आकार पटेल का लेख: मोदी सरकार की प्रतीकात्मक कार्रवाई से नहीं कम खत्म होगी दलितों की समस्या
पीएम मोदी दलितों को आश्वस्त करना चाहते हैं कि बीजेपी उनके हितों की रक्षक है और इसलिए वे अपने सांसदों से कह रहे हैं कि वे उनके साथ प्रतीकात्मक रूप से समय बिताएं। लेकिन क्या यह काफी है?
पीएम मोदी ने भारतीय जनता पार्टी के सांसदों को दलितों के बीच पैठ बनाने को कहा है। वे चाहते हैं कि 14 अप्रैल को पड़ने वाली अंबेडकर जयंती के आसपास सारे सांसद दलित आबादी की बहुतायत वाले गांवों में दो रात गुजारें। पीएम मोदी ने सांसदों से आग्रह किया है कि वे दलितों को याद दिलाएं कि बीजेपी ने अंबेडकर के सम्मान के लिए कई कदम उठाए हैं। पीएम मोदी के ऐसा करने की वजह यह है कि दलितों ने हाल में सरकार के खिलाफ लगातार प्रदर्शन किए हैं। दलितों को ऐसा लगता है कि पिछले तीन साल में हिंदुत्व के फैलाव की वजह से सुप्रीम कोर्ट ने उनसे वह सुरक्षा ले ली जो उन्हें एक विशेष कानून के तहत मिली हुई थी।
पीएम मोदी उन्हें यह आश्वस्त करना चाहते हैं कि बीजेपी उनके हितों की रक्षक है और इसलिए वे सांसदों से कह रहे हैं कि वे उनके साथ प्रतीकात्मक रूप से समय गुजारे। क्या यह काफी है? बीजेपी के नजरिये से इस पर एक नजर डालते हैं कि वे दलितों की समस्या का निवारण करने वाले और उनके शुभचिंतक हैं। पार्टी का उद्देश्य है कि सभी हिंदुओं को राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से एकताबद्ध किया जाए। यह उनकी विचारधारा है और इस काम को करने में उनका भरोसा है। यह ऐसा कैसे कर सकती है?
हिंदुओ की संख्या जानना इतना आसान नहीं है क्योंकि सिख और जैन (और अब शायद लिंगायत भी) खुद को हिंदू के तौर पर नहीं देखते हैं। लेकिन, फिर भी, उन्हें भई जोड़ लेते हैं और यह मान लेते हैं कि भारत की 85 फीसदी आबादी को एकताबद्ध करने की जरूरत है।
15 फीसदी के खिलाफ 85 फीसदी को एकताबद्ध करना एक आसान काम है और यह उपमहाद्वीप में आमतौर पर होता है। दक्षिण एशियाई देशों में एकताबद्ध बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों को तंग किया जाता है। चाहे पाकिस्तान, बांग्लादेश, भारत हो या श्रीलंका, हर जगह अल्पसंख्यकों का विधायिका, सरकार, पुलिस, सशस्त्र सेना और यहां तक कि निजी क्षेत्र की नौकरियों में बहुत कम प्रतिनिधित्व है और उन्हें घर ढूढ़ने में उतनी ही समस्या आती है और दुश्मन की तरह देखा जाता है।
लेकिन आज हम उसके बारे में बात नहीं कर रहे हैं। इस 85 फीसदी आबादी को एकताबद्ध करने की समस्या पर नजर डालते हैं जब कई आंतरिक विभाजन मौजूद हैं जैसा कि दलित प्रतिरोध ने दिखाया है। सच्चाई यह है कि एकता का दावा करना आसा नहीं है, यहां तक कि भाषा, खान-पान और संगीत जैसी चीजों में। लता मंगेशकर को पूरे भारत की एक पहचानी शख्सियत के रूप में देखा जा सकता है लेकिन एमएस सुब्बुलक्ष्मी को नहीं। बॉलीवुड और क्रिकेट में पूर्वोत्तर भारत को दिलचस्पी नहीं है। राष्ट्रवाद हमें एकताबद्ध कर सकता है, लेकिन वह बाहरी शक्तियों के प्रति एकताबद्ध कर सकता है। उस वक्त क्या होगा जब समस्या हमारे बीच की है। हिंदुत्व सभी हिंदुओं को अपने साथ लेना चाहता है लेकिन यह काम हिंदुत्व की शर्तों के आधार पर होना है। उदाहरण के लिए, ‘हिंदू’ का मतलब बीफ नहीं खाने वाला मनुष्य है और शाकाहारी हो तो ज्यादा बेहतर। पीएम मोदी गुजरात के जिस समुदाय से ताल्लुक रखते हैं वह मीट खाने वाला समुदाय है, लेकिन उन्होंने उस संस्कृति को त्याग दिया और आरएसएस जैसे बन गए यानी ज्यादा ब्राह्मणवादी। अगर वे बीफ खाने वाले आदिवासी होते तो आरएसएस के लिए उन्हें गुजरात का मुख्यमंत्री बनाना इतना आसान नहीं होता।
