इंटरनेशनल कोर्ट के फैसले से दुनिया के सामने आया रोहिंग्याओं का दर्द, क्रुरता उजागर होने पर दबाव में म्यांमार
संयुक्त राष्ट्र की एक जांच रिपोर्ट ने पिछले दो साल की गतिविधियों का जो विवरण दिया है, उससे रोहिंग्या लोगों पर हुए क्रूरता, बर्बरता और अत्याचारों की जानकारियां सामने आईं हैं। इसकी वजह से करीब 10 लाख रोहिंग्या लोगों को भागकर बांग्लादेश में शरण लेनी पड़ी है।
अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (आईसीजे) ने 23 जनवरी को म्यांमार सरकार को निर्देश दिया कि वह रोहिंग्या लोगों का जनसंहार रोकने के लिए अपनी सामर्थ्य के अनुसार सभी कदम उठाए। न्यायालय के अध्यक्ष जस्टिस अब्दुल कवी अहमद युसुफ ने कहा, ‘अंतरराष्ट्रीय न्यायालय मानता है कि म्यांमार में रोहिंग्या सबसे अधिक असुरक्षित हैं।’ अदालत ने अपने आदेश में कहा कि रोहिंग्याओं को सुरक्षित करने की मंशा से अंतरिम प्रावधान के उसके आदेश म्यांमार के लिए बाध्यकारी हैं और यह अंतरराष्ट्रीय कानून की जिम्मेदारी है। साथ ही अदालत ने म्यांमार कोआदेश दिया है कि चार महीने में आईसीजे को रिपोर्ट देकर बताए कि उसने आदेश के अनुपालन के लिए क्या किया और इसके बाद अंतिम आदेश आने तक हर छह महीने में स्थिति से अवगत कराए।
अंतरराष्ट्रीय अदालत का यह आदेश अफ्रीकी देश गैम्बिया की याचिका पर आया है, जिसने इस्लामिक देशों के संगठन (ओआईसी) की ओर से याचिका दायर की थी और म्यांमार पर रोहिंग्या लोगों का जनसंहार करने का आरोप लगाया था। म्यांमार पर रोहिंग्या समुदाय का जनसंहार करने का आरोप लगाने वाले वकीलों ने अपने दावों को पुष्ट करने के लिए नक्शों, सेटेलाइट तस्वीरों और ग्राफिकों का इस्तेमाल किया था। इस सुनवाई के दौरान दिसंबर में म्यांमार की नेता आंग सान सूची का बयान भी हुआ, जिसमें उन्होंने सेना की कार्रवाई का समर्थन किया था। म्यांमार सरकार इसे एक मसला मानती जरूर है, पर वह अपनी कार्रवाइयों को जनसंहार नहीं मानती।
म्यांमार की दलील
आंग सान सूची म्यांमार के राष्ट्रपति की मंत्री (व्यावहारिक रूप से प्रधानमंत्री) हैं। देश की सर्वोच्च नेता होने के बावजूद संविधान की एक व्यवस्था के अनुसार वह देश की राष्ट्रपति नहीं बन सकतीं, क्योंकि उनके पति विदेशी थे, पर व्यावहारिक रूप से वह शासनाध्यक्ष हैं। अंतरराष्ट्रीय अदालत के इस आदेश के कुछ दिन पहले ही म्यांमार सरकार द्वारा गठित एक आयोग ने अपनी जांच रिपोर्ट में कहा था कि रोहिंग्या जनसंहार के कोई प्रमाण नहीं हैं।
बौद्ध बहुल म्यांमार, रोहिंग्या समुदाय को बांग्लादेश का बंगाली मानता है, जबकि वे पीढ़ियों से म्यांमार में रह रहे हैं। साल 1982 में उनसे नागरिकता भी छीन ली गई थी और वे देश-विहीन जीवन बिता रहे हैं। साल 2017 में म्यांमार की सेना ने एक रोहिंग्या छापामार समूह के हमले के बाद उत्तरी रखाइन प्रांत में अभियान शुरू किया। इसकी वजह से करीब दस लाख रोहिंग्या लोगों ने भागकर बांग्लादेश में शरण ली।
क्या मानेगा म्यांमार?
