मध्य प्रदेश: समस्याओं के समाधान के लिए नई सरकार को होगी बड़े पैमाने पर फंड की जरूरत
नोटबंदी के बाद से किसान परेशान हैं। डीजल, खाद, बीज महंगे हैं। फसल बेचने के बाद समय पर भुगतान नहीं होने से किसानों पर दोहरी मार पड़ रही है। ऐसा सिस्टम बनाना होगा कि पहले की तरह फसल बेचते ही किसानों को पैसे का भुगतान हो जाए।
राज्य सरकार भारी आर्थिक संकट के दौर से गुजर रही है। मतगणना के बाद अभी दिसंबर के पहले हफ्ते में सरकार ने जिस तरह कर्ज लिया है, उससे यह बात समझी जा सकती है। वैसे उससे पहले ही प्रदेश पर करीब 1.75 लाख करोड़ का कर्ज था। सरकार ने हर बड़े प्रोजेक्ट के लिए विदेशी बैंकों से कर्ज ले रखा है। दरअसल, लगभग हर बड़े कार्यक्रम के आयोजन में करोड़ों रुपये की फिजूलखर्ची की गई। दूसरी ओर, हाल यह है कि पैसे नहीं होने से कई प्रोजेक्ट अटके पड़े हैं। स्वाभाविक है कि नई सरकार को फंड की जरूरत होगी।
नोटबंदी के बाद से किसान परेशान हैं। डीजल, खाद, बीज महंगे हैं। फसल बेचने के बाद समय पर भुगतान नहीं होने से किसानों पर दोहरी मार पड़ रही है। ऐसा सिस्टम बनाना होगा कि पहले की तरह फसल बेचते ही किसानों को पैसे का भुगतान हो जाए। वैसे भी, इन चुनावों में किसान एक प्रमुख मुद्दा रहा है और ऐसा लगता है कि हार-जीत का पैमाना यह मुद्दा ही तय करेगा।
एक पार्टी के लगातार करीब 15 साल के शासन के बावजूद अधिकारियों-कर्मचारियों की जवाबदेही तय नहीं है। सरकार के चहेते और ऊपर तक पहुंच वाले कई अधिकारी-कर्मचारी वर्षों से एक ही जगह मलाईदार पदों पर जमे हैं। प्रशासनिक कसावट जरूरी है। सरकारी कार्यालयों में भ्रष्टाचार रोकने के लिए नया सिस्टम विकसित करना होगा।
पिछली सरकारें युवाओं को रोजगार देने के मामले में नाकाम रही हैं। राज्य में वर्ष 2014-15 से 2016-17 तक तीन साल में 43,713 लोगों को ही रोजगार मिल पाया है। लेकिन आंकड़ा किस तरह घटता गया है, यह जानना जरूरी है। वर्ष 2014-15 में 21 हजार से ज्यादा लोगों को रोजगार मिला, जबकि वर्ष 2016-17 में सिर्फ 5,320 युवाओं को नौकरी मिल पाई। प्रदेश में 21 से 30 वर्ष की आयु के लगभग 1.41 करोड़ युवा हैं। पिछले दो साल के दौरान यहां 53 प्रतिशत बेरोजगार बढ़े हैं।
यह हाल तब है जब प्रदेश में एक लाख से अधिक सरकारी पद रिक्त हैं। इन्हें भरने के लिए सरकार को कोशिश तेज करनी ही होगी। इस दिशा में उद्योग बड़े काम के हो सकते हैं। शिवराज सरकार ने पिछले वर्षों में ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट कर देश के बड़े-बड़े उद्योगपतियों के साथ करोड़ों रुपये के एमओयू किए। लेकिन अधिकांश एमओयू पर कोई काम नहीं हुआ। इस कारण रोजगार का अभाव रहा।
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