CAA में वाजपेयी ने भी किया था संशोधन, मोदी-शाह की नीयत मुस्लिमों को अलग-थलग करने की है
वाजपेयी सरकार ने 2003 में नागरिकता कानून में संशोधन किया था। लेकिन तब बीजेपी ने कोई संकेत नहीं दिया था कि उनका संविधान के अनुच्छेद-14 को धता बताते हुए धार्मिक उत्पीड़न के आधार पर कथित अवैध प्रवासियों को नागरिकता देने के लिए आगे कोई संशोधन लाने की योजना है।
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर हिंदू समुदाय के अधिकांश हिस्से में अब भी यह भ्रम है कि इस संशोधन के बाद वे एनआरसी की परीक्षा आसानी से पास कर जाएंगे। लेकिन यह समझने की जरूरत है कि एनआरसी और सीएए दो बिल्कुल विपरीत ध्रुव वाली प्रक्रियाएं हैंः इनमें सिर्फ एक बात समान है कि दोनों विशेषतया निष्कासन के तरीके और भारत की एकता में दरार का उपयोग करते हैं।
अमित शाह और पूरी बीजेपी हिंदू वोटरों, खास तौर से शरणार्थियों, के दिमाग में यह बात भरने के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं कि हम अफगानिस्तान, बांग्लादेश या पाकिस्तान से आने वाले वहां के अल्पसंख्यक समुदायों के वैसे लोगों को नागरिकता दे रहे हैं, जिन्होंने 31 दिसंबर, 2014 या उससे पहले भारत में प्रवेश किया और उन लोगों को इन तीन प्रावधानों से मुक्त कर दिया जाएगा जिसके तहत इन्हें पहले के कानून के तहत अवैध प्रवासी माना जाता- केंद्र सरकार द्वारा या पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) कानून-1920 की धारा 3 की उपधारा (2) के अनुच्छेद (सी) के अंतर्गत या फाॅरेनर्स कानून, 1946 के प्रावधानों के तहत आवेदन से या इनमें से किसी कानून या आदेश से।
चार महत्वपूर्ण बिंदु हैं जिन्हें ठीक से देखने की जरूरत हैः पहला- ये लोग इन तीन देशों के नागरिक थे; दूसरा- इन लोगों ने निश्चित ही 31 दिसंबर, 2014 या उससे पहले भारत में प्रवेश किया; तीसरा- ये लोग इन तीन देशों में धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय से हैं; चौथा- ये लोग वहां धर्म के आधार पर प्रताड़ना की वजह से इन देशों से शरण के लिए भागकर आए और भारत में तब भी रुके रहे जबकि यात्रा के उनके दस्तावेज की समयावधि समाप्त हो गई या उनके पास अपूर्ण दस्तावेज थे या कोई दस्तावेज नहीं था।
लेकिन आम भारतीय के लिए, यह समझना मुश्किल है कि उनके कानून में क्या है, क्योंकि कोई भी कानून अपने आप में पूरा नहीं है। हर कानून में कई संशोधन हुए हैं और आपको कोई भी कानून कई-कई धाराओं, उपधाराओं, अनुच्छेदों, नियमों, आदेशों, संशोधनों, अधिमानों, न्यायिक आदेशों आदि के साथ पढ़ना होगा। ऊपर में जिस पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) कानून की धारा-3 की उपधारा (2) के अनुच्छेद (सी) की चर्चा की गई है, उसमें कहा गया है कि इस तरह के नियमों के प्रावधान से किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के वर्ग को पूरी तरह या किसी आधार पर मुक्ति के लिए साक्ष्य उपलब्ध कराना होगा।
इससे साफ है कि किसी दस्तावेज या जांच के बिना लोगों को नागरिकता नहीं दी जा सकती। बिल में यह भी लिखा है कि इस आधार पर इस अनुभाग के तहत नागरिकता के लिए आवेदन करने के लिए इस तरह के व्यक्ति को अयोग्य नहीं कहा जा सकता कि उसके खिलाफ कार्यवाही लंबित है और इस आधार पर उसका आवेदन केंद्र सरकार या उसके द्वारा नामित अधिकारी अस्वीकार नहीं करेगा, अगर वह इस धारा के अंतर्गत नागरिकता देने में भिन्न प्रकार से अयोग्य नहीं हो।
