विपक्ष के सामने कमज़ोर पड़ी मोदी सरकार, आरटीआई में टाला संशोधन
कांग्रेस के नेतृत्व वाली पिछली यूपीए सरकार ने 2005 में भारत की जनता को सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून दिया, जिसका उद्देश्य यह था कि सरकारी मशीनरी में पारदर्शिता और जनता के प्रति जवाबदेही बहाल हो।
आरटीआई कानून ने पहली बार देश की अधिकांश आबादी को असली मालिक होने का अहसास दिलाया और जनता ने भी इस अधिकार के प्रयोग में बढ-चढ़ कर भागीदारी की। सामान्य जनमानस के लिए यह कानून कई मामलों में उनके लिए वरदान साबित हुआ है। लेकिन देश के ताजा हालात में ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह सरकार इस कानून को हमेशा के लिए समाप्त कर देना चाहती है। निश्चित तौर पर सरकार इसे अचानक खत्म नहीं कर सकती है। लेकिन इसके लिए सिस्टम ऐसा जरूर बना दिया जाएगा कि लोग जानकारी मांगने के लिए आरटीआई आवेदन डालना ही छोड़ देंगे।
केन्द्र की मोदी सरकार शुरू हो चुके इस मानसून सत्र में देश का सबसे महत्वूर्ण कानून सूचना का अधिकार अधिनियम - 2005 में संसोधन करने जा रही थी। लेकिन गुरूवार को राज्यसभा में विपक्ष के कड़े विरोध के बाद सरकार ने फिलहाल ये संशोधन टाल दिया है।
गौरतलब है कि कांग्रेस नेता और केरल से सांसद शशि थरूर के लोकसभा में पूछे गए सवाल के जवाब में कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री डॉ जितेन्द्र सिंह ने बताया था कि “संसद के चालू सत्र में ‘सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक-2018” पर विचार करने और इसे पारित करने के लिए राज्यसभा में विधेयक को पुन:स्थापित करने का नोटिस दिया गया है। प्रस्तावित संशोधनों का उदेश्य सूचना का अधिकार अधिनियम के अधीन मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों तथा राज्य आयुक्तों के वेतन, भत्तों और सेवा शर्तों के संबंध में नियम बनाने के लिए समर्थकारी प्रावधान बनाना है।” शशि थरूर ने अपने सवाल में ये भी पूछा था कि, “क्या इस प्रस्ताव को तैयार करते समय किसी भी रूप में पूर्व-विधायी परामर्श किया गया ह। यदि हां, तो तत्संबंधी ब्योरा क्या है?”
इस सवाल के जवाब में कहा गया कि, “सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक -2018 को तैयार या निरूपित करते समय व्यय विभाग, विधी कार्य विभाग एवं विधायी विभाग से परामर्श किया गया है।” लेकिन सच ये है कि सरकार ने ऐसा नहीं किया था। ऐसे में गुरूवार को विपक्ष ने सरकार को सुझाव दिया कि पहले इसे विधायी जांच के लिए एक चयन समिति को भेजा जाए।
क्या था सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक -2018?
आरटीआई एक्ट के अनुच्छेद 13 और 15 में केन्द्रीय सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्तों का वेतन, भत्ता और अन्य सुविधाएं निर्धारित करने की व्यवस्था दी गई है। वहीं अनुच्छेद 13 और 16 में लिखा है कि कोई भी सूचना आयुक्त पांच साल के लिए नियुक्त होगा और वो 65 साल की उम्र तक पद पर रहेगा। केन्द्र की मोदी सरकार इसी में संशोधन करने के लिए ये बिल ला रही थी। अगर ये बिल पारित हो जाता तो फिर केन्द्रीय सूचना आयुक्तों और राज्य सूचना आयुक्तों का वेतन और उनके कार्यकाल को केन्द्र सरकार तय करती।
बता दें कि अभी तक मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त का वेतन मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त के वेतन के बराबर मिलता थ। वहीं राज्य मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्त का वेतन चुनाव आयुक्त और राज्य सरकार के मुख्य सचिव के वेतन के बराबर मिलता था। लेकिन सरकार का तर्क था, ‘चुनाव आयोग संविधान के अनुच्छेद 324 की धारा (1) के तहत एक संवैधानिक संस्था है, वहीं केन्द्रीय सूचना आयोग और राज्य सूचना आयोग आरटीआई एक्ट, 2005 के तहत स्थापित एक सांविधिक संस्था है। चूंकि दोनों अलग-अलग तरह की संस्थाएं हैं, इसलिए इनका कद और सुविधाएं उसी आधार पर तय की जानी चाहिए।’
संवैधानिक संस्था उसे कहते हैं जिनके बारे में संविधान में व्यवस्था दी गई हो, वहीं सांविधिक संस्था उसे कहते हैं जिसे कोई कानून बनाकर स्थापित किया गया हो।
