किसानों को आर्थिक सुरक्षा मिले, कृषि को आर्थिक गतिविधि की तरह लिया जाएः देवेंद्र शर्मा
जाने-माने कृषि, खाद्य और व्यापार नीति विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा मूलतः कृषि वैज्ञानिक हैं। उनका कहना है कि भारत में ‘कीमत नीति’ से ‘आय नीति’ की ओर बढ़ने का समय आ गया है, जिसका मतलब है कि कुछ वर्षों में सरकार को किसानों को निश्चित मासिक आय की गांरटी देनी होगी।
देवेंद्र शर्मा जाने-माने कृषि, खाद्य और व्यापार नीति विशेषज्ञ हैं। पत्रकारिता के लिए पुरस्कृत हो चुके देवेंद्र शर्मा मूलतः कृषि वैज्ञानिक हैं। उन्होंने पत्रकारिता छोड़कर खाद्य और व्यापार नीतियों पर काम करना शुरू किया। एक लेखक और शोधकर्ता के रूप में उनकी ख्याति है। खासकर कृषि को लेकर उनका लेखन और गंभीर शोध कार्य काफी महत्वपूर्ण है। उनका मानना है कि किसानों को लेकर आर्थिक तंत्र पक्षपाती है। किसानों से जुड़े ज्वलंत मुद्दों पर देवेंद्र शर्मा से नवजीवन के लिए सरबजीत धालीवाल ने बातचीत की।
आप किसानों को डायरेक्ट इनकम स्पोर्ट की वकालत करते रहे हैं। अब सरकार ने छोटे किसानों, जिनके पास पांच एकड़ से कम जमीन है, के लिए प्रतिवर्ष छह हजार रुपये मदद देने की घोषणा की है। क्या आप मानते हैं कि नगद हस्तांतरण कृषि संकट की समस्या हल करने का तरीका है?
चार दशक से भी अधिक समय से कृषि आय कमोबेश स्थिर बनी हुई है। बहुत सारे अध्ययन बताते हैं कि वास्तविक कृषि आय में गिरावट आई है। हाल में, नीतिआयोग का अध्ययन बताता है कि वित्तीय वर्ष 2011-12 और 2015-16 के पांच वर्षों के दरम्यान वास्तविक कृषि आय में प्रतिवर्ष आधी फीसदी से भी कम की बढ़ोतरी हुई है, जो वास्तव में 0.44 प्रतिशत है। नोटबंदी के बाद, कृषि उपजों की कीमतों में गिरावटआई। किसानों का गुस्सा साफ देखा जा सकता था। हिंदी पट्टी के राज्यों में हार के बाद सरकार किसानों के लिए डायरेक्ट इनकम सपोर्ट का विचार सामने लाई। यूनिवर्सल बेसिक इनकम (सभी को दी जाने वाली एक बुनियादी आमदनी) की अवधारणा की तरह, मैं मानता हूं कि आर्थिक सोच में डायरेक्ट इनकम सपोर्ट महत्वपूर्ण बदलाव है। कई वर्षों से मैं डायरेक्ट इनकम सपोर्ट के बारे में बात कह रहा हूं। यहां तक कि अमेरिका और यूरोप में लंबे समय से किसानों को डायरेक्ट इनकम सपोर्ट मिल रहा है। भारत में ‘कीमत नीति’ से ‘आय नीति’ की ओर बढ़ने का समय आ गया है, जिसका मतलब है कि कुछ वर्षों में सरकार को किसानों को निश्चित या गांरटी वाली मासिक आय उपलब्ध करानी होगी। कब तक किसानों को बाजारों की निरंकुशता का सामना करने के लिए छोड़ सकते हैं?
लेकिन बहुत सारे लोगों का कहना है कि छह हजार की मदद बहुत कम है और काफी देर हो चुकी है...?
हां, साल में छह हजार का मतलब है पांच सौ रुपये महीना या एक दिन का 17 रुपये से भी कम। मैं यह नहीं समझ पाता कि सरकार यह कैसे सोचती है कि इतनी छोटी सी धनराशि से वह किसानों को मौजूदा विकराल कृषि संकट से बाहर निकाल लेगी। मैं नहीं जानता कि सरकार ऐसा कैसे सोचती है कि वह प्रतिमाह पांच सौ के जरिए किसानों को आत्महत्या के फंदे से निकालने में सक्षम होगी। लगता है कि तुरंत लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि आम चुनाव से पहले छोटे किसानों के बैंक खातों में दो हजार रुपये की पहली किश्त चली जाए, जिसके लिए बीस हजार करोड़ रुपये का बजटीय प्रावधान किया गया है। इसमें कभी कोई संदेह नहीं रहा कि नीति बनाने के स्तर पर व्यवहारिक विचारों और सोच में अकाल सा रहा है। अन्यथा कोई कारण नहीं है कि कृषि संकट कई गुना बढ़कर इस तरह से गंभीर हो जाए। लेकिन छोटे किसान को हर माह पांच सौ रुपये देना और फिर यह सोचना कि यह चमत्कार कर देगा, साफ है कि योजना बनाने और जमीनी हकीकतों के बीच जो दूरी है यह उसी को प्रतिबिंबित करता है। कम से कम छोटे किसान परिवार को सीधे आय की मदद को छह हजार से बढ़ाकर 12 हजार किया जा सकता था।
लेकिन पैसा कहां से आएगा?
