CAA-NRC को लेकर खौफ में हैं ओडिशा के आदिवासी और गरीब, झोपड़ियों में रहने वाले आखिर कहां से लाएंगे प्रमाण
नागरिकता संशोधन कानून के बाद एनआरसी को लेकर ओडिशा के दूर-दराज गांवों में रहने वाले दलित और आदिवासियों में भय का माहौल है। जानकारों का भी कहना है कि एनआरसी से सबसे ज्यादा परेशानी ऐसे बेघर लोगों को होगी जिनके पास अपनी पहचान साबित करने का कोई प्रमाण नहीं है।
जेम्स एक्का 60 साल के हैं। वह ओडिशा की इस्पात नगरी राउरकेला में छोटा-मोटा व्यापार करते हैं लेकिन उनके पास कोई जमीन-जायदाद नहीं है। एक्का इन दिनों एनआरसी की चर्चा से परेशान हैं। वह एक अनजाने भय से पूछते हैंः “हमारे पास तो कोई जमीन-अमीन नहीं है, हम अपनी नागरिकता का प्रमाण कहां से लाएंगे? तो क्या हमें देश से बाहर भेज दिया जाएगा? उनके और अधिक भयभीत होने की वजह यह है कि वह ईसाई हैं और यह मानकर चलते हैं कि केंद्र की मोदी सरकार उन जैसे लोगों को अपना शत्रु मानती है।”
वह कहते हैंः “यह तो साफ है कि केंद्र सरकार यह सब एक निश्चित पॉलिटिकल एजेंडा के अंतर्गत कर रही है और उसका निशाना हैं अल्पसंख्यक समुदाय के लोग। अगर आज मुसलमान निशाने पर हैं तो कल ईसाई नहीं होंगे, इसकी क्या गारंटी है। खतरे की घंटी सबके लिए बज रही है। भुवने श्वर में लोगों के कपड़े प्रेस कर गुजारा चलाने वाले कालू धर्म से हिंदू हैं लेकिन उनके मन में भी एनआरसी को लेकर एक्का जैसी ही आशंकाएं हैं, क्योंकि उनके पास भी नागरिकता साबित करने वाले कोई कागजात नहीं हैं। उन्होंने कभी इसकी जरूरत नहीं महससू की। कालू कहते हैंः “मैंने तो आधार कार्ड के लिए भी काफी समय तक कोशिश नहीं की थी। मेरे जैसे गरीब आदमी का इन सबके बिना भी गजुारा हो जाता था। ये मेरा देश है इसलिए मैंने अपने को इन मामलों में कभी असहाय महससू नहीं किया था। लेकिन असम में जो हुआ है, उसके बारे में जानने के बाद डर लग रहा है।”
सच यह है कि ओडिशा में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक- दोनों ही में केंद्र की बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा एनआरसी को हर राज्य में लागू करने की तैयारी को लेकर भारी चिंता और आक्रोश है। हाल ही में मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से इस सिलसिले में मिला और सीएम ने उन्हें आश्वस्त किया कि मुस्लिम संप्रदाय के लोगों को एनआरसी या नए नागरिकता संशोधन अधिनियम से चिंतित होने की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन अनेक मुस्लिम नेता उनके इस आश्वासन से संतुष्ट नहीं हैं क्योंकि ससंद में पटनायक के नेतृत्व वाली बीजू जनता दल (बीजेडी) ने भी इस बिल का समर्थन किया था।
बालासोर के जानेमाने मुस्लिम नेता साहिरूल हक कहते हैं कि “हमें एनआरसी- जैसी चीजों से इसलिए डर लगता है क्योंकि इस सरकार की मंशा ठीक नहीं है। यह सरकार जान-बूझकर मुसलमानों को अलग-थलग करना चाहती है। जहां तक नवीन पटनायक सरकार का सवाल है, उनकी पार्टी ने संसद में नागरिकता संशोधन बिल का समर्थन कर मुसलमानों के मन में आशंका पैदा कर दी है। उनकी सेकुलर छवि धुमिल हो गई है। अब यह साफ है कि वह भी स्वार्थ की राजनीति कर रहे हैं।”
