कर्नाटक चुनाव विश्लेषणः राजनीति के खेल में मंजे हुए खिलाड़ी साबित हुए राहुल गांधी
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव में पराजय के बावजूद अपनी पार्टी को सत्ता में बरकरार रखकर जिस राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया है, वह उन्हें राजनीति का एक मंजा हुआ खिलाड़ी साबित करता है।
कर्नाटक में राहुल गांधी ने राजनीति की बिसात पर जो चालें चलीं, उससे न केवल उनकी पार्टी सत्ता में दोबारा लौटकर आयी, बल्कि प्रतिद्वंद्वी बीजेपी के बड़े-बड़े सूरमा सहित वे सभी धराशायी हो गए, जो राहुल को हल्के में ले रहे थे। कांग्रेस अध्यक्ष ने जेडीएस को अपने साथ जोड़कर '2019 का समीकरण' भी अपने पक्ष में कर लिया है।
दरअसल, राहुल गांधी के धुर विरोधियों को इस बात की उम्मीद भी नहीं रही होगी कि वे कर्नाटक की राजनीतिक बिसात पर उन्हें इस तरह धूल चटा देंगे। कर्नाटक के जरिये राहुल ने एक तीर से कई निशाने साध लिए हैं। राजनीति के मैदान से लेकर कोर्ट के कटघरे तक राहुल की कांग्रेस ने अपने प्रतिद्वंद्वी दल को जिस तरह आईना दिखाया है, उसकी तस्वीर भारतीय जनमानस पर लंबे समय तक बनी रहेगी। कम से कम 2019 तो इसकी एक कसौटी रहेगी ही।
कर्नाटक विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान जेडीएस को कांग्रेस और राहुल गांधी बीजेपी की बी टीम कहकर कटघरे में खड़ा कर रहे थे। हो न हो, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा के प्रति नरमी और कई सीटों पर जेडीएस उम्मीदवारों के खिलाफ कमजोर बीजेपी उम्मीदवार कुछ ऐसी तस्वीर पेश कर रहे थे कि बीजेपी और जेडीएस के बीच कांग्रेस को पराजित करने के लिए कोई अंदरूनी समझौता हो चुका है। राजनीतिक गलियारों में इस बात की भी चर्चा थी कि त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में बीजेपी जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बना लेगी। कुमारस्वामी पहले भी एक बार बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बन चुके थे, इसलिए इस कयास को बल मिल रहा था।
चुनाव परिणाम में विधानसभा की जो तस्वीर उभर कर सामने आई, उसमें इस बात की पूरी संभावना थी कि बीजेपी, जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बना लेती। लेकिन इस खेल को कांग्रेस के 'मंजे हुए खिलाड़ी' ने बिगाड़ दिया। बीजेपी अभी अपनी सीटों के अंतिम आंकड़े का इंतजार ही कर रही थी कि कांग्रेस ने कुमारस्वामी को बिना शर्त समर्थन दे दिया। अब 38 सीटों वाली पार्टी के लिए बिना शर्त समर्थन से बड़ा प्रस्ताव तो और कुछ हो नहीं सकता था। खासतौर से कुमारस्वामी के लिए, जो खुद को अब तक किंगमेकर के बदले किंग बनने का दावा कर रहे थे।
एक तरफ मुख्यमंत्री पद की मुंहमांगी मुराद पूरी हो रही थी, तो दूसरी तरफ बीजेपी से दूर रहकर पार्टी की सेक्यूलर छवि भी सुरक्षित। जेडीएस की साझेदार बीएसपी की अध्यक्ष मायावती ने भी इस प्रस्ताव का समर्थन किया। कुमारस्वामी ने समर्थन स्वीकार कर लिया और सरकार बनाने को तैयार हो गए।
बीजेपी अब दोराहे पर खड़ी थी। उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि करे तो क्या करे। सांप-छछूंदर की स्थिति। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह वाराणसी में दर्दनाक हादसे के बावजूद दिल्ली में कर्नाटक जीत का जश्न मना चुके थे। कर्नाटक की जीत को अभूतपूर्व जीत करार दे चुके थे। ऐसे में सरकार बनाने का दावा पेश न करना भी उनके लिए आत्महत्या करने के बराबर था। लिहाजा, उन्होंने कर्नाटक में उस खेल को हरी झंडी दिखा दी, जिसे राजनीति में ‘अनैतिक’ कहा जाता है।
कर्नाटक में कांग्रेस की कमान वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद और अशोक गहलोत ने संभाली, तो बीजेपी की तरफ से केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर और अनंत कुमार तैनात थे। दिल्ली में कांग्रेस की तरफ से अभिषेक मनु सिंघवी और कपिल सिब्बल थे, तो बीजेपी की तरफ से पूर्व महान्यायवादी मुकुल रोहतगी और अतिरिक्त महाधिवक्ता तुषार मेहता थे।
लेकिन इस बार कर्नाटक की पिच और कांग्रेस की टीम थोड़ी अलग निकली। राहुल ने यह स्पष्ट संदेश दिया है कि अब कांग्रेस पहले वाली कांग्रेस नहीं है, बल्कि यह उनकी कांग्रेस है, जो मैदान से लेकर कानून के कटघरे तक खेलना और जीतना जानती है। यह संदेश बाकी विपक्षी दलों के लिए भी था, कि भाजपा से लड़ने और जीतने की क्षमता किसी दल में है, तो वह सिर्फ कांग्रेस ही है।
बहरहाल, राहुल के चक्रव्यूह में खुद को घिरता देख, बीजेपी ने अंतत: मैदान से हटने का निर्णय लिया। राहुल की कांग्रेस ने बीजेपी के विजयरथ को रोक दिया। लाख कोशिशों के बावजूद बीजेपी 112 की संख्या नहीं जुटा पायी और बीएस येदियुरप्पा को शपथ ग्रहण के दो दिन बाद ही मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा।
इस पूरे घटनाक्रम में देखें तो दोनों टीमों की तरफ से हर खिलाड़ी ने अपनी पूरी क्षमता के साथ खेलने की कोशिश की। लेकिन सिकंदर तो वही कहलाता है, जो जीतता है।
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