रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड और ट्रैफिक सिग्नल पर दिखने वाले हजारों बच्चे लॉकडाउन में हो गए गायब, आखिर गए कहां ?  

यह किस्सा है तो कानपुर का लेकिन कहीं का भी हो सकता है। सुषमा (बदला हुआ नाम) नौ साल की है। उसने दो दिनों से अन्न का एक दाना भी मुंह में नहीं डाला। उसके पिता दैनिक मजदूरी कर परिवार का गुजारा करते रहे थे लेकिन लाकॅडाउन के दौरान उसका काम-धाम ठप है।

फोटो: सोशल मीडिया
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विश्वजीत बनर्जी

यह किस्सा है तो कानपुर का लेकिन कहीं का भी हो सकता है। सुषमा (बदला हुआ नाम) नौ साल की है। उसने दो दिनों से अन्न का एक दाना भी मुंह में नहीं डाला। उसके पिता दैनिक मजदूरी कर परिवार का गुजारा करते रहे थे लेकिन लाकॅडाउन के दौरान उसका काम-धाम ठप है। वे लोग शहर में स्वयंसेवी संगठनों या सरकार द्वारा संचालित कम्युनिटी किचेन से मिलने वाले भोजन के भरोसे रहते हैं। दो दिनों से वे नहीं आए, तो उनके पेट में भी कुछ नहीं गया। भूख बर्दाश्त से बाहर हो गई, तो सुषमा ने अपनी मां से कुछ भी खाने देने को कहा। बेबसी- निराशा-हताशा में ही सही, उसकी मां ने उसकी बुरी तरह पिटाई कर दी। सुषमा की चीखों ने आसपास के लोगों का ध्यान खींचा और उनलोगों ने एक एनजीओ को उसके बारे में सूचना दे दी।

दरअसल, निर्दोष बच्चे इस लाकॅडाउन के सबसे अधिक शिकार हैं। इस तरह के आय वर्ग वाले परिवारों के बच्चे तो सबसे अधिक। अगर वे सड़कों पर रह रहे हैं, तब तो हाल समझा ही जा सकता है, अगर उनके सिर पर किसी तरह की छत है, तब भी भूखे रहना और इस वजह से उनका लगातार चिड़चिड़े होते जाना स्वाभाविक ही है। सामान्य दिनों में भी ऐसे सभी बच्चों को खाना-पानी के लिए किस तरह भटकना पड़ता है, शायद इसका अंदाजा हम सबको है। यह बात भी छिपी नहीं है कि इनके साथ किस तरह का शाब्दिक और शारीरिक अत्याचार होता है- खास तौर से बालिकाओं के साथ।

लखनऊ में बाल कल्याण समिति की सदस्य संगीता शर्मा कहती भी हैं कि ये बच्चे परिवार के अंदर भी हिसां के निशाना सबसे अधिक बनते हैं। बंद दरवाजों के पीछे हिसां बढ़ती ही है लाकॅ डाउन में। वह कहती हैं कि ये बच्चे अपने हमउम्र बच्चों की कमी इन दिनों सबसे अधिक महससू कर रहे हैं। सामान्य दिनों में उनके मां-बाप इतने समय तक इनके साथ नहीं रहते। लेकिन ऐसे वक्त ने उनकी लाइफस्टाइल बदल दी है। एक तरह से, उनकी आजादी ही खत्म हो गई है और उन पर तरह-तरह की पाबंदियां लाद दी गई हैं। मां-बाप खुद तनाव में हैं और इसीलिए वे बच्चों पर चिल्लाते हैं, उन्हें पीटते हैं। वह कहती हैंः शहर के हर लेन, हर हिस्से का यही हाल है लेकिन हम चाहकर भी इन बच्चों की कोई मदद नहीं कर पा रहे हैं।


विशेषज्ञ लाकॅ डाउन के दौरान बच्चों पर बढ़ती हिसां के लिए गरीबी, घरेलू हिसां, बच्चों के समय बिताने के लायक जगहों की कमी और शराब को जिम्मेवार ठहराते हैं। घरेलू हिसां का प्रभाव बच्चों के मनोविज्ञान पर भी पड़ रहा है। वे हर वक्त भय के आगोश में रह रहे हैं।

और ऐसा ऐसा लगभग सभी वर्गों के बच्चों के साथ हो रहा है। घरेलू हिसां की घटनाएं निरंतर बढ़ती ही जा रही हैं। उत्तर प्रदेश में 1090 विमेन पावरलाइन का नेतृत्व कर रहीं अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक अंजु गुप्ता कहती हैं कि पहले हम महिलाओं के साथ घरेलू हिसां से संबंधित लगभग 7,100 काॅल रोज रिसीव कर रहे थे जिनकी संख्या इस लाकॅ डाउन के दौरान बढ़कर करीब 8,700 हो गई है। उन्होंने कहाः यह सच है कि लाकॅ डाउन के दौरान बच्चों के साथ हिसां की शिकायतें ज्यादा नहीं आ रही हैं, पर इसका मतलब यह नहीं है कि उनके साथ हिसां की घटनाएं कम हो गई हैं। हमें इनकी संख्या अधिक होने का संदेह है, पर इस वक्त हमारे पास सूचना नहीं है और इसलिए हम उनकी तात्कालिक मदद के लिए उनके पास नहीं पहुंच पा रहे हैं।

