शाहीन बाग ने बताया कि लोकतंत्र के लिए आवाज किस तरह उठाई जा सकती है
शाहीन बाग संशोधित नागरिकता कानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के खिलाफ विरोध का प्रतीक बन गया है। करीब डेढ़ महीने से जारी इस प्रदर्शन और खासतौर से इसमें महिलाओं की भागीदारी ने ऐसी मशाल जलाई है, जिससे पूरा देश रोशन हो रहा है और कई शहर प्रेरणा ले रहे हैं।
शाहीन बाग ऐसे ही देश की धड़कन नहीं बन गया है। आम तौर पर इस इलाके में लोग इसलिए आते रहे हैं कि यहां फैक्ट्री आउटलेट दुकानें हैं- इनमें कपड़े-जूते से लेकर तरह-तरह के सामान 50 से 70 प्रतिशत तक छूट में मिल जाते हैं। इस इलाके में आम तौर पर मध्य वर्ग के लोग रहते रहे हैं, जिनमें अधिकतर सुबह दफ्तर के लिए निकलते हैं और शाम या देर रात घर लौटते हैं। पहले यहां की अधिकतर महिलाएं या तो अपने घरों में रहती थीं और उन्हें बाहरी दुनिया से बहुत कुछ लेना-देना नहीं था; जो लड़कियां बाहर पढ़ाई करने या नौकरी करने जाती भी थीं, उन्हें भी घरबार-काॅलेज-ऑफिस से बाहर ज्यादा कोई सरोकार नहीं था।
लेकिन संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) ने यहां के लोगों की दुनिया ही एकबारगी बदल दी। इसके खिलाफ यहां करीब डेढ़ महीने से अनवरत चल रहा धरना-प्रदर्शन और उसमें उनकी, खास तौर से महिलाओं की, भागीदारी ने ऐसी मशाल जलाई है, जिससे पूरा देश रोशन हो रहा है और देश के कई शहरों ने यहां से प्रेरणा ली है।
यहां का धरना-प्रदर्शन केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के लिए सीधे ही चुनौती बना हुआ है। दिल्ली पुलिस सीधे केंद्र सरकार के जिम्मे है लेकिन तमाम जुगत भिड़ाने के बावजूद इसे हटाना किसी के लिए संभव नहीं हो रहा है। यहां तक कि दिल्ली हाईकोर्ट ने भी इसे हटाने की मांग यह कहते हुए खारिज कर दी कि पुलिस को पहले इन्हें समझाना-बुझाना चाहिए। शाह को भी अब अफसोस हो रहा होगा कि उन्होंने सीएए और एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे जामिया मिल्लिया इस्लामिया के बच्चों पर अकारण बर्बर हमले का दिल्ली पुलिस को निर्देश न दिया होता, तो शायद शाहीन बाग न जगता।
बीते साल15 दिसंबर को पुलिस ने जामिया में घुसकर न सिर्फ बच्चों कीनिर्ममता से पिटाई की, आंसू गैस के गोले दागे और बुलेट्स तक चलाए। पुस्तकालय तक को तहस-नहस कर दिया गया। शाहीन बाग के लोगों के लिए जामिया के बच्चों पर यह पुलिस कार्रवाई ही टर्निंग प्वाइंट बन गया। इस इलाके में जामिया में पढ़ने वाले काफी सारे बच्चे रहते हैं। यहां धरना दे रहीं शाहजहां कहती हैंः “जिस रात जामिया में यह सब हुआ, हमारी आंखों से नींद उड़ गई”। वहां मौजूद शाहेदा कहती हैंः “उस दिन हम अपने बच्चों के लिए सड़कों पर आए। लेकिन हम अब यहां अपने संविधान, अपने देश, इस देश में रहने वाले लोगों के लिए जमे हैं”।
यहां जब-तब यह बात हवा में रहती है कि पुलिस यहां से धरना उठवाने की तैयारी में है। एक ऐसे ही वक्त इन पंक्तियों की लेखिका वहां मौजूद थी। सूचना थी कि आसपास पुलिस की आमद-रफ्त बढ़ रही है। उसी वक्त एक प्रदर्शनकारी नरगिस स्टेज पर चढ़ गईं और उन्होंने माइक्रोफोन के जरिये लोगों से शातिं बनाए रखने, मंच के इर्द-गिर्द जमा हो जाने और संविधान की प्रस्तावना का पाठ करने की अपील की। नरगिस ने दृढ़ आवाज में कहाः “संविधान ने हमें बोलने की आजादी दी है। इसे हमसे कोई नहीं छीन सकता। वे हमसे हमारा वजूद जानना चाहते हैं। हमारे वजूद का सुबूत लाल किला में, बनारस की साड़ियों में, ताजमहल में, अलीगढ़ के ताले-चाबी में, मौलाना अबुल कलाम आजाद की उपलब्धियों में है। हमारा वजूद महज दस्तावेजों तक बंधा हुआ नहीं है, हमारा वजूद हमारे पुरखे हमें सौंप गए हैं।”