इस मामले को लेकर अब कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। पहला सवाल यही है कि क्या म्यांमार सरकार इस आदेश का पालन करेगी? क्या यह मामला नजीर बन सकता है? इसके निहितार्थ क्या हैं, क्या दुनिया के दूसरे इलाकों के मुकदमे भी अब अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में आएंगे? ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि यदि विश्व समुदाय इस फैसले को लागू कराने की कोशिश भी करे, तो क्या यह संभव है? ऐसे किसी भी फैसले को लागू कराने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से प्रस्ताव पास कराना होगा। क्या म्यांमार के खिलाफ ऐसे प्रस्ताव को चीन पास होने देगा? म्यांमार के साथ चीन के बड़े आर्थिक हित हैं। हाल में राष्ट्रपति शी चिनफिंग की म्यांमार यात्रा के दौरान चीन-म्यांमार आर्थिक कॉरिडोर बनाने पर सहमति हुई है, जैसा कॉरिडोर पाकिस्तान में है। यह केवल कानूनी नहीं राजनयिक मसला भी है। इन सवालों का जवाब आसान नहीं है।
अलबत्ता इस मामले ने एक बात साबित की है कि किस तरह एक छोटा सा अनाम देश चाहे तो अंतरराष्ट्रीय कानून लागू कराने वाली व्यवस्थाओं का सहारा ले सकता है, जिससे विश्व समुदाय के अंतर्विरोध उजागर होते हैं। गैम्बिया ने ओआईसी की मदद से संयुक्त राष्ट्र की जनसंहार संधि के अनुच्छेद-9 का सहारा लिया, जिसमें कोई देश किसी दूसरे देश की शिकायत करते हुए संधि के उपबंधों को लागू कराने का अनुरोध कर सकता है। इस संधि को दुनिया के 152 देशों ने स्वीकार किया है। अतीत में अमेरिका के अश्वेतों और चीन के विगुर समुदाय के प्रति दुर्व्यवहार को लेकर शिकायतें होती रही हैं, पर इस किस्म की शिकायत पहली बार हुई है। सूडान के दारफुर जनसंहार को लेकर वहां के पूर्व राष्ट्रपति उमर हसन अहमद-अल-बशीर की गिरफ्तारी का वारंट साल 2009-10 में जारी हुआ था, पर वह लापता हैं, इस वजह से उस मामले में कोई खास प्रगति नहीं हुई है।
आदेश कैसे लागू होगा?
रोहिंग्या मामला क्या मोड़ लेगा, अभी कहना मुश्किल है। अदालत का यह अंतरिम आदेश है। हालांकि अदालत ने कहा है कि यह आदेश बाध्यकारी है, पर उसे लागू कराने वाली मशीनरी अदालत के पास नहीं है। अभी यह मुकदमा बरसों चल सकता है, क्योंकि यह अंतिम रूप से सिद्ध नहीं है कि म्यांमार में जनसंहार हुआ है। अदालत ने रखाइन राज्य में संयुक्त राष्ट्र टीम भेजकर जांच कराने की बात भी नहीं कही है। केवल इतना कहा है कि भविष्य में हमले न हों, इस बात को सुनिश्चित किया जाए। सवाल है कि म्यांमार इस आदेश को भी स्वीकार करने से इनकार कर दे, तो क्या होगा? म्यांमार सरकार इस बात को स्वीकार ही नहीं करती है कि जनसंहार हुआ है, तो फिर वह इस आशय का कोई वादा क्यों करेगी?
