मुजफ्फरनगर में जाटों-मुसलमानों को करीब लाने की मुलायम सिंह की पहल, लेकिन क्या मिट पाएगी 2013 के दंगों के बाद पैदा हुई खाई?
27 दिसंबर को समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव के घर पर हुई एक बैठक में मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जाटों-मुसलमानों के बीच पैदा हुई खाई को पाटने के लिए एक समिति बनी। लेकिन क्या वे कामयाब हो पाएंगे?
27 दिसंबर को समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के घर पर मुजफ्फरनगर दंगे के बाद जाटों और मुसलमानों के बीच पैदा हुई रंजिश को खत्म करने के लिए एक बैठक हुई थी।
31 दिसंबर को मुजफ्फरनगर में भी एक बैठक का आयोजन हुआ जिसमें दिल्ली में बनी समिति का विस्तार किया गया। इस बैठक में पूर्व सांसद कादिर राणा और अमीर आलम खान ने भी शिरकत की। पूर्व सांसद अमीर आलम को दंगा कराने का मुख्य आरोपी माना गया था और जाटों के बीच वे खलनायक बन गए थे।
जाटों और मुसलमानों के बीच पैदा हुई खाई को पाटने के लिए बनी यह समिति क्या जमीन पर काम कर पायेगी और क्या मुलायम सिंह यादव अपने मकसद में कामयाब हो पाएंगे? यह जानने के लिए हमने मुजफ्फरनगर में कई लोगों से बात की। 2013 में जब मुजफ्फरनगर में दंगा हुआ तो दुनिया भर में इस शहर की बदनामी हुई थी। लाखों लोग बेघर हुए, 100 से ज्यादा लोग मारे गए (बाद में लापता लोगों को भी मृतक मान लिया गया), डर का एक साम्राज्य कायम हो गया और कानून का राज कमजोर पड़ता दिखाई दिया।
दंगे के बाद हुए महापंचायत में शामिल तमाम बीजेपी नेता चुनाव लड़कर माननीय बन गए, मगर जनता को क्या मिला? मुसलमान और जाट एकता बिखर गई और पूरी फिजा जहरीली हो गयी। स्थानीय निवासी अशोक बालियान कहते है, “दोनों पक्ष बरबाद हो गए और दोनों तरफ से भारी नुकसान हुआ।”
जाटों के खिलाफ दर्ज मुकदमों में 2 हजार से ज्यादा लोगों को नामजद किया गया। मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा हुई, उनके घर जला दिए और उनकी हत्याएं की गईं। दोनों तरफ के लोग तबाह हुए। अब समझौते के प्रयास हो रहे है, ऐसा होना भी चाहिए। लेकिन इसके लिए बनाई गई समिति में उन लोगों को होना चाहिए, जिन्होंने दंगे के बाद लोगों की परेशानी को समझा और उनके लिए काम किया। अचानक से कोई आ जाए और नेता बनने की कोशिश करने लगे तो उनसे यह तो पूछा जाना चाहिए कि जब आपकी जरूरत थी तो आप कहां थे ?
स्थानीय निवासी शिद अली खोजी कहते हैं, “चलिए ठीक है मुसलमान समझौता कर लेंगे, मगर क्या उनको न्याय नहीं मिलेगा? अब तक उनके खिलाफ जो अत्याचार हुआ है उसका क्या होगा? कवाल वाले प्रकरण में शाहनवाज के भाइयों की अब तक जमानत भी नहीं हुई, जबकि कई लोग ऐसे हैं जो मुकदमों में बरी भी हो गए।”
अब अगर समझौते की बात हो तो पहले मुझेड़ा, पुरबालियान और कवाल में मुसलमानों के खिलाफ दर्ज हुए मुकदमे वापस लिए जाएं। मुजफ्फरनगर दंगों में कुल 639 मुकदमे दर्ज किए गए थे, जिनमें 2000 से ज्यादा जाट समुदाय के लोग नामजद हैं। शाहपुर के करीब बसी गांव में रहने वाले कुटबा के 17 साल के नदीम ने कहा, “मैं उस दिन के बाद कभी कुटबा नहीं गया और न कभी जाऊंगा। मेरे घरवाले मर गए, मुलायम सिंह कैसे समझौता कर लेंगे?”