जब भी किसानों का कर्ज माफ किया जाता है या उन्हें वित्तीय मदद दी जाती है तो यह सवाल मैं बार-बार सुनता हूं। जब कॉरपोरेट का बट्टे खाते में जा चुका कर्जा माफ कर दिया जाता है, तो कोई यह नहीं पूछता कि पैसा कहां से आएगा। अप्रैल 2014 से अप्रैल 2018 तक 3.17 लाख करोड़ के कॉरपोरेट ऋण फंस चुके थे, और तब वित्तीय असंतुलन या धन कहां से आएगा, का सवाल कभी भी नहीं उठाया गया। अब इनकम सपोर्ट पर आते हैं। अगर केवल सरकार इनकम सपोर्ट दोगुना कर दे या छोटे किसानों की 12 हजार रुपये सालाना मदद कर दे, तो मैं इससे वाकिफ हूं कि बजटीय आवंटन दोगुना हो जाएगा। पीयूष गोयल ने कहा कि छह हजार की मदद के लिए एक वर्ष में 75 हजार करोड़ रुपये के अतिरिक्त धन की जरूरत होगी। अगर यह राशि दोगुनी कर दी जाए, बजटीय जरूरत बढ़कर 1.5 लाख करोड़ हो जाएगी। इससे पहले की आप यह कहें कि धन कहां से आएगा, तब मैं आपको बताना चाहूंगा कि 2008-09 से, जब वैश्विक आर्थिक मंदी थी, कॉरपोरेट क्षेत्र को दिए जाने वाले 1.86 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक राहत पैकेज को तुरंत खत्म करने की जरूरत थी। यह कोई नहीं जानता कि यह राहत पैकेज अभी भी क्यों दिया जा रहा है। किसी ने भी इसके वित्तीय परिणामों के बारे में नहीं पूछा। जिसका मतलब है कि देश ने दस वर्षों में 18.60 लाख करोड़ रुपये खर्च किए हैं। क्या यह छोटी राशि है? और देखिए, यह अभी दिया जा रहा है। इस आर्थिक राहत पैकेज को बंद क्यों नहीं किया जा सकता और इसे कृषि की तरफ क्यों नहीं मोड़ा जा सकता? अगर यह कर दिया जाए, मुझे यकीन है कि वित्तमंत्री किसानों के लिए 15 हजार रुपये प्रतिमाह के डायरेक्ट इनकम सपोर्ट की घोषणा कर सकते हैं।
मैं सहमत हूं, लेकिन दो गलतियां इसे सही नहीं ठहरा सकती?
मैं भी आपसे सहमत हूं। लेकिन पहले मुझे यह बताइए कि आप आखिर यह क्यों सोचते हैं कि एक गलती इसे कैसे सही ठहरा सकती है? यह क्यों है कि पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम यह कहते हैं कि कॉरपोरेट ऋणों को माफ करना आर्थिक वृद्धि को बढ़ाता है और कृषि ऋणों को माफ करना कर्ज अनुशासनहीनता को बढ़ाता है और आरबीआई के पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल ने कृषि ऋण माफी को नैतिक जोखिम तक कहा था? क्या यह विलफुल कॉरपोरेट डिफॉल्टर्स का बचाव करने का आसान तरीका नहीं है? मेरिल लिंच हमें बताने के लिए यहां तक चली गई कि कृषि कर्ज माफी, जो 1.9 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच चुकी है, की राशि जीडीपी का दो प्रतिशत है। लेकिन इसने हमें यह कभी नहीं बताया कि 10.3 लाख करोड़ रुपये का एनपीए जीडीपी के अर्थ में कितना फीसदी बैठता है। तो खुलेआम पक्षपाती आर्थिक तंत्र किस तरह से काम करता है। जब आप गरीब को पैसा देते हैं, इसे सब्सिडी कहा जाता है, एक ऐसा शब्द जिसे काफी खराब रूप में प्रदर्शित किया जाता है। लेकिन जब आप कॉरपोरेट को टैक्स में बहुत बड़ी मात्रा छूट देते हैं, इसे ग्रोथ के लिए प्रोत्साहन कहा जाता है। कोई आश्चर्य नहीं, मैं हमेशा कहता हूं कि यह कॉरपोरेट के लिए समाजवाद और किसानों के लिए पूंजीवाद है।
किसान अधिकतम समर्थन मूल्य(एमएसपी) की मांग कर रहे हैं, जैसा कि स्वामीनाथन आयोग द्वारा सुझाया गया था और वे कर्जमाफी भी चाहते हैं। क्या आप मानते हैं कि उनकी मांगें न्यायोचित हैं?
