उत्तराखंड: धामी सरकार ने समान नागरिक संहिता पर गठित की कमेटी, लेकिन ये एक ढकोसला से ज्यादा कुछ नहीं?
जब राज्य सरकार समान नागरिक संहिता का कानून बना ही नहीं सकती तो उसके लिये ड्राफ्ट या मजमून बनाना भी निरर्थक है। अगर अमित शाह ऐसी कोई कमेटी बनाते या धामी की तरह समान नागरिक संहिता पर कोई घोषणा करते तो उसका महत्व होता।
यह जानते हुये भी कि समान नागरिक संहिता राज्य सरकार या विधानसभा का विषय नहीं है, फिर भी उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने चम्पावत उपचुनाव से ठीक 4 दिन पहले नागरिक संहिता का मजमून तैयार करने के लिये सुप्रीम कोर्ट की पूर्व जज न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में कमेटी का गठन कर लिया। विशेषज्ञ समिति में आरएसएस और भाजपा की मानसिकता के लोगों को शामिल किये जाने से भी जाहिर हो रहा है कि सरकार की मनशा समान नागरिक संहिता का ढकोसला कर सरकारी धन से वोटरों का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करना है। इस कानून को लाने के पीछे मुख्यमंत्री का राज्य की संस्कृति और जनसांख्यकी का हवाला देना भी सरकार के साम्प्रदायिक एजेंडे का खुलासा ही करता है।
चूंकि समान नागरिक संहिता बनाने या लागू करने के लिये 1937 का मुस्लिम पर्सनल लाॅ (शरियत) को समाप्त या उसमें संशोधन करना पड़ेगा। इसी प्रकार हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 सहित 1956 के उत्तराधिकार और गोद लेने वाले कानूनों की समीक्षा और फिर उनमें संशोधन करना पड़ेगा, जो कि राज्य सरकार या विधानसभा के अधिकार क्षेत्र न होकर संसद और केन्द्र सरकार का अधिकार क्षेत्र है। कोई भी विधानसभा संसद द्वारा पारित कानूनों में संशोधन नहीं कर सकती। जब विधानसभा सारे देश के लिये कानून नहीं बना सकती तो उसे समान कानून कैसे मान सकते हैं? संसद को भी समान नागरिक संहिता का कानून बनाने के लिये संविधान के अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 25 से लेकर 28 में संशोधन करना पड़ेगा। चूंकि ये अनुच्छेद मौलिक अधिकारों के हैं जिनमें साधारण बहुमत से संशोधन नहीं हो सकते। अनुच्छेद 368 के तहत संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार तो हैं मगर संविधान की मूल भावना, सम्प्रभुता, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक गणतंत्र की मूल भावना से छेड़छाड़ का अधिकार नहीं देता। जबकि अनुच्छेद 25 या 28 में संशोधन भी मूल भावना से संबंधित ही हैं।
जब राज्य सरकार समान नागरिक संहिता का कानून बना ही नहीं सकती तो उसके लिये ड्राफ्ट या मजमून बनाना भी निरर्थक है। अगर अमित शाह ऐसी कोई कमेटी बनाते या धामी की तरह समान नागरिक संहिता पर कोई घोषणा करते तो उसका महत्व होता। आखिर यह कार्य संसद और भारत सरकार की ही ओर से होना है। बहरहाल धामी सरकार के ढकोसले पर और अधिक गौर करने के लिये उनके द्वारा गठित मजमून कमेटी पर गौर करना भी जरूरी है। इस कमेटी के चयन का क्राइटेरिया बीजेपी और आरएसएस से निकटता रखा गया है। कमेटी की अध्यक्षा न्यायमूर्ति रंजना देसाई जम्मू-कश्मीर के लिये गठित परिसीमन आयोग की अध्यक्ष रही हैं और इस आयोग की सिफारिशों से कश्मीरियों में बेचैनी साफ नजर आती है। विपक्षी दल परिसीमन आयोग की निष्पक्षता पर निरन्तर ऊंगली उठाते रहे हैं। न्यायमूर्ति देसाई वही जज हैं जिन्होंने न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर के साथ वाली बेंच में 2022 तक हज यात्रियों को दी जाने वाली सबसिडी बन्द करने के आदेश दिये थे। न्यायमूर्ति रंजना देसाई का मोदी सरकार की गुडबुक में होने का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता कि उन्हें वर्ष 2014 में सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत होने के तत्काल बाद से निरन्तर बड़े-बड़े पदों पर आसीन किया जाता रहा । वह 2014 से लेकर 2017 तक बिजली के अपीलीय न्यायाधिकरण की अध्यक्ष रहीं। कुछ ही महीनों के अन्तराल में उन्हें 2018 में आयकर की एडवांस रूलिंग अथारिटी की अध्यक्ष बनाया गया। इस पद पर वह 2019 तक रहीं। इसी दौरान लोकपाल का गठन होना था, इसलिये मोदी सरकार ने 28 सितम्बर 2018 को उन्हें लोकपाल सर्च कमेटी का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया। यह बात छिपी नहीं है कि किसी भी राजनीतिक दल की सरकार लोकपाल, सीएजी या निर्वाचन आयुक्त जैसे पदों पर ऐसे व्यक्ति को चाहती है जो कि सरकार के लिये परेशानी खड़ी न करे। इस कमेटी ने 28 फरवरी 2020 को अपनी रिपोर्ट दी तो अगले ही महीने 13 दिन के अन्तराल में न्यायमूर्ति देसाई को जम्मू-कश्मीर के लिये गठित परिसीमन आयोग का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया।
