अर्द्धसैनिक बल के शहीद जवानों के परिजनों की चाहत, सिर्फ ‘शहीद’ का दर्जा दे सरकार
जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में सीआरपीएफ काफिले पर हुए आतंकी हमले के बाद पूरे देश में अर्द्धसैनिक बल के हताहत होने वाले जवानों को शहीद का दर्जा नहीं मिलने पर देश भर में बहस तेज हो गई है। अपनी जान गंवा चुके इन बलों के कई जवानों के परिजन अब अपना हक मांग रहे हैं।
दूर देहात के किसी अनजान अनाम गांव में तीन-चार अनाम अनजान औरतें विधवा हो गईं, उनका सुहाग उजड़ गया, उनके सुख और सपने खाक हो गए, उनके दो-चार बच्चे अनाथ हो गए, मां-बाप, सास-ससुर, भाई-बहन की आगे की 40-50 बरसों की जिंदगी, दो-चार पुश्तें अभिशप्त! इन तमाम कड़वी सच्चाइयों को छिपा लेता है, बस अखबारों का एक छोटा सा शीर्षक- ‘सीमा पर झड़प में तीन सैनिक शहीद।’
हाल ही में जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में सीआरपीएफ काफिले पर हुए आतंकी हमले के बाद पूरे देश में अर्द्धसैनिक बल के हताहत होने वाले जवानों को शहीद का दर्जा नहीं मिलने पर देश भर में बहस तेज हो गई है। अपनी जान गंवा चुके अर्दधसैनिक बलों के ऐसे कई जवानों के परिजन लगातार सरकार से अपना हक मांग रहे हैं। ऐसे कई परिवार हैं, जिन्होंने आतंकी या नक्सली अभियानों के दौरान अपने सपूतों को खोया है, लेकिन आज तक उनके बेटे को न तो शहीद का दर्जा मिला और न ही शहीदों की कोई सुविधा ही उन्हें मिलती है।
पुलवामा में शहीद हुए सीआरपीएफ जवानों के बाद एक बार फिर पूर्व में शहीद हुए जवानों के परिवार वालों के जख्म ताजा हो गए हैं। ऐसा ही एक परिवार दिल्ली-पौड़ी मार्ग पर बिजनौर से 20 किमी पहले सिकरेडा से 3 किमी बाएं जाने पर एक गांव रुमालपुरी का है। गांव में बमुश्किल पचास परिवार हैं। गुमनाम से इस गांव की एकमात्र पहचान तीन साल पहले 1 सितंबर को छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सलियों द्वारा बिछाई गई बारूदी सुरंग को डिफ्यूज करते हुए शहीद हुए जवान सचिन गुर्जर हैं।
गांव में सचिन के घर तक जाती टूटी सड़क को बनवाने का वादा कई बार किया गया, लेकिन अब भी इस पर बाइक से चलना मुश्किल है। रुमालपुरी में प्रवेश करते ही दिखती है सचिन की समाधि। यहां सचिन की आदमकद मूर्ति लगाई गई है। वहीं पास में सचिन द्वार भी है।
यहीं पर सचिन का घर है। सचिन के घर पर उनके किसान पिता भूषण सिंह मिलते हैं। सचिन की मां उर्मिला अपने दोनों हाथों में सिर पकड़े अपने पति से थोड़ी दूर बैठी हैं। सचिन की बीवी चार साल के बेटे सार्थक के साथ अब अपने माता-पिता के पास रहती है।
पास ही रहने वाले श्रीपाल बताते हैं कि पुलवामा वाली घटना के बाद वे सचिन को काफी याद कर रहे हैं उनके दिल में मलाल है। वे बहुत उदास हैं। भूषण 70 साल के हैं। चारपाई पर बैठे रहते हैं। खेत पर चले जाते हैं तो घंटों वहीं खोए से बैठे रहते हैं। तीन साल पहले हुई बेटे की शहादत के बाद गांव के लोगों ने उन्हें हंसते हुए नहीं देखा है। भूषण सिंह पूछते हैं, “मेरेबेटे को शहीद का दर्जा क्यों नहीं मिला? पुलवामा में जिनकी जान गई, उन्हें भी नहीं है। हमें इसके सिवा कुछ नही चाहिए।”
भूषण बताते हैं, “सचिन की शहादत पर हमें गर्व है। वह बारूदी सुरंग डिफ्यूज करने का जानकार था और इसी में उसकी जान चली गई। उसकी शहादत के बाद मुआवजा भी मिला। हमारे घर नेताओं का तांता लग गया। किसी ने गैस एजेंसी का लाइसेंस देने को कहा, किसी ने गांव की सड़क का नाम उनके नाम पर करने की बात उठाई। लेकिन समय के साथ सब शांत पड़ता चला गया। किसी ने कुछ नहीं किया।”
सचिन के बड़े भाई मिंटू बताते हैं कि गांव के बाहर सचिन के नाम का गेट गुर्जर नेता अवतार भड़ाना ने अपने पैसे से बनवाया है जबकि समाधि के पैसे उनके परिवार ने दिए। इसमें किसी तरह की कोई सरकारी सहायता नहीं आई जबकि उस समय के डीएम ने यह सब वादा किया था। सचिन की मां उर्मिला देवी कहती हैं, “शहीद की मौत का रंज नही होता है, जिंदगी ऊपर वाले के हाथ में है मगर शहादत की कद्र होनी चाहिए।”
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