कृषि कर्ज माफी त्वरित राहत है, जिसकी किसानों को जरूरत है। आखिरकार, अगर चार दशकों से किसानों को उनकी वैध आय से इनकार किया गया और वे कर्ज लेकर जी रहे हैं और कर्ज को चुकाने के लिए अन्य स्रोतों से और कर्ज लेते हैं, तो देश को उनके साथ खड़ा क्यों नहीं होना चाहिए और देखना चाहिए कि वे हमेशा के लिए आर्थिक बोझ से मुक्त हो जाएं? आर्थिक बोझ जो वे लेकर चल रहे हैं उससे छुटकारे का अवसर किसानों को दें। ओईसीडी-आईसीआरआईईआर का हाल का अध्ययन यह साफ तौर पर बताता है कि पिछले दो दशकों में कम कीमतों की वजह से किसानों को 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ।
आपके विचार से कृषि को संकट से उबारने के लिए सरकार को क्या करना चाहिए? क्या कोई ऐसा स्थायी समाधान है जो किसानों के चेहरे पर मुस्कान ला सकता है?
हां, निश्चित तौर पर, कृषि के लिए क्रेडिट नीति, बाजार सुधार, व्यापार नीति जैसे बहुत सारे सर्वांगीण सुधारों की जरूरत है, जिसे इस आधार वाक्य के साथ शुरू करना चाहिए कि कृषि भी आर्थिक गतिविधि है। वास्तव में, रोजगार विहीन ग्रोथ अब रोजगार नुकसान वाले ग्रोथ की ओर बढ़ रहा है। अकेले सर्वाधिक रोजगार प्रदान करने वाले कृषि क्षेत्र के पास अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने की क्षमता है। आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के अलावा सरकार की ओर से तीन कदम तत्काल उठाए जाने की आवश्यकता है-
पहला- सीधे आमदनी लाभ पहुंचाने के साथ-साथ कृषि आय बढ़ाने के लिए अगले कदम के रूप में किसान आय आयोग गठित किया जाना चाहिए। मेरा सुझाव है कि वर्तमान कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) का नाम बदलकर किसानों की आय और कल्याण की तरह का नाम दे देना चाहिए, जो यह सुनिश्चित कर सके कि किसान यह मानने में सक्षम हो सकें कि उन्हें प्रति एकड़ कम से कम 18,000 रुपये प्रतिमाह आय हो सकती है। राज्य के स्तर पर, प्रत्येक राज्य को किसान आय आयोग गठित करना चाहिए।
दूसरा- कृषि कार्य को सुविधाजनक बनाने के लिए अनेक कदम उठाए जाने की जरूरत है। इसमें शासन प्रणाली भी शामिल होनी चाहिए और उन बाधाओं को दूर किया जाना चाहिए जिनसे किसानों को लगातार दो-चार होना पड़ता है। अगर उद्योगों को व्यवसाय आसानी से करने के लिए 7,000 कदम उठाए जा सकते हैं, तो मुझे लगता है कि कृषि और किसानों के लिए भी वैसा ही ध्यान दिया जाना चाहिए। इसके लिए कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के अधीन पर्याप्त अधिकारों वाला एक अलग निगरानी शाखा बनाए जाने की जरूरत है। राज्य के स्तर पर, कृषि संचालनों के नियमानुसार संचालन के लिए किसान आयोगों को ज्यादा अधिकार प्रदान करने की आवश्यकता है।
तीसरा- यह समय कृषि में सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश बढ़ाने का है, जो बीते वर्षों में घटता गया है। 2011-12 और 2016-17 के बीच, सार्वजनिक निवेश 0.3 और 0.4 के बीच बना रहा। यह देखते हुए कि करीब 50 प्रतिशत आबादी कृषि में लगी हुई है, संपूर्ण निवेश, सार्वजनिक और निजी दोनों, प्रत्येक वर्ष बढ़ाया जाना चाहिए। लेकिन यह तभी संभव हो सकेगा जब कृषि को एक आर्थिक गतिविधि के रूप में लिया जाएगा।
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