उत्तराखंड: आपदाग्रस्त पहाड़ में आफत की बरसात

1973 में जब रैणी, रामपुर फाटा और भौंस के जंगलों में पेड़ों की सामत आयी तो 200 पेड़ कटने पर गौरादेवी का चिपको आंदेलन शुरू हो गया था। इधर आल वेदर रोड के लिए 40 हजार पेड़ों की बलि दी जा रही है और तमाम विकासपुरुष ताली बजा रहे हैं।

फोटो: दिनेश जुयाल
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दिनेश जुयाल

बरसात का मौसम है और इन दो ढाई महीनों में उत्तराखंड के पहाड़ों में आफत बरसती है और ये आपदा प्रदेश बन जाता है। हर साल आपदाग्रस्त और भुतहा गांवों की संख्या बढ़ रही है। यात्रा के लिए यहां आने वाले लोग ही नहीं यहां के मूल निवासी भी इन दिनों पहाड़ चढ़ने से परहेज करते हैं। कच्चे पैदल मार्ग भी टूट जाने से मरीजों को अस्पताल तक ले जाना मुश्किल है। कोई महिला कई मील चल कर अस्पताल के रास्ते में बच्चे को जन्म दे रही है तो कई घायल और बीमार वहां तक जाने के लिए सांसे नहीं बचा पा रहे हैं। खतरे की जद में आने के बाद लोग घर गांव छोड़ कर राहत शिविरों में रह रहे हैं तो कई हजार की आबादी सड़के टूट जाने से अपने इलाके में बंधी सी है। कुल मिलाकर कभी जिस पहाड़ की हरियाली बरसात में देखते ही बनती थी अब बरसात उससे मोहभंग होने की सीजन बन गया है।

देहरादून के मैदान में विराजमान उत्तराखंड सरकार चैन से है कि इस बार प्रदेश में बारिश से हादसों में मरने वालों की संख्या दो महीने में 50 भी नहीं पहुंची (सड़क हादसे इसमें शामिल नहीं हैं)। चारधाम यात्रियों की संख्या भी 14 लाख से ऊपर हो चुकी है, जबकि पिछले साल पूरे सीजन में 15 लाख ही लोग आए थे। अब जून-जुलाई की बारिश है तो बादल भी फटेंगे और धरती भी धसेगी ही। 2013 के केदारनाथ हादसे के बाद चार धाम यात्रा का ट्रेंड बदल गया। ज्यादातर लोग 13-14 जून तक यहां से लौट जा रहे हैं। पिछले 30 दिन में 32 हजार से भी कम यात्री बद्रीनाथ केदारनाथ गए। सिरोबगड़, लामबगड़ के अलावा भी दर्जनों ऐसे स्थान हैं जहां आज मलबा साफ करो, कल फिर सड़क बंद हो जाती है। कभी थिरंग तो कभी डाबरकोट में सड़क धंस जा रही है।

जिस तरह से गडकरी जी की आल बेदर रोड बन रही है उस हिसाब से कई और ऐसे प्वाइंट तैयार हो रहे हैं। पिथोरागढ़, चमोली और उत्तरकाशी में बादल फटने से तबाही हुई लेकिन इतनी भी नहीं कि केदारनाथ, मालपा, कुंथा या तवाघाट जैसी कोई बात हुई हो कि राष्ट्रीय मीडया की सुर्खियों में आएं। सड़क से 22 किलोमीटर दूर पिथोरागढ़ के सीमांत कुटी गांव का पुल, फूलों की घाटी का निर्माणाधीन 22 करोड़ का 130 मीटर लंबा पुल ही नहीं देहरादून के टपकेश्वर मंदिर में भी एक पुल बह गया। इस साल सोल क्षेत्र के 16 गांव भी आपदाग्रस्त क्षेत्र में आ गए। गांव के गांव खाली हो रहे हैं। 2011 की गणना में यहां 1,053 भूतिया गांव (जहां अब मनुष्य नहीं रहते) थे। अब इनकी संख्या 16,793 हो चुकी है। आपदाग्रस्त गांवों का सरकारी आंकड़ा कुछ सौ में ही होगा लेकिन 2013 के बाद के बाद इनकी संख्या पुनर्वास कार्य के बाद भी तीन हजार से तो ऊपर होगी ही। 2011 में सरकार ने पहले 395 ऐसे गांव चुने थे बाद में 250 के पुनर्वास का निर्णय लिया गया। केदारनाथ हादसे के वक्त ही 4200 के करीब गांव तबाह हुए थे। पुरानी लिस्ट के गांवों के सैकड़ों परिवारों में से 188 का ही पुनर्वास हो पाया है। 2013 में प्रभावित चकराता के मौसासा गांव में तो अब तक घरों में मलबा भरा पड़ा है।

