प्रदूषण नियंत्रण के नाम पर हो रही है आंकड़ों की बाजीगरी
सूचकांक के लिए कुल 8 पैरामीटर को आधार बनाया गया है, जबकि वार्षिक रिपोर्ट में महज तीन पैरामीटर के आधार पर प्रदूषण का आकलन किया गया है। क्या इससे केन्द्रीय बोर्ड के आंकड़ों की विश्वसनीयता कम नहीं होती?
अमेरिका के युनिवर्सिटी आफ शिकागो में एनर्जी एंड पॉलिसी इंस्टीट्यूट ने वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक विकसित किया गया है। इसका आधार पीएम 2.5 को बनाया गया है। पीएम 2.5 हवा में तैरते ऐसे सूक्ष्म कण होते हैं जिनका आकार 2.5 माइक्रोमीटर से कम होता है। सूक्ष्म होने के कारण ये कण हमारी सांस के साथ सीधे फेफड़े में प्रवेश करते हैं और नुकसान पहुंचाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हवा में यह 10 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर से अधिक नहीं होना चाहिए जबकि हमारे देश में इसका मानक ही चार गुना अधिक यानी 40 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर है। सूचकांक में बताया गया है कि यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक का पालन किया जाए तो दिल्ली वासियों की औसत उम्र में 9 वर्ष बढ़ जाएंगे और अगर केन्द्रीय बोर्ड के मानक का पालन किया जाता है तब भी औसत उम्र में 6 वर्ष की बढ़ोतरी होगी। इससे पहले हार्वर्ड विश्वविद्यालय के पब्लिक पॉलिसी विभाग के वैज्ञानिकों ने 2014 में बताया था कि वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली वासियों की उम्र औसतन तीन वर्ष कम हो रही है। वर्ष 2016 में जियोग्राफिकल रिसर्च लेटर्स नामक पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार हवा में पीएम 2.5 अधिक होने के कारण देश में लोगों का औसतन उम्र 3.4 वर्ष कम हो रहा है, जबकि अत्यधिक प्रदूषण के कारण दिल्ली के लिए यह औसत 6.3 वर्ष है। इस अध्ययन को इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रांजिकल मेटेरियोलॉजी और अमेरिका के नेशनल सेन्टर फॉर एटमास्फेरिक रिसर्च ने मिलकर किया था। दुखद तथ्य यह है कि पर्यावरण और वन मंत्रालय हरेक ऐसे अध्ययन को लगातार नकारता रहा है।
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 12 जनवरी, 2017 को गजट अधिसूचना जारी कर बताया कि दिल्ली में विभिन्न स्तरों के वायु प्रदूषण के समाधान के लिए एक ग्रेडिड रिस्पांस एक्शन प्लान बनाया गया है। इसमें विभिन्न स्तरों के वायु प्रदूषण के नियंत्रण के लिए जरूरी उपाय दिए गए हैं और इसे लागू करने की जिम्मेदारी पर्यावरण प्रदूषण (निवारण एवं नियंत्रण) प्राधिकरण यानी ईपीसीए को सौंपी गई है। इस अधिसूचना के शुरू में ही बताया गया है, ‘दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण का बढ़ता स्तर गंभीर चिंता का विषय रहा है और प्रदूषण स्तरों में लगातार हो रही वृद्धि के विशेष संदर्भ में इस समस्या के समाधान के लिए तत्काल उपाय किए जाने की आवश्यकता है।’
यह कथन पर्यावरण मंत्रालय और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की नाकामी और लाचारी को दिखाता है। तथाकथित ग्रेडिड रिस्पांस एक्शन प्लान मंत्रालय या केन्द्रीय बोर्ड ने खुद नहीं बनाया है। यह एक्शन प्लान माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर बनाया गया है। जब तक न्यायालयों का निर्देश नहीं आता तब तक मंत्रालय या केन्द्रीय बोर्ड की नींद भी नहीं खुलती।
