नोटबंदी के घोषित उद्देश्य नहीं हुए पूरे, लेकिन असली लक्ष्य था कुछ और!
बचत के आधुनिक तरीकों और भुगतान के विकल्पों तक पहुंच देकर गरीबों की मदद करने की बजाय नोटबंदी ने बड़े पैमाने पर गरीबों का नुकसान किया। नगदी के रूप में उनके पास जो भी बचत था, जिससे उनका काम चल रहा था वह भी उनके हाथ से निकल गया।
8 नवंबर को नोटबंदी के दो साल पूरे हो रहे हैं। इसके विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करने के लिए हमने आज से लेखों की एक श्रृंखला शुरू की है, उसी के तहत हम यह दूसरा लेख प्रकाशित कर रहे हैं। -नवजीवन
मुझे प्रधानमंत्री मोदी के नोटबंदी के फैसले की ‘असफलता’ पर लिखने के लिए कहा गया है। यह सच है, अगर नोटबंदी की कार्रवाई को आतंकवाद, भ्रष्टाचार और करचोरी रोकने के इसके घोषित उद्देश्यों के आधार पर परखा जाए तो यह एकदम असफल माना जाएगा।
एक तो अवैध घोषित किए गए लगभग सारे नोट बैंकों में वापस जमा हो गए और वैध अर्थव्यवस्था में फिर से डाल दिए गए। अगर समावेशी अर्थव्यवस्था बनाने के दूसरे उद्देश्य के पैमाने पर इसे देखा जाए तो वहां भी यह असफल साबित हुआ। बचत के आधुनिक तरीकों और भुगतान के विकल्पों तक पहुंच देकर गरीबों की मदद करने की बजाय नोटबंदी ने बड़े पैमाने पर गरीबों का नुकसान किया। नगदी के रूप में उनके पास जो भी बचत था, जिससे उनका काम चल रहा था वह भी उनके हाथ से निकल गया।
जिन लोगों के पास सहायता का अच्छा सामाजिक तंत्र था, उन्हें तो इसे झेलने का तरीका मिल गया। लेकिन विस्थापित मजदूरों जैसे समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों को अस्थायी रूप से मौद्रिक अर्थव्यवस्था से बाहर रहने के कारण काफी नुकसान हुआ।
अमेरिकी सरकार 4 घंटे के नोटिस पर ज्यादातर नगदी को सर्कुलेशन से बाहर निकालने के बारे में सोच भी नहीं सकती। हालांकि, अगर यह भारत में भारत के लोगों के साथ किया गया है, तो यह उनके लिए ठीक है!
अमेरिकी सरकार के प्रतिनिधियों ने इस कदम की तारीफ की थी। दुनिया की सबसे बड़ी सामाजिक संस्था के मुखिया बिल गेट्स ने घोषणा की कि कुल जमा लाभ गरीबों की अस्थायी परेशानी से काफी ज्यादा होगा। ‘बेटर दैन कैश एलायंस’ नाम की संस्था ने भी यही किया। अमेरिकी सरकार और गेट्स फाउंडेशन इस संस्था के मुख्य सदस्य हैं।
अमेरिका में नोटबंदी को लेकर जो उत्साह था उसे समझा जा सकता है, अगर समावेश का मतलब यह माना जाए कि सारा पैसा वाणिज्य औद्योगिक क्षेत्र में डाल दिया जाए। 2015 में वाशिंगटन में आयोजित हुए फाइनेंसियल इन्क्लूजन फोरम में ‘पे पाल‘ के सीईओ डैन शूलमैन ने बताया: “वित्तीय समावेश एक उत्साह बढ़ाने वाला शब्द है जिससे कि लोगों को व्यवस्था का अंग बनाया जाए।” और उसी मौके पर बिल गेट्स ने इस बात को विस्तार से बताते हुए कहा कि अमेरिकी सरकार को यह सुनिश्चित करना था कि वित्तीय लेन-देन डिजिटल व्यवस्था के तहत हो जिसमें अमेरिकी सरकार “उन लेन-देन का पता लगा सके जिनके बारे में वह जानना चाहती है या ब्लॉक करना चाहती है।”
गेट्स ने यह भी कहा: “यह निश्चित रूप से हमारा लक्ष्य है कि अगले 3 सालों में बड़े विकासशील देशों में डिजिटलीकरण पूरा हो जाए। हमने पिछले तीन सालों से वहां (भारत) के केंद्रीय बैंक के साथ सीधे तौर पर काम किया है।” भारत में गेट्स फाउंडेशन के मुखिया नचिकेत मोर हैं। वे अभी हाल तक रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के केंद्रीय बोर्ड के सदस्य थे और उनके पास वित्तीय देख-रेख की जिम्मेदारी थी।
नोटबंदी भारतीय लोगों को ‘व्यवस्था’ का हिस्सा बनाने में काफी सफल रही, जिसमें उनका पता लगाया जा सकता है। यह अनुमान लगाने में ज्यादा दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि नोटबंदी का असली लक्ष्य यही था। नोटबंदी के लगभग तीन सप्ताह बाद अपने मासिक संबोधन ‘मन की बात’ में नरेन्द्र मोदी ने कहा था: “हमारा सपना है कि एक कैशलेस समाज बने।”
