फेसबुक ने फर्जी खबरों से अपना पल्ला झाड़ा, जांच की जिम्मेदारी पाठकों पर

सोशल मीडिया साइट फेसबुक ने खुद जिम्मेदारी लेने के बजाय यूजर को ही फर्जी खबरों की पड़ताल करने के लिए कहा है।

फोटोः सोशल मीडिया
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ऐशलिन मैथ्यू

फेसबुक हमें यह दिखाना चाहता है कि वह भारतीय उप-महाद्वीप में फर्जी खबरों के खिलाफ एक बड़ी लड़ाई लड़ रहा है। फेसबुक और व्हाट्सएप के क्रमशः 24.1 करोड़ और 20 करोड़ उपयोगकर्ताओं के साथ भारत इन सोशल साइट का सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार है। और फेसबुक क्या कर रहा है? वह डेक्कन हेराल्ड, द इंडियन एक्सप्रेस और द टेलीग्राफ जैसे अंग्रेजी समाचार पत्रों में पूरे पृष्ठ का विज्ञापन देकर फर्जी खबरों की पहचान करने के 10 तरीके बता रहा है।

‘प्रोपब्लिका खुलासे’ के बाद यूरोपीय संघ द्वारा ऑनलाइन नफरत, हिंसा और आतंकवाद को बढ़ावा देने वाली गैरकानूनी सामग्री नहीं हटाने की स्थिति में कार्रवाई की चेतावनी दिये जाने की पृष्ठभूमि में सबसे बड़ा सोशल मीडिया मंच फेसबुक भारत में यह जिम्मेदारी उपभोक्ताओं के माथे मढ़ता नजर आ रहा है। मार्क जुकरबर्ग की कंपनी अमेरिकी कांग्रेस की नाराजगी का भी सामना कर रही है, जिसने उसे उन 3,000 से ज्यादा राजनैतिक विज्ञापनों को हटाने के लिए कहा है जो अमेरिकी मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए संदिग्ध रूसी परिचालकों द्वारा खरीदे गए थे।

भारतीय मीडिया में प्रकाशित विज्ञापनों से एक सवाल खड़ा होता है - क्या फेसबुक अपनी जिम्मेदारी पाठकों के ऊपर डाल रहा है और बदले में उन्हें जांचकर्ता बना रहा है? फर्जी खबर गढ़ने वालों के खिलाफ पुनरीक्षण के मानक और कठोर दिशानिर्देश स्थापित करने के बजाय फेसबुक आसानी से झांसे में आ जाने वाली मानव प्रकृति पर उंगली उठा रहा है और न्यूजफीड के लिए उपयोगकर्ताओं को जिम्मेदार ठहरा रहा है, जो कि फेसबुक के अपने एल्गोरिदम से नियंत्रित होता है। अपने विज्ञापन में ‘आईडेंटिफाइंग’ और ‘स्टॉप’ शब्द न रखकर 'स्पॉटिंग' और 'लिमिट' शब्दों का उपयोग कर सबसे बड़ी सोशल मीडिया साइट इस प्रक्रिया को एक मजेदार गेम की तरह बनाती नजर आ रही है। ऐसा करना इस मुद्दे को महत्वहीन बनाना है। फेसबुक का यह रवैया खतरे की जिम्मेदारी लेने से इंकार करना है।

1993 में मनोवैज्ञानिक डेनियल गिलबर्ट द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, यह पाया गया है कि रिफ्लेक्शन के लिए समय नहीं होने की स्थिति में लोग आसानी से उस तथ्य पर विश्वास कर लेते हैं जिसे वह पढ़ते हैं। इस अध्ययन में फ्रेंच दार्शनिक रेन डेसकार्टेस के तर्क, ‘समझना और विश्वास करना दो अलग-अलग प्रक्रियाएं हैं’ और डच दार्शनिक बारूच स्पिनोजा के तर्क, ‘सूचना को समझने की क्रिया में पहले उस पर विश्वास किया जाता है’ की पड़ताल की गई थी। उन्होंने कहा कि बाद में विपरीत सबूतों के सामने आने पर हम अपनी सोच बदल सकते हैं, लेकिन तब तक उन सब पर विश्वास करते हैं। यह सूचनाओं की अधिकता का दौर है और प्रत्येक समाचार से गुजरते हुए हम उसके बारे में सोचने के लिए ठहरते नहीं हैं।

इसका क्या अर्थ है? इसका मतलब यह है कि हमारे समाचार फीड में फेसबुक का एल्गोरिथ्म जो कुछ भी फेंकता है, हमें उस पर विश्वास करना होगा जब तक कि उसकी सच्चाई कहीं और से सामने न आ जाए। तो, क्या फर्जी खबरों की जवाबदेही सोशल मीडिया की नहीं होनी चाहिए? हालांकि, सोशल मीडिया साइट न्यूज फीड की छंटाई करते हैं क्योंकि दूसरों की तुलना में कुछ खास लोगों द्वारा कुछ खास सामग्री देखे जाने की संभावना होती है।

फेसबुक निश्चित रूप से इस संबंध में बहुत कुछ करना नहीं चाहेगा क्योंकि अगर वे कई बार साझा किए जाने से पहले फर्जी खबरों की छंटाई के लिए बेहतर एल्गोरिदम बनाते हैं, तो इसका मतलब होगा समाचार फीड में अधिक मध्यमार्गी विचारों की बाढ़ आ जाएगी। यह कदम निश्चित तौर पर कम लत लगाने वाला होगा। इसका अर्थ यह होगा कि लोग फेसबुक पर कम समय बिताएंगे और इससे उसके राजस्व में कमी आएगी। एक लाभकारी संस्था होने के नाते, कम पैसा उनके हित में नहीं है। ऐसे में वह क्या करते हैं- वे चिंतित होने का नाटक करते हुए अपनी जिम्मेदारी को आसानी से पाठक के ऊपर डाल देते हैं।

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