जिस वक्त यह सब हो रहा था, टेन्ट के किनारे में लगभग 60 साल की शाहाना रहिमुन निसा नमाज के लिए बिछाई चादर जा-नमाज, समेट रही थीं। वह पास में एक चैरिटेबल स्कूल चलाती हैं। वह और उनके स्कूल की शिक्षिकाएं स्कूल के बाद यहां नियमित आती हैं और कुछ घंटे जरूर रहती हैं। रहिमुन्निसा डायबिटीज और अर्थराइटिस से पीड़ित हैं और उन्हें चलने-फिरने में भी तकलीफ होती है लेकिन उन्होंने यहां आना कभी नागा नहीं किया। वह कहती हैंः “हम पर्दानशीं लोग हैं। लेकिन सबको यह मालूम हो जाना चाहिए कि अगर जरूरत हो, तो हम अपना देश, इसके लोगों और इसके संविधान को बचाने के लिए सड़कों पर भी निकल सकती हैं। यह हमारा उत्तरदायित्व है। उन्होंने हमारे घरों, हमारे बच्चों को निशाना बनाया। आखिर, हम घर से कैसे नहीं निकलते?”
कड़कड़ाती ठंड में भी 60 साल की शबनम महज एक शाॅल ओढ़कर रहिमुन निसा के बगल में बैठी मिलीं। सहज जिज्ञासा हुई कि क्या उन्हें ठंड नहीं लग रही। वह मुस्कुराते हुए कहती हैंः “बिल्कुल नहीं। यह सब जो रहा है, उससे भय के साथ ठंड भी भाग गई।” खास बात यह है कि यहां मौजूद लगभग हर व्यक्ति जानता है कि वह यहां क्यों है; उसे पता है कि सीएए, एनआरसी, एनआरपी क्यों देश-समाज के लिए घातक है।
नुसरत आरा तो कहती हैं किः “हमने कभी सोचा भी नहीं था कि हम पुरुषों के साथ कंधे से कंधे मिलाकर खड़े होंगे। हम तो 9 बजे रात के बाद घर से बाहर निकलने पर सौ दफा सोचते थे। सरकार हमारी नागरिकता छीनने की कोशिश कर रही थी, लेकिन सच तो यह है कि इसने हमसे हमारे भय छीन लिए। अब हम जरा भी भयभीत नहीं हैं। हम अपने वजूद के लिए लड़ेंगे। हम अपने बच्चों के लिए लड़ेंगे। जब तक जरूरत होगी, हम यहां जमे रहेंगे।”
इस इलाके में आने पर लगता है कि धरना-प्रदर्शन के दौरान भी क्रिएटिविटी का किस तरह इस्तेमाल हो सकता है। यहां इंडिया गेट की अनुकृति बनाकर रखी गई है; भारत का बड़ा नक्शा दिखता है जिस पर मोटे-मोटे हर्फ में लिखा हैः नो सीएए, नो एनआरसी, नो एनपीआर; लोग संविधान की प्रस्तावना का पाठ कर रहे हैं; आजादी के गीत गाए जा रहे हैं- पुराने गीत तो प्रस्तुत किए ही जा रहे हैं, नई-नई रचनाएं भी पढ़ी जा रही हैं; तरह-तरह की रंगोली बनाई जा रही है। और ये सब कोई प्रोफेशनल कलाकार या राजनीतिक ट्रेनिंग लिए लोग नहीं कर रहे, वे आम लोग कर रहे हैं जो पढ़-लिख रहे हैं और जिन्होंने पहले कभी प्रदर्शनों आदि में भाग नहीं लिया है।
यहां जूझ रही औरतें हमारी सामान्य हीरो या नेता नहीं हैं लेकिन वे इस बात की सुबूत हैं कि हमारा लोकतंत्र मौजूद है और सब दिन रहेगा। इन लोगों ने हमारे दिलों में एक रोशनी जलाई है, आजादी के वे तराने गाए हैं जिन्हें हम भूल गए थे और बहुत सफाई के साथ हमें बताया है कि लोकतंत्र की वापसी की आवाज किस तरह उठाई जा सकती है। एक किस्म से, उनकी वजह से हमारा वजूद है। इसीलिए यह गणतंत्र दिवस उनका है।
(लेखिका कई पुरस्कारों से सम्मानित वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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