मुसलमानों में भी अलग-अलग राय है। भारतीय किसान मजदूर संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष गुलाम मोहम्मद जौला समझौते के पक्ष में है। वे कहते हैं, “जाटों और मुसलमानों में ऐतिहासिक एकता रही है। बीजेपी के जो नेता इस दंगे में नामजद थे, सरकार उनके मुकदमे वापस ले रही है। जनता अकेले पिसने के लिए रह गई है। वक्त की जरूरत है कि नफरत खत्म हो जाये।”
इस समिति में कुछ लोगों के नाम जोड़े गए हैं। इनमें नरेश टिकैत, नाहिद हसन का नाम भी शामिल है। नरेश टिकैत इस समय भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष हैं। हालांकि वे बैठक में नहीं आए। नाहिद हसन और नरेश टिकैत दोनों ने इस मुद्दे पर अभी कुछ कहने से इंकार कर दिया। जानसठ के मौलाना नजीर ने कहा, “समझौते की सूरत क्या है, वे शर्ते तो सामने आनी चाहिए। अमन निहायत जरूरी है, मगर जालिम को सजा मिले।”
समिति में शामिल होने वाले पूर्व सांसद कादिर राणा और पूर्व सांसद अमीर आलम पर भी सवाल उठ रहे हैं। बुढ़ाना के दंगा पीड़ित मुस्तकीम कहते हैं, “दंगे के दौरान यह दोनों नेता ढूंढने से भी नहीं मिले, जब हम मुसीबत में थे तो अमीर आलम के बेटे नवाजिश आलम ने अपना फोन भी बंद कर लिया था। जब हमें जरूरत थी तो दड़बे में घुस गए थे।”
उन्होंने कहा, “यही हाल पूर्व सांसद कादिर राणा का था, इसलिए तो वे बुढ़ाना और चरथावल में विधानसभा का चुनाव बुरी तरह हार गए। नवाजिश भी मीरापुर का चुनाव हार चुके हैं। इनके पैर के नीचे की जमीन निकल गई है।” मुस्तकीम ने आगे कहा, “समझौते में बुराई नहीं है, मगर यह सिर्फ उन्हीं के साथ हो जो गलत नामजद हुए हैं। निर्दोष कोई भी हो, चाहे जाट ही हो, उसके साथ ज्यादती नहीं होनी चाहिए।”
हारून कहते हैं, “गांव में हम वापस नहीं जाएंगे। किसी के भी कहने से नहीं, नेताओं ने हमारे लिए कुछ नहीं किया है। मुजफ्फरनगर के दंगा पीड़ित अब तक हुए प्रयासों के बाद भी वापस जाना नहीं चाहते हैं।” शाहपुर के राशिद अजीम दिल्ली और मुजफ्फरनगर दोनों जगह हुई बैठक में शामिल थे और उन्हें समझौता समिति में भी शामिल किया गया है। वे कहते हैं, “फैसले में किसी के मान- सम्मान को ठेस नहीं पहुंचेगी। यह जरूरी है और अच्छा प्रयास है।” दरअसल लोगों में कई तरह की नाराजगी है। इस दंगे में मुसलमानों के लिए जमीयत-उलेमा-ए-हिन्द ने काम किया, मगर उन्हें इस बैठक की जानकारी ही नहीं थी। यही नहीं मुजफ्फरनगर दंगे में मुसलमानों के प्रतिनिधि के तौर पर मुलायम सिंह यादव नजदीक के रहने वाले एमएलसी आशु मलिक तक इस बैठक में शामिल नहीं हुए।”
लोई में रहने वाले फुगाना के दंगा पीड़ित अफसर खान कहते हैं, “फैसला जनता करेगी, नेता नहीं। इनकी सियासत ने ही तो यह दिन दिखाया है, हम इनकी बातों को नहीं मानते।” इस समझौते की पहल विपिन बालियान ने की है। वे जाटों के एक संगठन के अध्यक्ष हैं, लेकिन जाटों में ही उन पर सहमति नहीं बन पा रही है।
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