ये संशोधन किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं
सरकार के जरिए आरटीआई में इस संशोधन को आरटीआई जगत से जुड़े इसके विशेषज्ञों ने सूचना आयोग की स्वतंत्रता पर हमला माना और बताया कि इससे देश का सबसे महत्वपूर्ण कानून खत्म हो जाएगा। भारत के पहले मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह ने नवजीवन से बातचीत में कहा, “इस संशोधन से सूचना आयोग की आजादी बिल्कुल खत्म हो जाएगी। जानने के हक का जो बुनियादी स्तंभ है, वो कमजोर हो जाएगा। बल्कि मेरे ख्याल से खत्म ही हो जाएगा, क्योंकि सूचना आयोग सरकार का एक महकमा बनकर रह जाएगा।”
नेशनल कैंपेन फॉर राईट टू इंफोर्मेशन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे कहते हैं, “ये संशोधन आरटीआई के पूरे ढांचे को कमजोर करने वाली बात है। इससे पूरा कानून ही कमजोर पड़ जाएगा। आयोग भी सरकार के लिए एक सरकारी विभाग की तरह काम करने लगेगी। वैसे भी ये सरकार आरटीआई को खत्म कर देना चाहती है।”
लेकिन पूर्व सूचना आयुक्त शैलेष गांधी का कहना है कि, “इस संशोधन से आरटीआई कानून खत्म हो जाएगा, ये कहना थोड़ा ज़्यादा हो जाएगा। अगर सरकार आरटीआई को खत्म करना चाहती तो वो सूचना की परिभाषा को छेड़ती, जुर्माना के प्रावधान में संशोधन करती है। आयोग के अधिकार वाले धाराओं में तब्दीली लाती, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया है। उसने सिर्फ आयुक्तों के वेतन और उनके कार्यकाल को तय करने की बात कही है।” शैलेष गांधी कहते हैं कि, “पावर कानून से आता है। सीएम की गाड़ी रोकने का पावर पुलिस कांस्टेबल को भी है। कानून के पावर को सरकार ने इस संशोधन में नहीं छेड़ा है। मगर कुछ चींजे चिंताजनक जरूर हैं। इस संशोधन को लेकर सरकार का तर्क सही नहीं है। नीति आयोग, अल्पसंख्यक आयोग, राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ये सब सांविधिक संस्था ही हैं।”
इस संशोधन का कारण पूछने पर हमने शैलेष गांधी बताते हैं कि, “शायद इसके पीछे एक कारण सीआईसी का वो आदेश है, जो उसने पीएम मोदी के डिग्री को लेकर दिया था। शायद इसी से सरकार को प्रॉब्लम हुई होगी, इसलिए सरकार को लगा होगा कि इन्हें ठिकाना लगाना जरूरी है। दूसरी संभावना ये भी हो सकती है कि सरकार सांविधिक संस्थाओं को ये संदेश देना चाहती हो कि अगर हमारे खिलाफ गए तो हम तुम्हारे साथ भी ऐसा ही करेंगे।”
फिलहाल देश के आरटीआई कार्यकर्ताओं ने राहत की सांस ली है। उनका मानना है कि उनका विरोध-प्रदर्शन काम आया। साथ ही विपक्ष का भी उनको पूरा साथ मिला। खास तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने आरटीआई अधिनियम में संशोधन करने के कदम की खूब आलोचना की। लेकिन ये भी ध्यान रहे कि खतरा अभी टला है खत्म नहीं हुआ है।
इस तरीके से आरटीआई को खत्म कर देना चाहती है मोदी सरकार
13 साल पहले जब आरटीआई कानून लागू हुआ था तो इसे भ्रष्टाचार से लड़ने के सशक्त हथियार के रूप में देखा गया था, लेकिन अब इस कानून से आम लोगों का भरोसा टूट रहा है। अधिकतर आरटीआई कार्यकर्ताओं की शिकायत है कि वर्तमान सरकार की इस कानून को लेकर नियत सही नहीं है।
हमारे प्रधानमंत्री अपने भाषणों में आरटीआई को बढ़ावा देने की बात करते हैं। वो अपने एक भाषण में सरकारी विभागों से कहते हैं कि वो आरटीआई आवेदनों का जवाब देते हुए तीन ‘टी’- टाईमलीनेस (समयबद्धता), ट्रांसपैरेंसी (पारदर्शिता) और ट्रबल-फ्री (सरल पद्धति) को ध्यान में रखें। लेकिन कहानी इससे बिल्कुल अलग है। सरकार अपने विभिन्न तरीकों से मुश्किलें खड़ा कर इस कानून को खत्म करने में लगी हुई है। यहां जानिए, आरटीआई की राह में आने वाली पांच बड़ी मुश्किलें
1. आयोग में लंबित मामले
आरटीआई कार्यकर्ता सूचना आयोगों में लंबित मामले को आरटीआई कानून के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देख रहे हैं। क्योंकि इसकी वज़ह से इनको सूचना के लिए सालों-साल इंतजार करना पड़ रहा है।
