गौरी लंकेश: प्रतिबद्धता और साहस की आवाज

बेंग्लुरु जैसे आमतौर पर ‘सुरक्षित’ माने जाने वाले शहर में पत्रकार-एक्टिविस्ट गौरी की नृशंस हत्या ने कई स्तब्ध लोगों को सदमे और दर्द से भर दिया है।

गौरी लंकेश/ फोटोः Twitter
गौरी लंकेश/ फोटोः Twitter
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प्रीति नागराज

जातिविहीन समाज के लिए उनकी प्रतिबद्धिता का कोई जोड़ नहीं था। उन्होंने अपने तीखे और चुटीले सवालों से धार्मिक संस्थाओं को मलबे में तब्दील कर दिया था। उनकी विचारधारा जनता के पक्ष में थी जिसमें अल्पसंख्यक समुदायों के कल्याण के लिए विशेष जोर था। अपने मुकाम पर पहुंचने से पहले उनके संघर्षों को लंबा रास्ता तय करना पड़ा। 55 साल की गौरी लंकेश बहुत जल्दी हमें छोड़ गईं। बेंग्लुरु जैसे आमतौर पर ‘सुरक्षित’ माने जाने वाले शहर में पत्रकार-एक्टिविस्ट गौरी की नृशंस हत्या ने कई स्तब्ध लोगों को सदमे और दर्द से भर दिया है।

गौरी की मृत्यु एक पूर्वनियोजित हत्या है, जिसकी योजना काफी अच्छी तरह से बनाई गई थी और जिसे एक तर्कपूर्ण, साफ और जीवन के पक्ष में खड़ी विचारधारा से निडरता से जुड़े व्यक्ति को खत्म करने के लिए अंजाम दिया गया।

जब भी बीजेपी की विचारधारा और मानवता की आत्मा को नुकसान पहुंचान वाले आरएसएस के दुष्प्रभावों की आलोचना करने की बात आई, वाम झुकाव रखने वाली गौरी ने अपने शब्दों को दबाया नहीं। जेएनयू के पूर्व छात्र नेता कन्हैया और शहला राशिद और दलित नेता जिग्नेश मेवानी से उनके संपर्क को लेकर काफी बहसें हुईं। गौरी ने इसे लेकर कतराने का रास्ता नहीं चुना और उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा भी कि वे उनके ‘बच्चे’ हैं। यहां तक कि जो गौरी से नफरत करते थे, उनके बारे में भी गौरी ने कहा, ‘वे भी मेरे बच्चे हैं, हालांकि नफरत फैलाने वालों ने उन्हें भटका दिया है।‘

यह कहना बहुत कम होगा कि दबी जबान में जातिवाद का समर्थन करने वाली संस्थाएं उनके सवालों से चिढ़ी रहती थीं। वह एक अलग तरह की पत्रकार थीं जो अपने पेशे को एक सक्रिय भागीदारी तक ले गईं, और समाज में उन बदलावों का हिस्सा बनीं जिसे वे होते हुए देखना चाहती थीं।

जब उन्होंने अपने पिता पी लंकेश की अति लोकप्रिय लंकेश पत्रिका का जिम्मा उठाया तब वह पत्रिका अपने गौरवपूर्ण दिनों के अंतिम दौर में थी जैसा उसने 1980 के दशक में देखा था। अपने सबसे लोकप्रिय दिनों में इस पत्रिका के 4.5 लाख पाठक थे और इसे विज्ञापनदाताओं से कोई समर्थन नहीं हासिल था। लंकेश की तरह ही उनकी पत्रिका साफ-साफ बात करने में यकीन रखती थी और थोड़ी गैर-पारंपरिक होते हुए भी जनता और मानवता की पक्षधर थी। उसने उस व्यवस्था पर सवाल खड़े किए जो समझौतापरस्त थी और राजनीति के सुविधाजनक साथियों का पर्दाफाश किया। लंकेश पत्रिका का इन मुद्दों पर विशेष जोर था।

कहीं न कहीं गौरी को यह एहसास था कि हम कैसे समय में रह रहे हैं और असहमति की आवाज के लिए यह कतई ठीक नहीं है। अतीत में दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने यह कहा भी कि उनके पिता और यू आर अनंतमूर्ति जैसे उनके समकालीनों ने इंदिरा गांधी, नेहरू और राजीव गांधी के खिलाफ खूब लिखा लेकिन उन्हें कभी हत्या की धमकी नहीं दी गई। उसी सांस में उन्होंने यह भी कहा कि ‘दक्षिणपंथी सत्ता उन्हें चुप कराना चाहती है।‘ यह एक ऐसा वक्तव्य है जो शायद त्रासद रूप से उनकी मृत्यु का कारण समझाता है।