जो लोग आरएसएस प्रमुख बने उनमें केबी हेडगेवार, लक्ष्मण परांजपे, गुरुजी गोलवलकर, बाबासाहेब देवरस, राजेन्द्र सिंह, केएस सुदर्शन और मोहन भागवत शामिल हैं। इनमें सिर्फ राजेन्द्र सिंह ठाकुर थे, बाकी सब ब्राहम्ण थे। कोई दलित आरएसएस प्रमुख नहीं बना है। शायद, पार्टी के एक शुभचिंतक के तौर पर सोचते हुए ऐसा लगता है कि यह अच्छा होगा अगर बीजेपी किसी दलित या आदिवासी को आरएसएस का सरसंघचालक बनाने के लिए उसे तैयार कर ले, और अगर दलित या आदिवासी महिला हो तो ज्यादा बेहतर होगा।
हिंदुओं को एकताबद्ध करने में दूसरी समस्या यह है कि बीजेपी का हिंदू उच्च जाति में एक प्राकृतिक जनाधार है। यह वर्ग बुनियादी तौर पर दलितों के अधिकार के खिलाफ है। वे भले ही बिल्कुल इसी तरीके से इस मसले को न देखते हों, लेकिन जैसे ही हम सारे पहलू सामने रखेंगे यह साफ हो जाएगा। क्या उच्च जाति के लोग आरक्षण का समर्थन करते हैं? जवाब है नहीं, क्योंकि दलितों और आदिवासियों को आरक्षण देना इस समूह के हितों के खिलाफ है। यह विभाजन इतना बुनियादी है कि हिन्दू एकता के नाम पर इसे ढका नहीं जा सकता। कोई भी ऐसा दलित या आदिवासी सांसद बीजेपी के भीतर भी नहीं होगा जो आरक्षण खत्म किए जाने का समर्थन करेगा।
यही समस्या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोध) कानून के मूल में है। सुप्रीम कोर्ट ने साहस दिखाकर एक फैसला दे दिया जिसके खिलाफ दलितों और आदिवासियों ने बगावत कर दी। यह दोनों समुदाय इस कानून को उच्च जाति के हिंदुओ द्वारा होने वाले उनके निरंतर अपमान के खिलाफ एक सुरक्षा के तौर पर देखते हैं। यह सच है कि इस कानून का सही ढंग से पालन नहीं होता है और इस कानून के तहत कोई अपराध दर्ज कराने के लिए पुलिस को तैयार करना मुश्किल होता है। लेकिन फिर भी, कागज पर दो कमजोर समुदायों को मिली हुई यह एक सुरक्षा थी जिसे दो जजों ने कमजोर कर दिया।
इस मुद्दे पर भी, विभाजन साफ दिखता है। उच्च जाति के कितने लोग कोर्ट के निर्णय का विरोध करेंगे? बहुत ज्यादा नहीं, क्योंकि उच्च जाति के लोग ही इस कानून के तहत होने वाले न्याय के निशाने पर हैं। यह दलितों और आदिवासियों को सशक्त करता है और यह हमारे बीच के ज्यादातर लोगों को स्वीकार्य नहीं है।
इस स्थिति में ‘सबका साथ’ संभव नहीं है। कमजोर तभी तरक्की कर सकता है जब मजबूत उसे थोड़ी छूट देता है। लेकिन यह हो नहीं रहा है। याद कीजिए कि कितनी बार बीजेपी को सिर्फ इसलिए रक्षात्मक होना पड़ा है क्योंकि आरएसएस प्रमुख या किसी और ने आरक्षण-विरोधी बयान दिया। सरकार ने कहा कि वह इस मामले में पुनर्विचार याचिका दायर करेगी, लेकिन इस बात में उसका कोई भरोसा नहीं दिखा। वह ऐसा सिर्फ इसलिए कर रही है क्योंकि वह चिंतित है। यह उसी मानसिकता से आता है जिससे सांसदों को दो रात दलित गांवों में बिताने के लिए कहा जाता है।
इस सप्ताह मैं कई समूहों द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में था जहां लोग सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के पक्ष में थे। वहां कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद डी राजा भी वक्ताओं में शामिल थे। उन्होंने पीएम मोदी के एक बयान का हवाला दिया कि बीजेपी ऐसी पार्टी है जिसने अंबेडकर का सबसे ज्यादा सम्मान किया है। उन्होंने कहा, “अंबेडकर को सम्मान की जरूरत नहीं है। आप दलितों के लिए क्या कर रहे हैं?”
यह असल में एक बुनियादी बात है। अगर सरकार सच में दलितों के पक्ष में है तो उसे यह जरूर समझना चाहिए। दलित गांव में दो रात बिताना जरूरी नहीं है।
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