दिल्ली की हवा में फैले प्रदूषण का बेमानी इलाज
ऐसा लगता है जैसे इस बार केंद्रीय बोर्ड दिल्ली को प्रदूषण मुक्त करने के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन किसी भी धारणा तक पहुंचने के पहले कुछ तथ्यों पर विचार करना आवश्यक है।
समाचारों के अनुसार दिल्ली में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की 40 टीमें घूम-घूम कर प्रदूषण के स्त्रोतों का पता कर रही हैं। वैसे तो यह खबर अच्छी है। ऐसा लगता है जैसे इस बार केंद्रीय बोर्ड दिल्ली को प्रदूषण मुक्त करने के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन किसी भी धारणा तक पहुंचने के पहले कुछ तथ्यों पर विचार करना आवश्यक है।
केंद्रीय बोर्ड लगातार कहता रहा है कि दिल्ली में कुल प्रदूषण का 60 प्रतिशत से अधिक हिस्सा पड़ोसी राज्यों की देन है। इसका सीधा सा मतलब है कि केन्द्रीय बोर्ड के 40 वैज्ञानिकों का आकलन कुल प्रदूषण भार का 40 प्रतिशत भी नहीं है। यदि केन्द्रीय बोर्ड के महज 40 प्रतिशत प्रदूषण पर लगाम लगाने का सवाल है तो इसका असर भी कहीं दिखाई नहीं दे रहा। भलस्वा लैंडफिल साइट से धुंआ रोज निकलता है, कई क्षेत्रों में खतरनाक औद्योगिक और इलेक्ट्रॉनिक कचरा वैसे ही खुले में जलाया जा रहा है जैसे पहले जलता था, सड़कों पर धूल वैसे ही उड़ रही है जैसे पहले उड़ती थी और जिन उद्योगों की चिमनी से काला धुंआ निकलता था वह आज भी वैसे ही निकल रहा है। वैसे भी केंद्रीय बोर्ड अधिकतर मामलों में सीधी कार्यवाही नहीं कर सकता, उसे दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण कमिटी को बताना पड़ेगा और फिर कमिटी कार्यवाही करेगी। सवाल यह है कि यदि कमिटी को कार्यवाही करनी ही होती तो प्रदूषण उत्पन्न ही क्यों होता और यदि कमिटी अपना काम नहीं करती तो केंद्रीय बोर्ड क्या करता है?
अब रही 60 प्रतिशत प्रदूषण की बात, तो इसमें भी बहुत मतभेद हैं। कहा जाता है कि यह प्रदूषण भार दिल्ली की हवा में पड़ोसी राज्यों की देन है। राजस्थान की धूल, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के खेतों से निकलता आग का धुंआ, पड़ोसी राज्यों के उद्योग और ईंट-भट्ठे और पड़ोसी राज्यों से दिल्ली आने वाली गाड़ियों को इसका जिम्मेदार बताया जाता है। इसमें सबसे अधिक चर्चा वर्तमान में फसलों के अपशिष्ट को खुले में जलाने की होती है। लगभग दस साल पहले तक राजस्थान की धूल को दिल्ली में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण माना जाता था। दिल्ली के नक्शे को देखेंगे तो राजस्थान, हरियाणा और पंजाब अलग दिशा में हैं और उत्तर प्रदेश इनसे भी अलग है। ऐसा नहीं होता कि हवा हर दिशा से चलकर दिल्ली में पहुंचती हो। ऐसे में पड़ोसी राज्य किसी भी दिशा में स्थित हों, वहां फसल के जलाते ही धुंआ सीधा दिल्ली तक पहुंचता हो, यह संभव नहीं लगता। दिल्ली वासियों का अनुभव ठीक इसके उल्टा है, सर्दियों में शिमला में बर्फबारी होती है तो कुछ घंटों के अंदर ही दिल्ली का तापमान गिर जाता है। दिल्ली की हवा तो हर एक दिन प्रदूषित रहती है, पर फसलों के अपशिष्ट का जलना तो कुछ समय के लिए ही होता है।
दिल्ली में यमुना के डूब क्षेत्र में बड़े पैमाने पर खेती की जाती है और खेती करने वाले लोग इसी क्षेत्र में रहते भी हैं। यमुना नदी पर बने किसी भी पुल को शाम के समय जब पार करते हैं तब धुंए की मोटी चादर इस पूरे क्षेत्र पर दिखाई देती है। यहां कृषि अपशिष्ट जलता है, साथ ही सभी घरों में लकड़ी को चूल्हे में जलाया जाता है। यमुना के ठीक किनारे होने और जंगली बबूल की घनी झाड़ियों के कारण यहां नमी ज्यादा रहती है और शाम से सुबह तक तापमान अपेक्षाकृत कम रहता है, इसलिए धुंआ धीरे-धीरे फैलता है। दिल्ली के प्रदूषण की चर्चा तो खूब की जाती है, पर प्रदूषण के इस स्त्रोत की कभी कोई चर्चा नहीं होती।
ऐसा नहीं है कि चारों तरफ से पड़ोसी राज्यों की प्रदूषित हवा दिल्ली में आकर ठहर जाती हो। यहां की अत्यधिक प्रदूषित हवा भी तो किसी पड़ोसी राज्य में ही जाती होगी, पर यह चर्चा कभी नहीं की जाती कि पड़ोसी राज्यों के प्रदूषण में कितना योगदान दिल्ली का है? दिल्ली में आमतौर पर आनन्द विहार का क्षेत्र वायु प्रदूषण के संदर्भ में सर्वाधिक प्रदूषित रहता है। आनन्द विहार और उत्तर प्रदेश के बीच में एक सड़क का अंतर है। क्या वायु प्रदूषण भी अपनी सीमा जानता होगा और आनन्द विहार का प्रदूषण साहिबाबाद और गाजियाबाद में नहीं जाता होगा?
कुछ सप्ताह पहले ही तत्कालीन पर्यावरण मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने दिल्ली में वायु प्रदूषण के विषय पर सभी पड़ोसी राज्यों के पर्यावरण मंत्रियों की एक बैठक बुलाई थी और इसमें किसी राज्य के मंत्री नहीं पहुंचे। दरअसल, ये बैठकें और केन्द्रीय बोर्ड की टीमें इसलिए नहीं हैं कि दिल्लीवासियों को वायु प्रदूषण से मुक्ति मिले। अक्टूबर-नवंबर के दौरान दिल्ली में फीफा (फुटबाल) के अंडर-17 वर्ल्ड कप के मैच होने हैं, यह सारी सक्रियता सिर्फ इसीलिए है। विदेशी लोगों को प्रदूषण नहीं महसूस होना चाहिए, दिल्लीवासी तो प्रदूषण से मरते ही रहते हैं।
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