सेव द चिल्ड्र्ने के सुरोजीत चटर्जी ने कहा कि लाकॅ डाउन को बढ़ाए जाने से बच्चों के लिए जीवन अधिक कठिन हो गया है। सामान्य बच्चों को भी पढ़ने के अलावा तो कोई काम है नहीं- स्कूल में सिर्फ पढ़ाई नहीं होती, बच्चे खेलते- कूदते हैं, आपस में बातचीत करते हैं, छोटे बच्चे भी अपने दोस्तों से मन की बात कहते हैं। लेकिन इन दिनों वे, बस, चारदीवारियों में कैद हैं- वहां भी रोज एक ही रूटीन है। सरिता (बदला हुआ नाम) पढ़ने के लिए लखनऊ आई थी और हाॅस्टल में रहती थी। लाकॅ डाउन अचानक ही लग गया, तो वह अपनी एक परिचित आंटी के यहां चली गई। थोड़े दिनों बाद ही वहां उसके साथ व्यवहार बदल गया और उसकी पिटाई भी हो गई। उसने पुलिस को काॅल कर दिया। पुलिस ने चाइल्डलाइन को सूचना दी और उसने मामले को बाल कल्याण समिति को सौंप दिया।

एक अन्य मामला 12 साल के रमेश (बदला हुआ नाम) का है। वह ऐसे गरीब परिवार का है जिसे दो जून की रोटी के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है। हाल में उसके पिता नशे में घर लौटे और पति-पत्नी में किसी बात पर बहस हो गई। जब रमेश ने हस्तक्षेप किया तो धुत बाप ने उसकी पिटाई कर दी।

चाइल्डलाइन इंडिया के अनुसार, लाकॅ डाउन के शुरुआती 21 दिनों में उसने 4.6 लाख शिकायतें दर्जकीं। इनमें से 9,385 मामलों में ही प्रत्यक्ष तौर पर हस्तक्षेप किया जा सका। इनमें से 20 प्रतिशत मामले बच्चों से दुर्व्यवहार के थे। चाइल्डलाइन के लोग भी मानते हैं कि बड़ी संख्या ऐसे बच्चों की होगी जो किसी तरह कहीं भी शिकायत करने की हालत में नहीं होंगे- हो सकता है, उनके पास मोबाइल फोन नहीं हों या फिर, दोस्त, शिक्षक या संबंधित वयस्कों तक उनकी पहुंच ही नहीं हो। संगठन के एक प्रवक्ता ने कहाः न सिर्फ हमें कम सूचनाएं मिल रही हैं बल्कि बच्चों को राहत पहुंचाना भी कठिन हो गया है; कहीं आना-जाना और संपर्क साधना मुश्किल है; लोग अपने आप को सीमित दायरे में रख रहे हैं और बाहरी लोगों को आना भी लोगों ने प्रतिबंधित कर रखा है।


दिल्ली में स्ट्रीट चिल्ड्रेन के बीच काम कर रहे सलाम बालक ट्रस्ट (एसबीटी) के अंजनी तिवारी का कहना है कि किसी भी तरह की हिसां बच्चों के संपूर्ण विकास पर गहरा असर डालती है। दुर्व्यवहार बच्चोंके स्वास्थ्य, जिजीविषा, विकास और सम्मान पर वास्तविक या संभावित असर डालता है। तिवारी कहते हैं कि इन बच्चों के लिए स्टेडियम, रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन ही घर होते हैं। वे वहीं रहते हैं, आसपास झाड़ू वगैरह लगाकर या मांग कर रोटी का जुगाड़ करते हैं। अपने आसपास होने वाले लड़ाई-झगड़े के बीच ही वे पलते-बढ़ते और जीते हैं।

तिवारी ने बताया कि लाकॅ डाउन के तीसरे दिन उन्होंने जमुना बाजार के पास इन बच्चों को आसपास से गुजरने वाली गाड़ियों पर पत्थर फेकते देखा। यह विदड्राॅवल सिम्पटम है। उन्हें नशे का सामान दो दिनों तक नहीं मिला, तो वे अपना गुस्सा इस तरह निकालने लगे। ऐसे बच्चे इन दिनों नहीं दिख रहे और तिवारी इसे लेकर चितिं त हैं। वह कहते हैं कि रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, मंदिर- सब बंद हैं, तो, आखिर, वे गए भी कहां होंगे। ऐसे बच्चों को मेडिकल मदद की तत्काल जरूरत है। पर यह देगा कौन

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