उत्कल विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक बीरेंद्र नायक भी कहते हैं कि “आप हिंदू, मुसलमान या ईसाई- कुछ भी हों, अब स्थिति यह है कि आपको अपने देश में ही अपने नागरिक होने का प्रमाण देना पड़ेगा और यह आसान नहीं है। आपको इसके लिए लिगेसी प्रमाणपत्र देना पड़ेगा जिसे पाने में आपके छक्के छूट जाएंगे। आपको बार-बार अपने गांव दौड़ना पड़ेगा और बहुत संभव है, आपको वहां भी यह प्रमाणपत्र न मिले। यह सब इस सोचे-समझे एजेंडे के तहत किया जा रहा है क्योंकि केंद्र की बीजेपी नेतृत्व वाली इस सरकार को कुछ लोगों को अलग-थलग करना है। उसे ऐसा करने में परपीड़न सुख मिल रहा है, लेकिन हमें इसके लिए पहले से ही तैयार होना चाहिए था क्योंकि उन्होंने अपनी मंशा चनुाव के पहले ही साफ कर दी थी। अब भी समय है कि हम पढ़े-लिखे लोग इसके खिलाफ आवाज उठाएं और लोगों को एकजुट करें।”
गणतांत्रिक अधिकार सुरक्षा सामुख्य के नेता देवरंजन के अनुसार, यह मामला धर्म नहीं बल्कि आइडेंटिटी अथवा पहचान का है। उनका कहना है कि इससे सबसे ज्यादा दिक्कत भूमिहीन दलितों और आदिवासियों को होने जा रही है क्योंकि उनके पास अपनी नागरिकता साबित करने के लिए जमीन के कागजात भी उपलब्ध नहीं होंगे। पिछले मई में ओडिशा में आए तूफान फणि के बाद देवरंजन ने पुरी जिले के दलितों के बीच अच्छा-खासा काम किया और उन्हें यह बात सबसे ज्यादा गौरतलब लगी कि वहां अधिकांश दलितों के पास कोई जमीन या उससे संबंधित कागजात नहीं थे।
देवरंजन कहते हैं, “लगभग ऐसी ही स्थिति आदिवासियों की भी है क्योंकि उनमें से अधिकांश के पास जंगल अधिकार अधिनियम 2006 के अंतर्गत जंगली जमीन के मालिकाने के कागजात भी नहीं हैं। ऐसे सारे लोग- चाहे वे हिंदू हों या गैर हिंदू, अपनी नागरिकता के लिए कोई ठोस सबूत नहीं दे पाएंगे क्योंकि वहां आधार या वोटर परिचय पत्र से काम नहीं चलने वाला। और मान लीजिए कि आपके पास जमीन से संबंधित कागज हैं भी लेकिन उनमें कहीं कोई त्रुटि है, तब भी मामला आपके लिए पेचीदा है क्योंकि आधार कार्ड में सुधार संभव है लेकिन इन कागजात में नहीं।”
मानवाधिकार कार्यकर्ता विश्व प्रिय कानूनगो कहते हैं कि एनआरसी की सबसे बड़ी खामी यह है कि यह आदमी को आदमी की तरह नहीं देखता बल्कि उन्हें मजहब के हिसाब से हिस्सों में बांट देता है। उनके अनुसार, इसके लागू होने से सबको परेशानी होने जा रही है, लेकिन सबसे ज्यादा ऐसे बेघर लोगों को इससे परेशानी होगी जिनके पास अपनी पहचान साबित करने का कोई प्रमाण नहीं है। कानूनगो कहते हैं कि कुछ वर्षों पहले उन्होंने और उनके साथियों ने मिलकर राजधानी भुवनेश्वर में एक सर्वे किया था जिसमें करीब 6,000 लोग बेघर पाए गए थे और इनमें से अधिकांश के पास अपनी पहचान से संबंधित कोई कागजात नहीं थे।
वह कहते हैंः “एनआरसी लागू होने पर ऐसे बेघर लोगों का क्या होगा? वे बेघर होने के साथ-साथ बिना राज्य और देश के भी हो जाएंगे। लेकिन क्या यह मानवोचित है? क्या एक गणतांत्रिक देश में ऐसा कोई भी कानून लागू होना चाहिए? हम पढ़े-लिखे नागरिकों का कर्तव्य है कि हम इसके खिलाफ आवाज उठाएं। हमारा तो अब राज्य सरकार पर से भी विश्वास उठ गया है। अब जो भी करना है, हमें ही करना है।”
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