अगर सत्यापन की प्रक्रिया में छूट भी दी जाती है, और वह सहिष्णु और समाहित करने वाली भी होती है, तब भी लोगों को नागरिकता के लिए आवेदन देने के योग्य होना होगा। लेकिन ऐसे मामले में भी दूसरे किस्म की समस्या आएगी जिसकी असम के लोगों को आशंकाएं हैं। अगर कट ऑफ डेट (वह तिथि जिससे नागरिकता दी जाएगी) का ध्यान नहीं रखा जाता और उनका कड़ाई से सत्यापन नहीं किया जाता, तो करोड़ों हिंदू भारत में प्रवेश कर सकते हैं, क्योंकि इतना सब कुछ होने के बाद इन देशों के मुस्लिम कट्टरपंथी धार्मिक अल्पसंख्यकों को वह देश छोड़ने पर मजबूर कर सकते हैं और इस दबाव को झेलना असम और पश्चिम बंगाल के लिए सचमुच मुश्किल हो जाएगा।
भारत में प्रवेश की तिथि का प्रमाण, हिंदू (धर्म का) होने का प्रमाण, इन तीन देशों से आने लेकिन कोई प्रमाण न होने और वास्तविक तथा मौलिक भारतीय नागरिक को अलग करना सीएए से संबद्ध प्रमुख मुद्दे हैं। ऐसा लगता है कि डी (संदेहास्पद) वोटरों और संदिग्ध विदेशियों के खिलाफ लंबित मामलों को छूट दी जाएगी। लेकिन घोषित विदेशियों के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। रजिस्ट्रेशन प्रमाण पत्र और देशीकरण के प्रमाणपत्र के बीच समय का कितना अंतर रखा जाना चाहिए, यह अभी पता नहीं है। लेकिन सिर्फ यही समस्या नहीं है।
असम में लाखों हिंदू बांग्ला शरणार्थियों ने आवेदन किया, लेकिन अंतिम एनआरसी सूची से उन्हें बाहर रखा गया। अब संशोधित कानून के जरिये उन्हें नागरिकता के लिए आवेदन का अवसर मिलेगा। सीएए के प्रावधानों का लाभ उठाने के लिए उन्हें पुनः दावा करना होगा कि वे वस्तुतः भारतीय नहीं हैं। भारतीय नागरिकता प्रमाणित करने का एक प्रयास और फिर, भिन्न देश में उसी व्यक्ति की नागरिकता को प्रमाणित करने का प्रयास- दोनों के बीच कोई द्वंद्व या मतभिन्नता है या नहीं, यह अभी पता नहीं है। लेकिन वे कानून की नजर में अपनी विश्वसनीयता तो खो ही देंगे।
जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, उन्होंने नागरिकता कानून में संशोधन का लाभ सबसे पहले समझा था। वाजपेयी ने ही 2003 में इस कानून में संशोधन किया। उन्होंने नागरिकता देने के पुराने नियम- क्षेत्र में जन्म के अधिकारों के आधार पर नागरिकता, को खून के आधार पर नागरिकता के अधिकार में बदला था। उन्होंने कई और संशोधन भी किए। लेकिन वाजपेयी ने कभी संकेत नहीं दिया कि उन लोगों की संविधान के अनुच्छेद 14 को धता बताते हुए धार्मिक उत्पीड़न के आधार पर कथित अवैध प्रवासियों को नागरिकता देने के लिए कानून में आगे भी संशोधन की कोई योजना है। इसलिए यह संशोधन तो निश्चित तौर पर नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी के दिमाग की खतरनाक उपज है।
कोई नहीं जानता कि इन लोगों के दिमाग में आगे के लिए क्या है। यहां तक कि कानूनी विशेषज्ञ भी भ्रमित हैं। लेकिन एक बात साफ है कि यह सब कुछ पहले से सोचा-भाला था। आम धारणा है कि सरकार और संघ परिवार उस भीड़ में अपने लोगों को शामिल करा रहे हैं जो हिंसा फैला रही है। यह सब देश की मुस्लिम आबादी को और अलग-थलग करने की नीयत से किया जा रहा है। भारत खौफनाक भविष्य की तरफ बढ़ रहा है और यह विभाजन से भी गहरा जख्म देने वाला होगा। पीढ़ी- दर-पीढ़ी उस अंधकारमय भविष्य में डूबती जाएगी, जिसकी कोई सुबह नहीं दिखती।
(नवजीवन के लिए पार्था प्रतीम मोइत्रा की रिपोर्ट)
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