2014 में चुनाव जीतने के बाद जब वे वाशिंगटन गए तो उन्होंने इस लक्ष्य को लेकर एक वादा किया था। उनकी यात्रा के दौरान ‘बेटर दैन कैश एलायंस’ में अमेरिकी सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था यूएसएआईडी, भारत के वित्त मंत्रालय और डिजिटल लेन-देन में शामिल कई अमेरिकी और भारतीय कंपनियों के बीच एक भागीदारी की घोषणा हुई थी। जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा 2015 में भारत आए तो उनका स्वागत करते हुए भारत ने एक उपहार यह दिया कि भारत ‘बेटर दैन कैश एलायंस’ में शामिल हो गया।
अमेरिकी सरकार और गेट्स फाउंडेशन के अलावा ‘बेटर दैन कैश एलायंस’ में अपने हितों को लेकर मौजूद कई मुख्य वाणिज्यिक सदस्य भी हैं। वे अमेरिका के लेन-देन कारोबार के महारथी वीजा और मास्टरकार्ड हैं जिनका बड़ा दखल विश्व बाजार और सीआईटीआई समूह पर है। सीआईटीआई यानी सिटी बैंक इस एलायंस के शुरू होने के वक्त दुनिया का सबसे बड़ा बैंक था।
नोटबंदी के थोड़े समय बाद अमेरिकी सलाहकार कंपनी बीसीजी और गूगल ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें भारतीय लेन-देन के बाजार को ‘500 अरब डॉलर के सोने का बर्तन’ कहा गया। नोटबंदी के बाद अमेरिकी निवेशक बैंक ने संभावित मुख्य लाभार्थियों में वीजा, मास्टरकार्ड और एमेजॉन को शामिल किया।
सिटी बैंक जैसे वाणिज्यिक बैंक नगद को उतना ही नापसंद करते हैं जितना क्रेडिट कार्ड कंपनियां करती हैं। इसमें पैसा कमाने की बजाय नगद का प्रबंधन करने में पैसे लग जाते हैं, जबकि वे डिजिटल लेन-देन में पैसा कमा लेते हैं। ज्यादा बुरी बात यह है कि लोग बैंकिंग व्यवस्था से अपना पैसा निकाल सकते हैं अगर उनका भरोसा खत्म हो गया। बड़े वित्तीय खेल में घुसने की बैंकिंग व्यवस्था की क्षमता को यह सीमित करता है।
जितना कम नगद इस्तेमाल होता है, उतना ज्यादा बैंक में जमा राशि का रूप लेता है। बैंक में जितना ज्यादा पैसा जमा होगा, वे उतने फायदेमंद धंधों में घुस सकते हैं। जर्मनी के एक अखबार को दिए साक्षात्कार में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की तत्कालीन सीईओ अरुंधती भट्टाचार्य इस बात को लेकर बेहद उत्साहित थीं कि बैंकिंग व्यवस्था में बहुत ज्यादा पैसे आ गए हैं। उन्होंने कहा कि जितने पैसे जमा हुए हैं वैसा पहले कभी नहीं देखा गया था, “सुधार के पहले हम हर महीने 950 मिलियन डेबिट कार्ड लेन-देन करते थे। नोटबंदी के 50 दिन बाद हम 3.9 बिलियन लेन-देन कर रहे हैं।
अमेरिकी-भारतीय भागीदारी के वाणिज्यिक सदस्यों के दृष्टि में नोटबंदी बहुती बड़ी सफलता थी। नोटबंदी के 18 महीनों बाद मोबाइल वॉलेट का उपयोग तीन गुना बढ़ गया, बिक्री में डेबिट कार्ड का उपयोग दुगुना हो गया और क्रेडिट कार्ड के इस्तेमाल में काफी बढ़ोतरी हुई।
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भास्कर चक्रवर्ती अमेरिका के टफ्ट्स विश्वविद्यालय में इंस्टीट्यूट फॉर बिजनेस इन ग्लोबल कॉन्टेक्स्ट के निदेशक हैं। इस संस्था को गेट्स फाउंडेशन और सिटी समूह वित्तीय सहायता देता है। हार्वर्ड बिजेनस रिव्यू में उन्होंने नोटबंदी पर लिखते हुए माना कि नोटबंदी अपने घोषित उद्देश्यों को पूरा करने में असफल रहा और गरीब लोगों और अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान हुआ।
उन्होंने आगे कहा कि यह कोई समस्या नहीं थी क्योंकि नोटबंदी की मुख्य बात पूरी तरह अलग है। नोटबंदी में जनता को इतनी तकलीफ होने के बावजूद मोदी की बड़ी चुनावी सफलताओं को नोट करते हुए उन्होंने लिखा, “जब लोगों को लगता है कि आप उनके लिए लड़ रहे हैं, तो बहुत ठोस तथ्यों का भी कम से कम असर होता है। आखिरकार, भारत में नोटबंदी की कहानी का सबसे बड़ा सबक आंकड़ों के खिलाफ प्रचार की जीत है।”
बिना तथ्यों के बड़े वादे करना बेटर दैन कैश एलायंस की रणनीति है जिस पर वह काफी मजबूती से आगे बढ़ रहा है। वे लगातार दावा कर रहे हैं कि लेन-देन का डिजिटलीकरण गरीबी को मिटाने में मदद करेगा और विकास की गति बढ़ाएगा। उनके लिए इसका कोई मतलब नहीं है कि इस तर्क के खिलाफ कई सारे तथ्य मौजूद हैं।
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