लौटने लगे हैं भेड़ों के झुंड, वापस आने अगले वसंत में
बकरवाल चरवाहे घाटी के पहाड़ी चारागाहों तक पहुंचने के लिए भेड़, बकरियों, घोड़ों, महिलाओं और बच्चों के साथ 700 किमी पैदल चल हिमालय की पीर पंजाल रेंज को पार करते है ।
'बकरवाल' कहे जाने वाले जम्मू-कश्मीर के साहसी चरवाहों के लिए शरद ऋतु की शुरुआत के साथ ही घाटी के पहाड़ी चारागाहों को अलविदा कहने का वक्त आ गया है। हर साल ये बकरवाल चरवाहे घाटी की पहाड़ी चारागाहों तक पहुंचने के लिए अपनी भेड़, बकरियों, घोड़ों, महिलाओं और बच्चों और कम से कम घरेलू सामानों के साथ हिमालय की पीर पंजाल रेंज को पार कर पैदल ही 700 किमी से ज्यादा का सफर तय करते हैं।
बकरवाल परिवारों का सफर सहनशक्ति और दृढ़ संकल्प की एक बेमिसाल गाथा है। चरवाहे परिवार हर वसंत ऋतु के बीच में घाटी में आते हैं और सितम्बर के मध्य तक चारागाह में रहते हैं। ये परिवार अधिकतर जम्मू क्षेत्र के राजौरी, पुंछ और रियासी जिलों से आते हैं, जहां गर्मियों में घास के मैदान सूखने लगते हैं, जिसके कारण चरवाहों को पशुओं के अस्तित्व को बचाने के लिए क्षेत्र छोड़ना पड़ता है।
इन परिवारों की महिलाएं, पुरुषों की तरह मजबूत होती हैं। छोटे बच्चों को महिलाएं अपनी पीठ पर लादकर ले जाती हैं, जबकि बुजुर्ग पुरुष और महिलाएं घोड़े पर सवार होकर प्रवास के दौरान सफर करते हैं। इस तरह की यात्रा के दौरान महिलाओं का प्रसव भी होता है और परिवार की सबसे बड़ी महिला सड़क पर होने वाले प्रसव में मिडवाइफ का काम करती है।
उत्तरी कश्मीर के गांदेरबल जिले में गंगाबल चारागाह में अपने परिवार और पशुओं के साथ पहुंचे शराफत हुसैन ने कहा, "हमारे परिवारों में गर्भवती महिला को प्रसव के लिए अस्पताल ले जाने के मामले बेहद कम होते हैं। परिवार में किसी का जन्म होने पर हम एक रात रुकते हैं और इसके बाद हमारा सफर फिर शुरू हो जाता है।"
बकरवाल के स्वास्थ्य का रहस्य उनकी जीवन शैली में दिखता है। मोटापा, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, मधुमेह और कथित आधुनिक रोगों से जुड़ी अन्य बीमारियां इनसे कोसों दूर हैं। श्रीनगर के डॉक्टर जावेद ने कहा, "यह लोग मक्खन, घी, पूर्ण वसा वाला दूध और मटन जैसे आहार खाते हैं, इसके बावजूद इनमें बीमारियां कम पाई जाती हैं।"
उन्होंने कहा, ‘बकरवाल परिवार का हर सदस्य सर्दियों में अपने घरों से लेकर ऊंचाई वाले चारागाह मैदान तक आने-जाने में लगभग 700 किलोमीटर की यात्रा करता है। यह ज्यादातर शारीरिक रूप से मजबूत होते हैं और इनकी जीवनशैली के कारण इन लोगों में रोगों का जोखिम कम हो गया है।"
यह खानाबदोश परिवार अपने बच्चों के साथ यात्रा करते हैं, इसलिए राज्य सरकार ने उनके लिए मोबाइल स्कूल स्थापित किए हैं। इन स्कूलों के अधिकांश पुरुष शिक्षक खुद बकरवाल परिवार से संबंध रखते हैं जो बच्चों को पढ़ाने के लिए पर्वतीय चरागाहों में जाते हैं। हालांकि ऐसे स्कूल बहुत कम हैं।
अतीत में, चरवाहों की यात्रा सूर्योदय से शुरू होती थी और सूर्यास्त होने पर रोक दी जाती थी। लेकिन अब जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर ज्यादा यातायात होने के कारण ज्यादातर चरवाहे रात में कम यातायात होने के दौरान यात्रा करना पसंद करते हैं।
एक परिवार पीढ़ियों से एक ही चारागाह का उपयोग करता है, इसलिए चरवाहों ने चारागाहों के अंदर मिट्टी की छत का निर्माण किया है। बदलते मौसम का सामना करने और बेहद कठिन हालात में खुद को बचाने वाले पेशेवर कमांडो की जीवनशैली जैसा जीवन जीने वाले इन चरवाहों के संघर्ष की गाथा अपने आप में अद्भुत है।
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Published: 20 Sep 2017, 7:41 PM