फोटो: दिनेश जुयाल
फोटो: दिनेश जुयाल

कैसे जीते हैं, कैसे मरते हैं

पहाड़ के लोग बरसात में कैसे जीते हैं इसके लिए कुछ खबरें जो हाल में सामने आई है। बागेश्वर के कुंवारी गांव में प्रसव पीड़ा होने पर गांव के लोग लकड़ी का स्ट्रेचर बना कर 26 साल की अमिता को पहले दिन 12 किलोमीटर दूर दूसरे गांव उसकी बुआ के घर लाए। अगले दिन 5 किलोमीटर और चल कर उसे दूसरे जिले में थराली अस्पताल लाया गया। दो दिन प्रसव पीड़ा में रही अमिता खुशनसीब है कि सकुशल प्रसव के बाद अपने गांव लौट गई है।

जोशीमठ के ठीक सामने है थैंग गांव। अस्पताल यहां से 13 किलोमीटर दूर है। मलबा आने से रास्ता कई जगह बंद हो गया है, एक पुल था वह भी गया। यहां के लोग जिस तरह अपनी जान हथेली पर रख कर मरीज को अस्पताल तक लाए उसका वीडियो रोंगटे खड़े कर देता है। देवग्राम की महिला को गांव वाले किसी तरह जोशीमठ ला रहे थे रास्ते में ही प्रसव हो गया। ये सड़क पर जन्म लेने की घटनाएं यहां आम हैं और वह भी तबाही वाली बरसात में।

पिथौरागढ़ की घारचूला तहसील ताजम गांव में एक व्यक्ति बीमार पड़ता है। डेढ़ महीने से यहां का पैदल मार्ग भी कई जगह टूट गया है। कहीं पर डोली में बैठाकर तो कहीं पर कंधे पर लाद कर किसी तरह मरीज को 7 किलोमीटर दूर अस्पताल तक लाया गया।

पहाड़ के इस पहाड़ जैसे जीवन की ऐसी तस्वीरें आज कल स्थानीय अखबारों और सोशल मीडिया पर खूब दिखती है। यूं उत्तराखंड में आपदा के लिए हेली सेवा समेत कई सरकारी व्यवस्थाएं है लेकिन हेलीकाप्टर तभी उड़ता है जब कोई बड़ा आदमी हो या बड़ा हादसा हो। प्रसिद्ध लोकगायिका कबूतरी देवी को गंभीर हालत में पिथौरागढ़ से नैनीसैनी हेलीपैड तक लाया तो गया लेकिन तीन घंटे तक हेलीकाप्टर नहीं उड़ा और उन्हें वापस पिथौरागढ़ ले जाकर मृत घोषित कर दिया गया।

आल वेदर रोड

केंद्र सरकार ने उत्तराखंड को आल वेदर रोड का तोहफा दिया है। चारधाम यात्रा को सुगम बनाने के इस अभियान का खाका जब जाहिर हुआ तो पत्रकार सुशील बहुगुणा ने भूगर्भ-विज्ञानियों और पर्यावरणविदों की राय के साथ एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की। जिसका मकसद यह बताना था कि इस सड़क को बनाने में कितना एहतियात बरतने की जरूरत है। कच्चे पहाड़ों को बेदर्दी से छीलने का मतलब बड़ी आपदा को निमंत्रण देने जैसा है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भी एक बार इस सड़क के बारे में आ.. छीं कह कर चुप हो गए। उनकी आपत्ति पर उन्हें दिल्ली से जुकाम खत्म करने की दवा दे दी गई। हाल में रुद्र प्रयाग के डीएम मंगेश कुमार एक पैच पर निर्माण कार्य का जायजा लेने पहुंचे तो यहां काम कर रही कंपनी आरजेबी के लोग उन्हें अपने मानक तक नहीं बता पाए। एन एच के अधिकारी जो हो रहा है उसकी तरफ से मुंह फेरे खड़े हैं। गलत कटान पर डीएम तो डाट-डपट पर चले आए लेकिन हर जगह काम ऐसे ही हो रहा है। देव प्रयाग, तीन धारा समेत अनके जगहों पर नए भूस्खलन जोन तैयार हो रहे हैं। मजेदार बात ये है कि आल वेदर रोड तो बन रही है लेकिन पुराने मार्ग के गड्ढे भरने के लिए पैसे नहीं है। धुमाकोट में हाल ही में बस खाई में गिरने से 48 लोगों की मौत हो गई। पिछले 18 साल में पहाड़ों में इस तरह के हादसों में मरने वालों की संख्या 15,821 तक पहुंच गई है।

