राष्ट्रपति ने भी अयोग्य ठहरा दिया 20 ‘आप’ विधायकों को: जल्दबाजी तो नहीं कर दी उन्होंने?

लाभ का पद क्या होता है<b>,</b> इसको लेकर अगल-अलग राय है। आम आमदी पार्टी अपने 20 विधायकों के मामले पर सुप्रीम कोर्ट जा रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि चुनाव आयोग और राष्ट्रपति ने जल्दबाज़ी कर दी।<b></b>

फोटो : सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

ऐसा माना जा रहा था कि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद चुनाव आयोग की उस सिफारिश पर जल्दबाज़ी में कोई फैसला नहीं करेंगे, जिसमें दिल्ली के आम आदमी पार्टी के 20 विधायकों की सदस्यता रद्द हो जानी थी। ऐसे कयास थे कि वे इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट रेफर कर देंगे। लेकिन रविवार को अचानक जब राष्ट्रपति भवन से अधिसूचना जारी हो गई कि चुनाव आयोग की सिफारिशों को मंजूरी देते हुए लाभ के पद के आरोपी 20 आप विधायकों की सदस्यता रद्द कर दी गई है। तो क्या इससे लाभ के पद को लेकर पैदा विवाद थम जाएगा? शायद नहीं।

जैसा अनुमान था, आम आदमी पार्टी ने इस मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट जाने का ऐलान किया, और हो सकता है आने वाले दिनों में चुनाव आयोग और राष्ट्रपति दोनों को ही कई चुभते सवालों का सामना करना पड़े।

इनमें से जो सबसे अहम दो सवाल होंगे, वह शायद यह हैं:

  • आखिर चुनाव आयोग को इस मामले में याचिका पर फैसला लेने में दो साल का वक्त क्यों लगा, जबकि इस पर याचिका तो नवंबर 2015 में दाखिल हुई थी?
  • भले ही जनप्रतिनिधि कानून की धारा 146 के तहत चुनाव आयोग के पास यह विकल्प है कि वह किसी भी मामले में पक्षों और गवाहों को सुनकर या बिना सुने ही फैसला ले सकती है, लेकिन उसने तो खुद ही इस मामले में सुनवाई की शुरुआत की थी, जो अधूरी रही?

चुनाव आयोग को इसका भी जवाब देना होगा कि जब दिल्ली हाईकोर्ट ने 2015 में संसदीय सचिवों की नियुक्ति के लिए दिए दिल्ली सरकार के आदेश 2015 में ही रद्द कर दिया था, तो आयोग ने इस तथ्य को ध्यान में क्यों नहीं रखा। साथ ही जवाब इसका भी पूछा जाएगा कि जब राष्ट्रपति ने दिल्ली सरकार के उस संशोधन को मंजूरी देने से इनकार कर दिया था, जिसमें संसदीय सचिवों को लाभ के पद नहीं माना जाना था।

इन दोनों ही तथ्यों पर गौर करें तो आप की यह दलील सही लगती है कि सितंबर 2015 के बा से दिल्ली में संसदीय सचिव है ही नहीं। कई संविधान विशेषज्ञों की भी यही राय है कि जब संसदीय सचिव थे ही नहीं, तो उनके खिलाफ याचिका तो स्वंय ही आधारहीन और तथ्यहीन हो जाती है।

जून 2016 में जाने माने वकील मोहन पराशरण ने कहा था कि राज्यों की विधानसभाओं को यह संवैधानिक अधिकार है कि वे ऐसे कानून बना सकते हैं, जिससे वे किसी भी पद को लाभ के पद की सूची से बाहर कर दें। दिल्ली सरकार द्वारा मार्च 2015 में जारी एक बयान पर पराशरण ने कहा था कि अगर किसी विधायक को कोई आर्थिक लाभ नहीं दिया गया है, तो वे लाभ के पद की श्रेणी में नहीं आता।

एक और संविधान विशेषज्ञ पी डी टी आचारी ने कहा था कि किसी को दफ्तर देना, सरकारी काम के लिए गाड़ी देना और टीए-एचआरए देना लाभ नहीं हैं, बल्कि खर्च किए गए पैसे का भुगतान है। उन्होंने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि किसी व्यक्ति का प्रभाव और ओहदा लाभ नहीं होता है।

राष्ट्रपति के पास इस मुद्दे पर संबंधित विशेषज्ञों की राय लेने का विकल्प था, या फिर वे इस पर सुप्रीम की राय भी ले सकते थे। लेकिन उन्होंने चुनाव आयोग कि सिफारिशों पर महज 48 घंटों में फैसला सुना दिया। वे संवैधानिक तौर पर सही होने का दावा कर सकते हैं। लेकिन ऐसा कोई भी मामला जिस पर सियासत हो रही हो, उसमें आनन-फानन में लिए गए फैसलों पर सवाल उठना स्वाभाविक है।

पूर्व में राष्ट्रपति के फैसलों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है और कई बार वे बदले भी हैं। अब देखना यह है कि क्या इस बार भी ऐसा ही होगा।

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