा। 2014 की शुरुआत में इसके लिए कानूनों में जरूरी बदलाव शुरू हुए। उम्मीद थी कि चीनी व्यवस्था धीरे-धीरे लोकतांत्रिक बनेगी, पर 2017 के चुनाव के तीन साल पहले हांगकांग को लोकतांत्रिक अधिकार देने की जो पेशकश की गई, वे नागरिकों को अपर्याप्त लगे। विरोध में एक सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ जिसे अम्ब्रेला आंदोलन या ‘ऑक्युपाई सेंट्रल’ नाम दिया गया। आंदोलनकारी पीले रंग के बैंड और छाते अपने साथ लेकर आए थे। इसलिए इसका नाम ‘यलो अम्ब्रेला प्रोटेस्ट’ रखा गया।

सितंबर, 2014 में हांगकांग के छात्रों ने कक्षाओं का बहिष्कार करके इसकी शुरुआत की, पर वह आंदोलन कमजोर पड़ गया। इसे नागरिकों के बड़े वर्ग का समर्थन नहीं मिल पाया। उस आंदोलन की विफलता से चीन सरकार के हौसले बढ़े हैं, पर इस बार आंदोलन का जो स्वरूप है, वह जबर्दस्त है। करीब बीस लाख लोगों का सड़कों पर उतरना मामूली बात नहीं है। 1997 में जब हांगकांग को चीन के अधीन किया गया था, तब वादा किया गया था कि अगले पचास साल यानी 2047 तक हांगकांग को न्यायिक स्वायत्तता मिलती रहेगी। पर लोकतंत्र समर्थकों को इस बात से निराशा है कि चीन सरकार धीरे-धीरे इसे निरंकुश व्यवस्था में तब्दील करती जा रही है।


परस्पर विरोधी व्यवस्थाएं

चीनी न्याय-व्यवस्था और हांगकांग की व्यवस्था में जमीन-आसमान का फर्क है। चीनी व्यवस्था में तमाम गोपनीय बातें हैं, जिनका विवरण जनता को नहीं दिया जाता, जबकि हांगकांग की व्यवस्था ब्रिटिश मॉडल पर तैयार हुई है। हांगकांग-वासियों को डर है कि वह दिन आ सकता है, जब उन्हें फेसबुक पोस्ट के लिए भी गिरफ्तार करके चीन भेजा जा सकता है। इन दिनों जो माहौल है उससे कुछ-कुछ मिलता-जुलता माहौल 2003 में बन गया था, जब यहां एक नया कानून लाया जा रहा था, जिसके अनुसार चीनी जनवादी गणराज्य (पीआरसी) के प्रतिविरोध को देशद्रोह काअपराध घोषित किया गया था। उस वक्त जनता के विरोध के कारण वह कानून वापस लेना पड़ा और तत्कालीन चीफ एक्जीक्यूटिव को इस्तीफा देना पड़ा।

चीन यदि उदारवादी लोकतांत्रिक देश होता, तो हांगकांग का उसमें विलय सहज बात होती। पर समस्या चीन की व्यवस्था में है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को अपने महान होने का भ्रम भी है। उसे हांगकांग के नागरिकों की बातें समझ में नहीं आएंगी। लगभग यही स्थिति ताइवान के साथ है। वह ताइवान को भी अपने अधीन चाहता है।

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