पीएम मोदी ने कैमरों के सामने सफाई कर्मचारियों के पैर तो धोए, लेकिन उनकी व्यथा पर कोई बात नहीं की

प्रयागराज में चल रहे कुंभ मेले में पहुंचकर पीएम मोदी द्वारा पांच सफाईकर्मियों के पांव धोने के बावजूद मेले की चाक-चौबंद सफाई के लिए लगाए गए बीस हजार से ज्यादा दिहाड़ी मजदूरों की मजदूरी का सवाल चर्चा का विषय नहीं बन सका है।

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में चल रहे कुंभ मेले में 24 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहुंचे और उन्होंने कैमरों की फ्लैश के आगे पांच सफाई कर्मचारियों के पांव धोए। इस मौके पर कुंभ की सफाई को लेकर राज्य सकार के गिनीज बुक में जगह बनाने की भी खासी चर्चा हुई। लेकिन इसके बावजूद मेले की चाक-चौबंद सफाई के लिए लगाए गए बीस हजार से ज्यादा दिहाड़ी मजदूरों की मजदूरी का सवाल चर्चा के केंद्र में नहीं आ सका। मात्र 295 रुपये रोज की मजदूरी पर काम कर रहे इन लोगों के रहने की स्थितियों या काम के घंटों पर कोई बात करने को तैयार नहीं है।

दलित सफाई मजदूर संगठन के दिनेश और हीरालाल के साथ कवि और एक्टिविस्ट अंशु मालवीय काम के घंटे देखते हुए दिहाड़ी 600 रुपये रोज करने सहित दस मांगों को लेकर कई बार मेला अधिकारी से मिले। उन्होंने बताया कि दो फरवरी को वे लोग फिर मेला अधिकारी से मिले और लंबी बातचीत के बात ज्ञापन देकर उन्होंने 6 फरवरी तक का समय मांगा। उन्होंने कहा कि कोई फैसला तो नहीं हुआ मगर मेले में चल रहे ‘सृजन’ कार्यक्रम के दौरान पुलिस ने पहले दिनेश, फिर अंशु मालवीय को हिरासत में ले लिया। उन्हें मजदूरों को भड़काने का आरोप लगाते हुए रासुका में बंद करने की धमकी दी गई। कई घंटे तक हिरासत में रखने के बाद उन्हें देर रात छोड़ दिया गया।

दरअसल, शुरू से मेले को एक इवेंट के तौर पर प्रचारित करने पर जोर रहा है। हर बड़े स्नान में करोड़ों लोगों के भाग लेने की बातें कही गईं। हालांकि इन दावों की पुष्टि का कोई आधार कभी नहीं बताया गया। मगर उस आंकड़े पर भी यकीन शायद ही किसी को हुआ हो। कुछ अखबारों ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के हवाले से एक वक्तव्य छापा कि प्रवासी पक्षियों के संगम में डुबकी लगाने के नाते उन्हें भी तीर्थ यात्री मानना चाहिए। अब इसके बाद कुछ कहने को शायद ही रह जाता है! वैसे, इस बात पर कोई भी यकीन कर सकता है कि जितने वीआईपी इस बार के मेले में आए, पहले कभी नहीं आए थे।

कुछ बातों पर ध्यान दिया जाए तो स्थानीय लोगों की दिक्कतों के बारे में महसूस किया जा सकता है। पिछले नौ साल से कल्पवास करने वाली इलाहाबाद की श्रीमती जनक सिंह कहती हैं कि कल्पवासियों के लिए संगम इस बार बहुत दूर हो गया है। कल्पवासियों की रिहाइश के लिए तय किया गया इलाका संगम से इतनी दूर था कि उन्हें गंगा नहाकर ही संतोष करना पड़ा। कला समीक्षक और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शिक्षक अमितेश कुमार मानते हैं कि भीड़ की गति नियंत्रित करने के लिए रास्ते बंद कर देने से शहरियों की ज्यादा फजीहत हुई। बकौल अमितेश, ‘मुझे इस बार अध्यात्म कम, राजनीति अधिक दिखी।’

वैसे, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर कुमार वीरेंद्र इस बार के मेले में किन्नर अखाड़े के भी शामिल होने को सांस्कृतिक वैशिष्ट्य के रूप में देखते हैं। उनकी राय में मेले की आध्यात्मिक परंपरा पर धार्मिक परंपरा हावी होती दिखती है। नेताओं ने संगम में डुबकी लगाते हुए अपनी तस्वीरों का खूब प्रचार किया। आम तीर्थ यात्री को सरकारी इंतजामों की बहुत परवाह यूं भी नहीं होती।

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