हाल में एक सतर्क नागरिक संगठन ‘सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज’ द्वारा पेश की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक देशभर के 23 सूचना आयोगों में 31 अक्टूबर 2017 तक 1.99 लाख से ज़्यादा मामले लंबित हैं। जबकि इन आंकड़ों में आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान और तमिलनाडू के लंबित मामलों के आंकड़ें शामिल नहीं हैं।
बता दें कि इस समय सबसे अधिक लंबित मामले उत्तर प्रदेश सूचना आयोग में हैं। यहां 31 अक्टूबर 2017 तक 41,561 मामले लंबित हैं। दूसरे नंबर पर महाराष्ट्र है, यहां 41,178 मामले लंबित हैं। तीसरे नंबर पर 32,992 लंबित मामलों के साथ कर्नाटक है। वहीं केन्द्रीय सूचना आयोग में भी करीब 24 हजार मामले लंबित हैं।
2. सूचना आयुक्तों की कमी
सूचना आयुक्तों की बहाली भी एक बड़ी चुनौती है। कानून के प्रावधानों के तहत प्रत्येक सूचना आयोग में 11 आयुक्त होने चाहिए। लेकिन केन्द्रीय सूचना आयोग में इस समय सिर्फ सात ही सूचना आयुक्त हैं। सोचने वाली बात ये है कि आने वाले चार महीनों में केन्द्रीय सूचना आयोग से मुख्य सूचना आयुक्त समेत चार आयुक्त रिटायर हो रहे हैं।
बता दें कि आंध्र प्रदेश के राज्य सूचना आयोग में एक भी सूचना आयुक्त नहीं है। यानी ये संस्थान इस समय पूरी तरह से निष्क्रिय है। महाराष्ट्र राज्य सूचना आयोग में इस समय चार पद खाली पड़े हैं। केरल राज्य सूचना आयोग में सिर्फ एक सूचना आयुक्त है। कर्नाटक राज्य सूचना आयोग में सूचना आयुक्तों के 6 पद खाली पड़े हैं। ओडिशा सूचना आयोग भी सिर्फ तीन सूचना आयुक्तों के भरोसे चल रहा है। इसी तरह तेलंगाना के सूचना आयोग में सिर्फ 2 सूचना आयुक्त हैं। पश्चिम बंगाल में भी सिर्फ 2 सूचना आयुक्त हैं। वहीं गुजरात, महाराष्ट्र और नागालैंड जैसी जगहों पर मुख्य सूचना आयुक्त ही नहीं हैं। यहां पर सूचना आयोग मुख्य सूचना आयुक्त के बिना काम कर रहे हैं।
3. जुर्माना न लगने की वजह से टालने वाला रवैया
जन सूचना अधिकारियों का रवैया आवेदनों को टालने का हो गया है। कई राज्यों में तो आवेदकों को आरटीआई दाखिल करने के लिए मेहनत करनी पड़ रही है। वहीं सूचना के अधिकार की धारा 6 (3) के तहत आवेदनों को एक टेबल से दूसरे टेबल का चक्कर लगवाया जाता है, जिससे तय समय पर सूचना नहीं मिल पाती है। अपीलें भी नजरअंदाज कर दी जाती हैं।
यही नहीं, सूचना देने से बचने के लिए लोक सूचना अधिकारियों और अपीलीय अधिकारियों की ओर से आरटीआई कानून की धारा 8 का अपनी सहूलियत के हिसाब से तोड़ने-मरोड़ने के कई उदाहरण सामने आए हैं।
आरटीआई कार्यकर्ता इसकी असल वजह आयोग द्वारा इन अधिकारियों पर कानून के प्रावधानों के तहत जुर्माना न लगाना मानते हैं।
4. पारदर्शिता से अधिक गोपनियता पर अधिक जोर
जानकारों का मानना है कि नई सरकार का पारदर्शिता के बजाए गोपनीयता पर जोर देने वाला रवैया ही सूचना के अधिकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। पिछले दिनों खुद केन्द्रीय सरकार ने अपने अफसरों और कर्मचारियों को ऑफिस मेमोरेंडम के रूप में जारी एक निर्देश में स्पष्ट तौर पर कहा था कि संवेदनशील सूचनाएं लीक नहीं होनी चाहिए। खुद आरटीआई से हासिल जानकारी यह बताती है कि तत्कालीन मोदी सरकार ने आरटीआई के प्रचार-प्रसार के बजट में 80 फीसदी राशि की कटौती की है। इससे सरकार की पारदर्शिता के बजाए गोपनीयता पर अधिक जोर देने की ही मंशा जाहिर होती है।
5. अदालती दखल व राज्य के नोटिफिकेशन
हाल के दिनों में विभिन्न अदालतों के आदेश व राज्य सरकार के नोटिफिकेशन से भी आरटीआई कमजोर हो रहा है। सूचना अधिकारी और आयुक्त इन नोटिफिकेशन और आदेशों का हवाला देकर सूचना देने से इंकार कर देते हैं। पिछले दिनों गोवा उच्च न्यायालय और मद्रास उच्च न्यायालय का आदेश काफी चर्चा में रहा। हालांकि मद्रास उच्च न्यायालय ने अपने फैसले को वापस ले लिया है। मध्य प्रदेश में राज्य सरकार ने नोटिफिकेशन निकाल कर गृह विभाग के साथ-साथ कई विभागों को आरटीआई के दायरे से बाहर कर दिया है। कई राज्यों में फीस भी अलग-अलग वसूल की जाती है।
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