अध्यक्ष के बाद न्यायिक पृष्ठभूमि के सदस्य न्यायमूर्ति प्रमोद कोहली की भी बीजेपी और आरएसएस से निकटता छिपी नहीं है। सिक्किम के मुख्य न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें अप्रैल 2016 में केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण का अध्यक्ष बनाया गया। उन्हें इस पद पर 5 साल रहना था लेकिन उन्होंने व्यक्तिगत कारण बता कर पद से इस्तीफा दे दिया। उस समय चर्चा चली थी कि प्रमोद कोहली बीजेपी नेताओं की निकटता के चलते आरएसएस नेताओं के जरिये राज्यपाल पद के लिये लॉबीइंग करा रहे हैं। बहरहाल बीजेपी से निकटता या उसकी राजनीतिक विचारधारा में आस्था रखना उनका संवैधानिक अधिकार है।
कमेटी के तीसरे सदस्य शत्रुघ्न सिंह 1983 बैच के आइएएस रहे तथा उत्तराखण्ड के मुख्य सचिव भी रहे हैं। बीजेपी के साथ उनकी करीबी भी किसी से छिपी नहीं है। मुख्य सचिव पद से सेवानिवृत्ति के बाद वह राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त बने और कार्यकाल पूरा होने से पहले ही उन्होंने इस्तीफा देकर 19 मई 2021 को तत्कालीन मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के प्रधान सलाहकार का कार्यभार संभाल लिया। इसी प्रकार मनु गौड़ की भी बीजेपी से करीबी सर्वविदित है। वह टैक्स पेयर एसोसिएशन भारत के अध्यक्ष हैं और जनसंख्या नियंत्रण पर सोशियल मीडिया में अभियान चलाते रहे हैं। वह सीएए के समर्थक भी रहे हैं, इसलिये संभवतः उनकी यही काबिलियत धामी सरकार को पसन्द आई। वैसे भी मुख्यमंत्री धामी समान नागरिक संहिता के पीछे उत्तराखण्ड की जनसांख्यिकी का हवाला देते रहे हैं। दून विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो0 सुरेखा डंगवाल की योग्यता पर तो प्रश्नचिन्ह नहीं लग सकता। वह निश्चित रूप से एक सम्भ्रान्त और विदुषी महिला हैं। लेकिन जहां तक उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता का सवाल है तो वह गढ़वाल विश्वविद्यालय के केन्द्रीय विश्वविद्यालय बनने से पहले बीजेपी की सक्रिय कार्यकर्ता रहीं और इसी नाते उन्हें बीजेपी की निशंक सरकार के कार्यकाल में हिल्ट्रान का अध्यक्ष भी बनाया गया था, जो कि राज्यमंत्री स्तर का पद था। दून विश्वविद्यालय में भी अब आरएसएस गोत्र के विद्वानों को ही कुलपति नियुक्त किया जा रहा है।
सवाल उठता है कि जब राज्य सरकार समान नागरिक संहिता लागू कर ही नहीं सकती है, तो फिर ये सब ढकोसला क्यों कर रही है। कमेटी पर सरकार के धन और समय की बर्बादी होगी। वास्तव में इसके पीछे राज्य सरकार का साम्प्रदायिक ऐजेण्डा साफ नजर आ रहा है। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का भारी लाभ भाजपा को गत चुनाव में मिल चुका है।
अब 2024 के लोकसभा चुनाव की बारी है। चूंकि धामी के बाद कई अन्य भाजपाई मुख्यमंत्रियों ने भी यही राग अपनाना शुरू कर दिया है। जिससे लगता है कि यह मामला केवल उत्तराखण्ड तक सीमित न होकर सारे देश में समान नागरिक संहिता के लिये मौहौल बनाने का है। ताकि इसी मुद्दे को लेकर 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ा जा सके। हो सकता है कि मतदाताओं को डबल धार्मिक डोज देने के लिये समान नागरिक संहिता के साथ 1991 के धर्मस्थल यथास्थित वाले कानून में संशोधन को भी मिला लिया जाय। ईमानदारी की बात तो यह होती कि धामी सरकार समान नागरिक संहिता का ढकोसला करने के बजाय लोकायुक्त कानून बनाती। भाजपा ने 2017 के चुनाव में 100 दिन के अंदर लोकायुक्त के गठन का वायदा किया था ताकि उत्तराखण्ड को घोटालों और सामान्य भ्रष्टाचार से मुक्ति मिल सके। अब तो सौ दिन क्या, 6 साल हो गये मगर बीजेपी के लोकायुक्त का कोई अतापता नहीं। पार्टी की पिछली और वर्तमान बीजेपी सरकारों ने जो लोकायुक्त कानून बनाया भी था, उसकी ही हत्या कर डाली। क्योंकि प्रदेश की जनता को धार्मिक नशे का इतना बड़ा डोज दे दिया कि अब लोकायुक्त या भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दे तो मुद्दे ही नहीं रह गये। हाल ही में यशपाल तोमर मामले में राजनीतिज्ञ, नौकरशाह और माफिया के गठजोड़ के रूप में सामने आ गया, फिर भी चिन्ता भ्रष्टाचार या माफियाबाद की नहीं बल्कि समाज के एक वर्ग की जनसंख्या की है।
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