शहादत दिवस: क्यों कहा था भगत सिंह ने फांसी के तख्ते पर जाने से, पहले जरा ठहरो...
23 मार्च एक ऐसा दिन है, जो क्रांति के नाम है। इस दिन अंग्रेजों ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी थी। आज ही के दिन आजादी के दीवाने तीन मस्तानों ने खुशी-खुशी फांसी के फंदे को चूमा था।
भगत सिंह और उनके दोनों साथी राजगुरू और सुखदेव को फांसी तो दी जानी थी, लेकिन अंग्रेज सरकार ने तारीख तय की थी 24 मार्च, 1931 की सुबह। भगत सिंह की फांसी की तारीख पता चलते ही जेल के बाहर लोगों का इकट्ठा होना शुरु हो गया था। इससे अंग्रेज डर गए और उन्होंने तय तारीख से एक दिन पहले ही उन्हें फांसी देने का फैसला कर लिया।
आमतौर पर फांसी सुबह दी जाती है. लेकिन अंग्रेजों ने भगत सिंह को लाहौर सेंट्रल जेल में शाम को फांसी दे दी थी। तारीख थी 1931 की 23 मार्च. वक्त था शाम करीब साढ़े सात बजे का. ब्रिटिश सरकार ने भगत सिंह के साथ उनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरू को भी फांसी दी थी। जिस दिन भगत सिंह और उनके दोनों साथियों को फांसी दी गई, उस दिन वे बहत शांत और खुश थे। उसी दिन का एक किस्सा पढ़िए:
दोपहर के वक्त जेल में बंद अपने कुछ साथियों से रसगुल्ले की फरमाईश भगत सिंह ने भेजी। उन्होंने रसगुल्लों का इंतजाम किया। भगत सिंह ने बहुत प्रसन्नता से रसगुल्ले खाए। यही उनका अंतिम भोजन था। अब भगत सिंह ने फिर से अपने को लेनिन की जीवनी में लीन कर लिया। दुनिया में बुद्धिजीवी तो बड़े-बड़े हुए हैं पर क्या अध्ययनशीलता का ऐसा कोई उदाहरण मिलता है कि मौत सिर पर खड़ी हो और आप पुस्तक पढ़ रहे हों।
इतने में कोठरी का दरवाजा खुला व जेल अधिकारियों ने कहा-“सरदार जी, फांसी लगाने का हुक्म आ गया है।” भगतसिंह ने जवाब दिया-“जरा ठहरो, एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है।” पुस्तक का जो प्रसंग वे पढ़ रहे थे। उसे समाप्त कर उन्होंने पुस्तक रख दी। कहा-“चलो”। भगतसिंह के साथ, सुखदेव व राजगुरु भी अपनी कोठरियों से बाहर आ गए। तीनों साथी अंतिम बार गले मिले। एक दूसरे की बांहों को हाथ में लेते हुए उन्होंने गीत गाया।
“दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उलफत
मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी!”
पास खड़े अंग्रेज अधिकारी से भगतसिंह ने कहा-‘आप खुशकिस्मत हैं कि आज आप अपनी आंखों से यह देखने का अवसर पा रहे हैं कि भारत के क्रांतिकारी किस प्रकार प्रसन्नतापूर्वक अपने सर्वोच्च आदर्श के लिए मृत्यु का आलिंगन कर सकते हैं। फिर तीनों वीरों ने नारा लगाया-‘इन्कलाब जिन्दाबाद’, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद,’ और उसके बाद आजादी के यह तीनों दीवाने फांसी के तख्ते पर झूल गए।
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Published: 23 Mar 2018, 7:31 AM