कन्नड़ पत्रकारिता के लिए गौरी ‘बाहरी’ थीं, लंकेश पत्रिका इसी भाषा में प्रकाशित होती थी। जनवरी 2000 में उनके पिता की मृत्यु के बाद गौरी और उनके परिवार के सदस्यों ने लंकेश पत्रिका को बंद करने का निर्णय लिया। लेकिन इस अति लोकप्रिय पत्रिका के प्रकाशक मणि ने परिवार के सदस्यों का हौसला बढ़ाया और यह सुनिश्चित किया कि यह नाम और पत्रिका आगे चलती रहे। उस समय तक गौरी एक अंग्रेजी की पत्रकार थीं। एक ‘राष्ट्रीय’ पत्रकार से साहसी और सक्रिय कन्नड़ पत्रकार में तब्दील होने का उनका कायांतरण एक ऐसी कहानी है जिसे जरूर सुना जाना चाहिए। अपने भाई इंद्रजीत लंकेश के साथ कुछ निजी समस्याओं के चलते उन्होंने लंकेश पत्रिका को छोड़कर 2000 के मध्य में ‘गौरी लंकेश पत्रिका’ शुरू किया। आर्थिक रूप से यह गौरी के लिए कतई फायदेमंद नहीं थी, लेकिन उन्होंने इसे चलाना जारी रखा ताकि आंदोलनों का समर्थन किया जा सके, एक जातिविहीन और समानता आधारित समाज बनाने में मदद की जा सके, और अपनी विचारधारा को विस्तार से बताया जा सके।

कई उदाहरण से पता चलता है कि गौरी ने तर्क की बजाय अपने दिल की सुनी। उनके कई सहयोगियों ने दक्षिणपंथी विचारधारा की तरफ रुख कर लिया जो कई दफा कुटनीतिक भी था, जबकि हर गुजरते दिन के साथ खुले तौर पर गौरी का और ज्यादा वाम झुकाव दिखने लगा। नक्सलवाद के प्रति आम समझ में तब्दीली लाने को लेकर किया उनका प्रयास किसी दुस्साहस से कम नहीं था। उन्होंने कई नक्सली नेताओं को हथियार छोड़कर सरकार से संवाद करने के लिए और मुख्यधारा से जुड़ने के लिए प्रेरित किया। उन बदले हुए नक्सलियों के जरिये कई और नक्सली भी हथियार छोड़कर मुख्यधारा के समाज से जुड़ने लिए प्रयासरत हुए।

अक्सर सरकार द्वारा खड़े किए गए सामाजिक मद्दों के प्रति बिना किसी डर वाले तौर-तरीकों ने कई लोगों को गौरी का ‘दुश्मन’ बना दिया। कुछ लोग उनसे नफरत करने लगे, लेकिन शायद उस नफरत ने उनकी जान नहीं ली। उनकी मृत्यु शायद लंबे समय तक सेकुलर लोगों को तकलीफ देती रहेगी।

बीजेपी कह सकती है कि यह ‘हत्या कांग्रेस शासित प्रदेश में हुई’। यह वही बात होगी जैसा उन्होंने दो साल पहले धारवाड़ के पुराने शहर में प्रो एम एम कलबुर्गी की हत्या के वक्त कहा था ताकि कट्टरवादी ताकतों को उस मामले से बचाया जा सके। लेकिन जो बात इन दोनों मामलों में ध्यान देने की है और इसमें पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र में हुए पनसरे और दाभोलकर की हत्या को भी जोड़ दें तो वह यह है कि उन सभी को इसलिए चुप कराया गया क्योंकि वे ‘दक्षिणपंथ की विचारधारा के खिलाफ’ थे।

गौरी की हत्या के पीछे की मंशा को पहले से ही उनके द्वारा काफी अलग तरीके से पेश किया जा रहा है जो शायद उन्हें चुप देखना चाहते थे। वह यह कि परिवार के एक सदस्य के साथ उनका ‘संपति विवाद’ था। इसके साथ-साथ पनसरे, दाभोलकर, कलबुर्गी की हत्या से भी यह काफी मिलता-जुलता है। एक दुख भरे झगड़े का ऐसा ही एक सिद्धांत उस समय भी सामने आया था। यह एक अलग बहस है कि इसमे रत्ती पर भी सच्चाई है या नहीं। बड़ा मुद्दा यह है कि वे सब किन सवालों को उठाते रहे, उन्हें कैसे एक-एक करके चुप कराया गया।

अपनी मृत्यु से गौरी ने कई लोगों को जगा दिया है जो वे अपने जीते जी भी नहीं कर पाईं थीं। कुछ लोग थे जो उनसे असहमत थे, और जिन्होंने समाज की समस्याओं का समाधान ढूढ़ने के उनके तरीकों और समझ को खारिज कर दिया था। उनकी आंखों में भी आज आंसू हैं, जब वे उन्हें अंतिम विदाई देने वाले हैं। वह एक योद्धा थीं, और कभी अपने आप को बचाने के लिए किनारों पर रहने वालों में शामिल नहीं हुईं। उनके साथ कर्नाटक ने एक साहसी आवाज को दी है। उम्मीद है कि उनके हत्यारे जल्द ही पकड़े जाएंगे और यह पता चल सकेगा कि उन्हें किसने और किसलिए मारा, और यह निडर आवाज वाली महिला किसके लिए और किसी चीज के लिए खतरा थीं।

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