वायु गुणवत्ता सूचकांक की शुरूआत तत्कालीन पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बड़े तामझाम के साथ 17 अक्टूबर 2014 को की थी। उनके अनुसार सूचकांक ‘स्वच्छ भारत अभियान‘ के तहत शुरू किया गया। सूचकांक में वायु प्रदूषण की 6 श्रेणियां है- उत्तम, संतोषजनक, मध्यम, खराब, बहुत खराब और खतरनाक। इसके लिए आठ प्रदूषणकारी पदार्थों - पीएम 10, पीएम 2.5, नाइट्रोजन डाईऑक्साइड, सल्फर डाईऑक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड, ओजोन, अमोनिया और लेडका का चयन किया गया है। इन पदार्थों की हवा में मौजूदगी के आधार पर प्रदूषण की श्रेणियां बताई गई हैं, हरेक श्रेणी के लिए एक रंग निर्धारित किया गया है। इस सूचकांक को समाचार पत्रों और कुछ टीवी चैनलों द्वारा प्रचारित किया गया।
सूचकांक की सार्थकता कहीं भी नजर नहीं आती क्योंकि आम जनता को इससे मतलब नहीं है कि प्रदूषण कितना है? जनता के लिए तो यह जरूरी है कि प्रदूषण का स्तर कम हो, पर इसमें सभी सरकारी संस्थाएं लगातार नाकाम रही हैं। केन्द्रीय बोर्ड की वेबसाईट पर मार्च 2016 में 56 शहरों के 128 स्थानों के वायु गुणवत्ता सूचकांक उपलब्ध हैं। ये सारे शहर कुल 13 राज्यों में हैं। दिल्ली, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में प्रदूषण का स्तर कभी उत्तम या संतोषजनक नहीं रहा, जबकि अरूणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, मिजोरम, पुदुचेरी, और तेलंगाना में प्रदूषण का स्तर कभी खराब, बहुत खराब और खतरनाक नहीं रहा।
वायु गुणवत्ता सूचकांक और ग्रेडिड सिस्टम के तुलनात्मक अध्ययन से इतना तो स्पष्ट है कि दोनों अलग हैं और अलग तरीके से प्रदूषण को परिभाषित करते हैं, जबकि केन्द्रीय बोर्ड और पर्यावरण मंत्रालय के अधिकारी सर्वोच्च न्यायालय से लेकर आम जनता को बताते रहे हैं कि ग्रेडिड सिस्टम का आधार सूचकांक ही है। सूचकांक भी पूरी तरह से आंकड़ों की बाजीगरी है। केन्द्रीय बोर्ड की वेबसाइट पर सबसे ताजा वार्षिक रिपोर्ट 2014-2015 की है। इसमें पृष्ठ 32 पर स्पष्ट तौर पर लिखा गया है, ‘राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता प्रबोधन के अंतर्गत केवल तीन पैरामीटर, पीएम 10, सल्फर डाईऑक्साइड और नाइट्रोजन डाईऑक्साइड का आकलन किया जाता है। पृष्ठ 34 पर कुल 46 ऐसे शहरों की वायु गुणवत्ता दी गई है, जहां की आबादी 10 लाख या उससे अधिक है। इस तालिका में वे शहर शामिल हैं जिनका मार्च 2016 का वायु गुणवत्ता सूचकांक केन्द्रीय बोर्ड की वेबसाइट पर उपलब्ध है। सूचकांक के लिए कुल 8 पैरामीटर को आधार बनाया गया है, जबकि वार्षिक रिपोर्ट में महज तीन पैरामीटर के आधार पर प्रदूषण का आकलन किया गया है। क्या इससे केन्द्रीय बोर्ड के आंकड़ों की विश्वसनीयता कम नहीं होती?
वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार कुछ शहरों में सल्फर डाईऑक्साइड और नाइट्रोजन डाईऑक्साइड की मौजूदगी भी निर्धारित सीमा से अधिक बताई गई है, जबकि मार्च 2016 के सूचकांक में केवल पीएम 10 और पीएम 2.5 ही अधिक प्रदूषण का कारण बताया गया है।
केन्द्रीय बोर्ड और पर्यावरण मंत्रालय वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने में लगातार नाकाम रहा है। लोग मर रहे हैं, लोगों की उम्र घट रही है, पर ये संस्थान केवल आंकड़ों की बाजीगरी से प्रदूषण को नियंत्रित करने का कमाल कर रहे हैं।
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Published: 15 Sep 2017, 1:42 PM