नियमों को ताक पर रख रहा है पर्यावरण मंत्रालय, दमघोंटू माहौल में रहने को मजबूर लोग
लगभग सभी कानून लचीले कर दिये गये या किये जा रहे हैं। कहा गया कि व्यापार को सुगम करने और 2022 तक सबके लिये आवास उपलब्ध कराने के लिए ऐसा किया गया है। क्या प्रदूषित वातावरण में व्यापार सुगम हो सकता है?
तीन वर्ष पहले तक पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण से संबंधित कानून और प्रावधान सख्त थे, चाहे इस क्षेत्र में हमारा रिपोर्ट कार्ड कैसा भी रहा हो। लेकिन, धीरे-धीरे लगभग सभी कानून लचीले कर दिये गये हैं या किये जा रहे हैं। बताया जाता है कि व्यापार को सुगम करने और 2022 तक सबके लिये आवास उपलब्ध कराने के लिए ऐसा किया गया है। प्रश्न यह है कि क्या प्रदूषित वातावरण में व्यापार सुगम हो सकता है? पिछले वर्ष दीपावली के बाद दिल्ली में रिकार्ड तोड़ प्रदूषण हो गई थी तो अनेक बड़ी कंपनियों के बड़े अधिकारी दिल्ली और आसपास के शहर छोड़कर चले गये थे। सबके लिए आवास तक तो ठीक है, पर दमघोंटू माहौल में आवास क्या सरकार की एकमात्र प्राथमिकता होनी चाहिए?
पूरा देश हरेक तरह के प्रदूषण की चपेट में है, सबको साफ पीने का पानी उपलब्ध नहीं है, सभी प्रकार के जल संसाधन खतरे में हैं, साफ-सफाई के अभाव में तमाम रोग फैल रहे हैं। शहर बाढ़ में डूब रहे हैं और खेती की जमीन कम हो रही है। ऐसे में अनियोजित विकास और बड़े पैमाने पर प्रदूषणकारी निर्माण कार्य समस्याओं को और बढ़ा देंगे।
तत्कालीन केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री ने 5 जनवरी 2017 को पर्यावरण स्वीकृति से संबंधित विशेषज्ञों की एक बैठक बुलाकर उन्हें अप्रत्यक्ष तौर पर कहा कि पर्यावरण स्वीकृति में केवल स्वीकृति पर ध्यान दीजिये, पर्यावरण पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है। उस समय तो कुछ विशेषज्ञों ने इसका विरोध किया, पर कुछ दिनों बाद ही खबर आई कि वन्य जीव संरक्षित क्षेत्रों के पास जितनी भी परियोजनाओं की फाइलें पर्यावरण स्वीकृति के लिये पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय में अटकी थीं, लगभग सभी परियोजनाओं को स्वीकृति दे दी गई।
पर्यावरण मंत्रालय और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड जिस तरीके से काम करता है, उससे इतना तो स्पष्ट है कि इन्हें न तो पर्यावरण संरक्षण की चिंता है और न ही इनमें प्रदूषण को नियंत्रित करने का कोई संकल्प है। इन संस्थाओं को तो इतना भी नहीं पता कि प्रदूषण के स्त्रोत क्या हैं और उनका योगदान कितना है? पर्यावरण मंत्रालय ने 12 जनवरी, 2017 को एक राजपत्रित अधिसूचना जारी की, जिसके अनुसार, “दिल्ली में और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में वायु प्रदूषण का बढ़ता स्वर गंभीर चिंता का विषय रहा है और प्रदूषण स्तरों में लगातार हो रही वृद्धि के विशेष संदर्भ में इस समस्या के निराकरण के लिये तत्काल उपाय किये जाने की आवश्यकता है।”
यह अधिसूचना ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान यानी अत्यधिक वायु प्रदूषण, मध्यम वायु प्रदूषण और खराब हवा गुणवत्ता के समय किये जाने वाले उपायों की कार्य योजना को लेकर जारी की गई। यह भी पर्यावरण मंत्रालय या केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के दिमाग की उपज नहीं है, बल्कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर इसे तैयार किया गया है। ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान के अनुसार अत्यधिक वायु प्रदूषण यदि 48 घंटे तक लगातार रहे तो सभी निर्माण गतिविधियां रोकनी होंगी। अत्यधिक वायु प्रदूषण का मतलब है पी.एम. 2.5 का स्तर 300 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर से अधिक हो जाए और पी.एम. 10 का स्तर 500 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर से अधिक हो जाए। स्पष्ट है कि निर्माण गतिविधियों को वायु प्रदूषण का एक स्त्रोत माना गया है।
समस्या यह है कि पर्यावरण मंत्रालय हमेशा निर्माण गतिविधियों को प्रदूषण का स्त्रोत नहीं मानता है। दिसम्बर 2016 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने राजपत्रित अधिसूचना के द्वारा 1,50,000 वर्गमीटर से छोटी परियोजनाओं को पर्यावरण स्वीकृति से लगभग अलग कर दिया। इसके बाद ऐसी परियोजनाओं की स्वीकृति का काम उन्हीं विकास प्राधिकरणों को सौंप दिया गया जो भूमि आवंटन करती हैं। इतना ही नहीं, निर्माण परियोजनाओं को प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से अनापत्ति प्रमाण पत्र हासिल करने की अनिवार्यता भी समाप्त कर दी गई। दलीलें कुछ भी हों, इसका सीधा सा मतलब है कि पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार निर्माण परियोजनाओं से न तो प्रदूषण फैलता है और न ही पर्यावरण को कोई नुकसान पहुंचता है।
जाहिर है, इस अधिसूचना के विरूद्ध अनेक मुकदमें राष्ट्रीय हरित न्यायालय में दायर कर दिये गये। वे मुकदमें अभी चल ही रहे थे, तभी 2 फरवरी 2017 को केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने सभी राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को पत्र लिखकर सूचित कर दिया कि निर्माण परियोजनाओं को अनापत्ति प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं है। केन्द्रीय बोर्ड, निर्माण परियोजनाओं को प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के दायरे से बाहर करने की जल्दीबाजी में यह भी भूल गया कि पूरा मामले की सुनवाई राष्ट्रीय हरित न्यायालय में चल रही है।
स्पष्ट है, पर्यावरण मंत्रालय और केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड किसी भी मसले पर स्पष्ट राय नहीं रखते, न्यायालयों को गुमराह करते हैं और प्रदूषण नियंत्रण या पर्यावरण संरक्षण के लिये उदासीन बने रहते हैं। ऐसे में यह हैरानी की बात नहीं है कि हमारे देश में प्रदूषण नियंत्रण या पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में एक भी सकारात्मक उदाहरण कभी नहीं मिलता। सबके लिये आवास की योजना में यदि इन सारी बातों का ध्यान नहीं दिया गया तो समस्याएं और गंभीर होती जाएंगी और दमघोंटू माहौल में लोग रहने को मजबूर होंगे।
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