सीबीआई में आलोक वर्मा की वापसी: क्या सुप्रीम कोर्ट ने वर्मा के रिटायरमेंट की पटकथा लिख दी !

सुप्रीम कोर्ट ने आलोक वर्मा की सीबीआई में वापसी तो कर दी, लेकिन उनके हाथ बंधे रहेंगे और वे अपने बाकी बचे दो-ढाई सप्ताह के कार्यकाल में कोई भी नीतिगत फैसला नहीं ले पाएंगे। तो क्या माना जाए कि सुप्रीम कोर्ट ने वर्मा के शांतिपूर्ण रिटायरमेंट की पटकथा भर लिखी है।

फोटो : सोशल मीडिया
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उमाकांत लखेड़ा

सीबीआई चीफ आलोक वर्मा को ससम्मान उनकी कुर्सी सौंपने की कवायद का निर्णायक फैसला जानने के लिए अभी एक सप्ताह की कठिन परीक्षा से होकर गुजरना होगा। करीब तीन महीने का बनवास भुगतने के बाद आलोक वर्मा की वापसी उनके लिए इसलिए ज्यादा खुशी भरी नहीं, क्योंकि अभी करीब आधे माह के बचे कार्यकाल तक उन्हें पूरे अधिकारों से वंचित रखते हुए रिटायर करने की पटकथा लिख दी गई है।

कानूनविदों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से उन्हें पद पर वापस बिठाने की पूरी कवायद ही बेमतलब है, क्योंकि वर्मा को बाकी बचे 15 दिन के कार्यकाल में पूरी तरह पंगू बनाकर मात्र कुर्सी पर बैठते रहने की अनुमति मिली है। सुप्रीम कोर्ट ने एक ही रास्ता खोला कि वर्मा इस माह के अंत तक शांतिपूर्वक रिटायर हो जाएं।

आलोक वर्मा की अभी सुप्रीम कोर्ट ने एक कामचलाऊ मुखिया के तौर पर ही वापसी की है। वे न तो कोई नया कदम उठा सकेंगे और कोई भी नीतिगत फैसला लेने के लिए स्वतंत्र होंगे। आलोक वर्मा को न्याय पाने के लिए ढाई माह इंतजार करना पड़ा जबकि कोर्ट को पता था कि वे 30 जनवरी को अपनी सेवा से रिटायर हो जाएंगे। वर्मा के करीबी सूत्रों ने इस बात की पुष्टि की थी वे राफेल सौदे की सीबीआई जांच से जुड़ी मांगों पर गंभीरता से विचार कर रहे थे।

गौरतलब है कि आलोक वर्मा को जबरन छुट्टी पर भेजे जाने से पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी व वकील प्रशांत भूषण ने राफेल मामले की सीबीआई जांच की मांग को लेकर उनसे सीबीआई मुख्यालय में जाकर मुलाकात की थी। मोदी सरकार ने उसके बाद ही वर्मा के खिलाफ मोर्चा शुरू कर दिया था।

सीबीआई प्रमुख की कुर्सी से नागेश्वर राव को सीबीआई का कार्यवाहक मुखिया बनाने के आदेश को निरस्त किया जाना भी मोदी सरकार के लिए करारा झटका है। नागेश्वर राव का दामन भी दागदार होने के आरोप लगे, इसके बावजूद मोदी सरकार ने जिस हड़बड़ी में उन्हें आनन-फानन में सीबीआई में स्थापित किया, उससे सरकार की मंशा पर कई तरह के सवाल खड़े हुए। मोदी सरकार के राजनीतिक प्रतिद्वंदियों व आगामी चुनावों के लिए एकजुट हो रहे विपक्षी नेताओं पर सीबीआई की सक्रियता ने इन संदेहों को और बल दिया कि सीबीआई के कामकाज में हस्तक्षेप के लिए ही इस सर्वोच्च जांच संस्था में कई सत्ता केंद्र स्थापित हो गए।

सीबीआई मुखिया को हड़बड़ी में हटाने का एक बड़ा कारण यह भी गिनाया गया कि वे चंद दिनों के भीतर ही राफेल विमान सौदे की सीबीआई जांच कराने की योजना पर गंभीरता से मंथन कर रहे थे। सीबीआई प्रमुख तो वर्मा खुद थे, लेकिन उनके अधीनस्थ विशेष निदेशक राकेश अस्थाना ने पीएमओ से उनकी दूरियों की खाई को इतना ज्यादा बढा दिया था कि जैसे ही आलोक वर्मा ने मीट कारोबारी मोइन कुरैशी से राकेश अस्थाना के गठजोड़ पर हमला बोला, उन्हें इस कार्रवाई की कीमत चुकानी पड़ी।

सीबीआई मुख्यालय में आलोक वर्मा की वापसी मोदी सरकार के लिए चंद दिनों की उहपोह भरी रहेगी। प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ ने वर्मा के मामले में पूरी तरह संतुलन बनाने की कोशिश की है। इसीलिए राफेल मामले में 14 दिसंबर के फैसले को उसने निगाह में रखा। ताकि कुर्सी पर वापसी के बाद आलोक वर्मा सरकार से कटूता या भावावेश में आकर कोई नीतिगत कदम न उठा सकें। सुप्रीम कोर्ट ने राफेल सौदे की कोर्ट निगरानी की सीबीआई जांच कराने की सभी याचिकाएं 14 दिसंबर 2018 को खारिज कर दी थीं।

वर्मा को मिली आधी राहत के बाद अब सारी निगाहें अगले एक सप्ताह की समय सीमा पर जमी हैं, जब सीबीआई मुखिया के अधिकारों को लेकर सर्वोच्च चयन समिति अपना फैसला देगी। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली इस चयन समिति में प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई और लोकसभा में नेता विपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे शामिल हैं।

सरकार के सूत्रों के अनुसार बैठक में 1 फरवरी से कार्यभार संभालने वाले नए सीबीआई मुखिया के चयन के मामले पर भी विचार होने की संभावना है। चूंकि चयन समिति के तीनों सदस्य बहुमत के आधार पर फैसला करते हैं, ऐसी सूरत में इस बात की संभावनाएं बहुत कम हैं कि बैठक में कांग्रेस नेता खड़गे के एजेंडे पर कोई बहुमत की मुहर लग सकेगी।

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