जेएनयू छात्रसंघ चुनावः प्रेसिडेंशियल डिबेट संपन्न, कल डाले जाएंगे वोट, 16 को आएंगे नतीजे
जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में ‘प्रेसिडेंशियल डिबेट’ का खासा महत्त्व है और माना जाता है कि जिस प्रत्याशी का भाषण जितना ज्यादा स्पष्ट, प्रभावी और दमदार होता है, उसकी जीत की संभावना उतनी ही अधिक होती है। जेएनयू में 14 सितंबर को मतदान होगा और 16 को नतीजे आएंगे।
वैसे तो छात्रसंघ का चुनाव देश के अलग-अलग विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में बड़े जोर-शोर के साथ लड़ा जाता है, लेकिन दिल्ली में वामपंथ का गढ़ समझे जाने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय ( जेएनयू) छात्रसंघ का चुनाव अपनी विशेष प्रकृति के लिए जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि जेएनयू का चुनाव अन्य विश्वविद्यालयों के धनबल और बाहुबल के चुनाव से हटकर विचारधारा और बौद्धिकता के स्तर पर लड़ा जाता है।
जेएनयू में नामांकन प्रक्रिया संपन्न हो चुकी है और प्रमुख वाम-दलों सहित एबीवीपी-एनएसयूआई, बाप्सा (बिरसा,अम्बेडकर,फूले स्टूडेंट्स एसोशिएशन) के प्रत्याशी चुनावी मैदान में हैं। 12 सितंबर की रात जेएनयू में प्रेसिडेंशियल डिबेट का आयोजन किया गया, जिसमें सभी प्रमुख संगठनों सहित अध्यक्ष पद के निर्दलीय प्रत्याशियों द्वारा भी अपना और अपने संगठन का एजेंडा छात्रों के सामने रखा गया। साथ ही साथ विश्वविद्यालय की स्थानीय समस्याओं से लेकर देश और विदेश के प्रति उनका क्या दृष्टिकोण है, उस पर भी विचार रखे गए और सवालों के जवाब दिए गए।
जेएनयू में 'प्रेसिडेंशियल डिबेट' का खासा महत्त्व होता है और ऐसा माना जाता कि जिस प्रत्याशी का भाषण जितना ज्यादा स्पष्ट, प्रभावी और दमदार होता है उसकी जीत की संभावना उतनी ही अधिक होती है। वहीं बुधवार की रात डिबेट से कुछ घंटे पहले एनएसयूआई के द्वारा कैंपस के अंदर 'मशाल-जुलूस' भी निकाला गया।
जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में एक बार फिर वाम-संगठनों ने आपस में गठबंधन कर लिया है। पिछले साल जहां आइसा,डीएसएफ और एसएफआई चुनावी गठबंधन का हिस्सा थीं, वहीं इस बार एआईएसएफ भी इस गठबंधन में शामिल हो गयी है, जिससे कभी कन्हैया कुमार प्रत्याशी बनकर जेएनयूएसयू के अध्यक्ष रहे थे। वहीं बीते चुनावों में सभी चारों पदों पर दूसरे नंबर पर रहने वाली एबीवीपी और एनएसयूआई और बाप्सा ने चुनावी मैदान में अपने-अपने प्रत्याशी स्वतंत्र रूप से उतारे हैं। वहीं इस बार अध्यक्ष पद पर निर्दलीय उम्मीदवारों के साथ-साथ जयंत कुमार के रूप में लालू यादव की पार्टी आरजेडी और निधि मिश्रा के रूप में 'सवर्ण-मोर्चे' की जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में एंट्री हुई है। निधि मिश्रा जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष पद के लिए खड़ी होने वाली पहली दृष्टि बाधित उम्मीदवार हैं। वह अंतरराष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी हैं। उन्होंने कई पदक अपने नाम किये हैं। इसी के साथ उपाध्यक्ष, महासचिव और सहसचिव पद पर भी अलग-अलग संगठनों के चार-चार प्रत्याशी खड़े हैं।
जेएनयू छात्रसंघ के चुनाव का महत्त्व इसी बात से समझा जा सकता है कि चुनाव प्रचार में राष्ट्रीय दलों के दिग्गज नेताओं ने भी अपनी ताकत झोंक रखी है। कुछ दिन पहले एनएसयूआई के समर्थन में जहां पी चिदंबरम, शशि थरूर और सलमान खुर्शीद ने जेएनयू जाकर छात्रों से संवाद किया था, वहीं विद्यार्थी परिषद के समर्थन में पूर्वोत्तर के तीन मुख्यमंत्री कोयना छात्रावास में आयोजित परिचर्चा में शामिल हुए थे।
जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में सभी दलों के अपने-अपने मुद्दे हैं। लेकिन कुछ ऐसे मुद्दे हैं जो सभी दलों में समान रूप से पाए जाते हैं, जैसे- अनिवार्य उपस्थिति को खत्म कराना, दाखिले में सौ प्रतिशत साक्षात्कार को खत्म करना, सीट कटौती का विरोध, जेंडर सेन्सेटाइजेशन कमिटी अगेंस्ट सेक्सुअल हरासमेंट को बहाल कराना, स्कॉलरशिप में वृद्धि, 24 घंटे हेल्थ सेन्टर और ढाबे की व्यवस्था, नये छात्रावासों का निर्माण और पुराने छात्रावासों का मरम्मतीकरण, लैंगिक और धार्मिक आधार पर भेदभाव को खत्म कर सामाजिक न्याय की स्थापना करना इत्यादि।
ऐसे में जब देश के अंदर राष्ट्रवाद बनाम देशद्रोह और एससी-एसटी की बहस छिड़ी हुई है, जेएनयू के छात्र संगठनों का विचार जानना भी जरूरी है। जब हमने एबीवीपी के जेएनयू प्रेसिडेंट विजय कुमार से बात की और 'वाम गठबंधन' की चुनौती और ‘राष्ट्रद्रोह में जेएनयू छात्रों की सहभागिता’ पर प्रश्न किया तो उनका साफ कहना था कि - “जेएनयू को राष्ट्रद्रोहियों का गढ़ कहना गलत है, ये सिर्फ कुछ एक छात्रों की मानसिक उपज है। रही बात वाम दलों के गठबंधन की तो वह हमारी वैचारिक जीत है और यही कारण है कि ये सभी डर कर सिमट गए हैं और हमारे खिलाफ एक हो गए हैं।”
वहीं जब देश के अंदर मोदी सरकार एससी-एसटी को लेकर सवर्णों के विरोध का भीषण सामना कर रही है, ऐसे में सवर्ण छात्र मोर्चा की तरफ से अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ रहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर की खिलाड़ी निधि मिश्रा से हमने बात की और आरक्षण पर उनके विचार और एजेंडे को जानने की कोशिश की तो उनका जवाब था, “सोशल जस्टिस के नाम पर सवर्णों को सभी दलों ने छला है, आरक्षण को आर्थिक आधार पर लागू किया जाना चाहिए और जितने भी शोषित, पीड़ित और गरीब लोग हैं, वे चाहे जिस भी जाति और धर्म के हों उनको उसका लाभ मिलना चाहिए। हम किसी भी वर्ग के अधिकार को छीनकर अपना अधिकार नहीं लेना चाहते किन्तु सोशल और इकोनॉमिक जस्टिस की सही मायने में मांग करते हैं। बाप्सा जैसे संगठन गंदी राजनीति करते हैं।”
उधर दलित संगठन बाप्सा के कार्यकर्ता और झेलम के अध्यक्ष सुमित कुमार का कहना है, “बाप्सा लेफ्ट, राइट और सेंटर की राजनीति से मुक्त है। हम खुद सक्षम हैं और खुद से अपनी आवाज उठाएंगे। एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्ग के लिए हमारा संगठन संघर्ष करता आया है। हम धारा-377 पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हैं। यही कारण है कि हमने काउंसलर के एक पद पर एलजीबीटी समुदाय से आने वाले एक छात्र को प्रत्याशी बनाया है।शिक्षा, समानता और बहुजन हिताय हमारा मुख्य उद्देश्य है।”
ऐसे में देखने वाली बात है कि जेएनयू छात्र संघ चुनाव में बाजी किसके हाथ जाती है? विश्वविद्यालय के विद्यार्थी वर्षों से चली आ रही परंपरा के रूप में 'वाम-दलों के गठबंधन' पर ही विश्वास करते हैं या फिर नेतृत्व किसी और संगठन को सौंपना पसंद करेंगे! चुनाव कल यानि 14 सितंबर को होने तय हैं जिसका परिणाम 16 को घोषित किया जाएगा।
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