पेड़-पौधे अपनी जड़ों से पहाड़ को पकड़ कर धसकने के रोकते हैं। यहां के लोग पेड़ों का महत्व जानते हैं 1973 में जब रैणी, रामपुर फाटा और भौंस के जंगलों में पेड़ों की सामत आयी तो 200 पेड़ कटने पर गौरादेवी का चिपको आंदेलन शुरू हो गया था इधर आल वेदर रोड के लिए 40 हजार पेड़ों की बलि दी जा रही है और तमाम विकासपुरुष ताली बजा रहे हैं।

पहाड़ का हाल जानना है तो किसी भी सीमांत जिले पर एक सरसरी नजर डाल लीजिए। 20 जुलाई को नीति घाटी में आफत बरसी चार जानें गई। चमोली के घाट क्षेत्र में मोख मल्ला, कुंडी झालिया, ढाढरबगड़ आदि गांवों में करीब 50 से ज्यादा घर मलबे में दबे हैं। बगड़ में दस दुकानें और छह वाहन बह गए। जिले के 9 बड़े पुल और 22 पुलिया ध्वस्त हो चुकी हैं। 2013 में बहे 7 पुल अभी तक नहीं बने। बांझबगड़ और वाण के लोगों ने तो खुद ही अपने लिए काम चलाऊ पुल बना लिए हैं। मलारी रोड पर सेना और आईटीबीपी के वाहनों के लिए सड़क नहीं है

कुमाऊं मंडल में 15 लोगों की मौत हो चुकी है, कई घायल हैं। 2 जुलाई को पिथौरागढ़ के धारचूला, मुनस्यारी में तबाही हुई, मोतीघाट जल विद्युत पिरयोजना का नामोनिशान नहीं रहा। दर्जनों पशु मारे गए और कई गांवों का संपर्क कटा है। मुनस्यारी के 22 और धारचूला के 17 गांव खतरे की जद में हैं। 324 लोग 18 राहत शिविरों में रह रहे हैं।कपकोट में छह सड़कें बंद हैं 30 हजार लोग कहीं नहीं जा पा रहे हैं। उत्तरकाशी के मोरी क्षेत्र में तबाही हुई है। 10 लोगों की मौत तो देहरादून में ही हो चुकी है।

मलिन बस्ती बनाम आपदाग्रस्त गांव

हाई कोर्ट के आदेश पर आजकल देहरादून में अतिक्रमण हटाया जा रहा है। एक बड़े शिक्षण संस्थान की अरबों की जमीन पर अवैध कब्जा एक बार चिह्नित करने के बाद लाल निशान हटा दिए गए और इस पर मीडिया ने भी नजर फेर ली, लेकिन नदी-नालों के किनारे बसी वोट बैंक वाली बस्तियों को लेकर पक्ष और विपक्ष के नाते खुल कर मैदान में आ गए। मुख्यमंत्री ने भी तत्काल घोषणा कर दी कि पहले उन्हें बसाएंगे फिर हटाएंगे। एक पत्रकार ने चुटकी ले ली कि देहरादून के चार विधायक पहाड़ के 35 विधायकों पर भारी पड़ गए। पहाड़ के सैकड़ों आपदाग्रस्त गांवों के पुनर्वास पर सब चुप है। इस पर पहाड़ के कुछ विधायकों ने भी बयान दे दिए मुख्यमंत्री का जवाब है कि इसके लिए पहले लैंड बैंक बनाया जाएगा फिर बसाने की योजना बनेगी। जब 2011 से कुछ नहीं हो पाया तो कब होगा। हर साल नए आपदा क्षेत्र सामने आ रहे हैं किस-किस को और कहां बसाएंगे। और हां अभी तो पंचेश्वर बांध की जद में आने वाले 42 गांव भी हैं, उन्हें भी तो बसाना है। सच ये है कि ये सब ठंडे बस्ते के मुद्दे हैं।

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