अंदेशा इस बात का भी है कि अब म्यांमार में रहने वाले रोहिंग्या लोगों पर हमले और हो सकते हैं। रखाइन राज्य में अब भी करीब छह लाख रोहिंग्या रह रहे हैं। ऐसा हुआ तो क्या होगा? देश के सैनिक शासक वर्षों से विश्व समुदाय की अवहेलना करते रहे हैं। म्यांमार यदि अदालत के इस आदेश को स्वीकार करेगा, तो उसे चार महीने बाद अदालत को रिपोर्ट करनी होगा। उसके छह महीने बाद फिर एक रिपोर्ट देनी होगी। दूसरी तरफ इस प्रकरण का असर म्यांमार के पड़ोसी देशों पर भी होगा। बांग्लादेश के साथ म्यांमार के रिश्ते बहुत मधुर नहीं हैं। भारत ने अलबत्ता अपने रिश्ते सुधारे हैं। अंतरराष्ट्रीय अदालत का फैसला आने पर मलेशिया ने फौरन बयान जारी करके इस फैसले को सही दिशा में उठाया गया कदम बताया है। अंततः यह क्षेत्रीय राजनीति का विषय भी है।
पीड़ा को पहचान मिली
ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का यह फैसला निरर्थक साबित होगा। अंतरराष्ट्रीय व्यवस्थाएं धीमी गति से चलती हैं, पर वे चलती जरूर हैं। रोहिंग्या मामले में संयुक्त राष्ट्र की एक जांच रिपोर्ट ने पिछले दो साल की गतिविधियों का जो विवरण दिया है, उनसे क्रूरता, बर्बरता और रोहिंग्या लोगों पर हुए अत्याचारों की जानकारियां सामने आई हैं। इसकी वजह से करीब 10 लाख रोहिंग्या लोगों को भागकर बांग्लादेश में शरण लेनी पड़ी है। उनकी दशा खराब है और उन्हें अमानवीय स्थितियों में रहना पड़ रहा है। हां, यह सिद्ध करना आसान नहीं है कि इसे जनसंहार कहेंगे या नहीं, पर यह उत्पीड़न जरूर है, जिसकी तरफ विश्व समुदाय को ध्यान देना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय संयुक्त राष्ट्र का प्रमुख न्यायिक अंग है और इसे पुष्ट करने की जरूरत है।
फिलहाल अदालत के इस आदेश के बाद विश्व समुदाय के सामने एक बात स्पष्ट हुई है कि रोहिंग्या समुदाय को संरक्षण दिया जाना चाहिए। देखना होगा कि म्यांमार सरकार 23 मई तक क्या रिपोर्ट देती है। हाल में म्यांमार ने माना था कि वह रोहिंग्या लोगों के मानवाधिकारों के उल्लंघन और युद्ध अपराधों की जवाबदेही तय करने वाली है। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में जनसंहार का मसला ही लाया जा सकता है, पर सामान्य अपराधों की पड़ताल करने वाली वैश्विक व्यवस्थाएं भी शक्ल ले रही हैं। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने कम से कम उन्हें संरक्षित समुदाय जरूर बना दिया है।
इस बीच, संयुक्त राष्ट्र की स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञऔर म्यांमार पर विशेष रैपोर्टेयर यंगी ली ने बांग्लादेश और थाईलैंड का अपना अंतिम दौरा पूरा कर लिया है। म्यांमार में प्रवेश के उनके अनुरोध को वहां की सरकार ने ठुकरा दिया था, इस वजह से उन्होंने थाईलैंड और बांग्लादेश जाकर जानकारी जुटाई। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने स्वतंत्र मानवाधिकार विशेषज्ञ की नियुक्ति वर्ष 2014 में की थी, जिसके बाद वे साल में दो बार म्यांमार का दौरा करती रहीं। म्यांमार सरकार ने दिसंबर, 2017 में उन्हें प्रवेश देने से मना कर दिया था। अब वह अपनी अंतिम रिपोर्ट जिनीवा में मानवाधिकार परिषद में मार्च 2020 में पेश करेंगी।
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