नागरिकता कानून और एनआरसी एक-दूजे के पूरक, खौफ में आया मुसलमान दस्तावेज के लिए अभी से भटकने लगा यहां-वहां
एनआरसी के लिए एक साॅफ्टवेयर होगा और वह किसी ऐसे दस्तावेज को स्वीकार ही नहीं करेगा जिसमें स्पेलिंग मिस्टेक हो, मतलब कागजों में नाम-पते वगैरह में किसी तरह का अंतर हुआ, तो उसे साॅफ्टवेयर स्वीकार नहीं करेगा। और महज इस कारण उस शख्स का नाम रजिस्टर भी नहीं होगा।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पहले कई बार और नागरिकता (संशोधन) विधेयक (कैब) पर चर्चा के दौरान भी इस बात पर जोर दिया कि पूरे देश में एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता सूची) तो जरूर आएगा। साफ है कि एनआरसी और कैब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक-दूसरे के पूरक होंगे। देश के मुसलमान पिछले छह साल से वैसे ही काफी दबाव में हैं और अब उनमें, एक किस्म से, खलबली है। वे लोग तरह-तरह के दस्तावेज जुटाने के लिए यहां-वहां दौड़ लगा रहे हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय में लेक्चरर खालिद अल्वी कहते भी हैंः “अभी जो सरकार है, उसकी पूरी कोशिश मुसलमानों को हताश कर देने और हिंदुओं को मूर्ख बनाने की है। कोई अगर पाकिस्तान से आता है और दावा करता है कि वह पारसी है, तो मुसलमान भी पारसी के तौर पर आ सकते हैं, लेकिन ये लोग बहुसंख्यक समुदाय को संदेश देना चाहते हैं कि इन लोगों ने मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया है। अब तक तो ये लोग बहुसंख्यक समुदाय को मूर्ख बनाने में सफल रहे ही हैं।”
पूर्व सांसद और लोकप्रिय उर्दू साप्ताहिक ‘नई दुनिया’ के संपादक शाहिद सिद्दिकी बिना लाग-लपेट कहते हैं कि कैब वर्तमान शासन का सबसे खतरनाक कदम है। वह कहते हैंः “हमने बहुत भारी दिल से विभाजन को स्वीकार किया, चाहे वह मौलाना आजाद, मौलाना हुसैन अहमद मदनी, सरदार पटेल या महात्मा गांधी हों। हम लोगों (भारतीयों) ने जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत को ठुकरा दिया। हमें यह याद रखने की जरूरत है कि दो लोगों ने द्विराष्ट्र के सिद्धांत की पैरवी की- एक, सावरकर जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और आज की बीजेपी के सिद्धांतकार थे और उन्होंने ही हिंदुत्व शब्द का इजाद किया; और दूसरे, मोहम्मद अली जिन्ना जो पाकिस्तान के संस्थापक थे। यही दो लोग थे जिन्होंने कहा कि हिंदू और मुसलमान दो राष्ट्र हैं, लेकिन हमारे जैसे लोगों ने साफ तौर पर कहा कि हिंदू और इस्लाम दो धर्म हो सकते हैं लेकिन हिंदू और मुसलमान दो देश नहीं हो सकते। अब, जबकि सरकार यह कानून लेकर आई है जो मूलतः सावरकर और जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत की पैरवी कर रहा है। आज, बीजेपी जिन्ना के सिद्धांत को लागू कर रही है। बीजेपी ऐसा देश बना रही है जिसमें सावरकर की टोपी और जिन्ना की शेरवानी है।”
शाहिद यह भी कहते हैं किः “मूल रूप से, ये लोग (अभी सरकार में बैठे लोग) मुसलमानों से वोटिंग के अधिकार छीन लेना चाहते हैं क्योंकि वे मुस्लिम वोट को लेकर भय में रहते हैं, चूंकि उनकी यह सोच है कि वे मुस्लिम वोट की वजह से चुनाव हार जाएंगे। लेकिन इस देश के हिंदू जिनका दिल बड़ा है, सरकार के इन दमनकारी कदमों को ठुकरा देंगे। अभी सरकार की जो सोच है, उसी तरह की सोच ने अफगानिस्तान, लीबिया और सीरिया- जैसे देशों को तबाह कर दिया है। धर्म के नाम पर राजनीति करने वाला कोई भी देश कभी प्रगति नहीं कर सकता और वही देश प्रगति करेगा जो सबको अपने साथ लेकर चले।”
लगभग इसी तरह की भावना के साथ एक पूर्व सांसद ने अपने फेसबुक पोस्ट पर लिखाः “1906 में, जब अफ्रीका में ब्रिटिश शासन ने भारतीयों को रजिस्ट्रेशन रोल्स से हटाना आरंभ किया, तो हमने गांधीजी को इसके खिलाफ आवाज उठाते देखा। गांधीजी ने आंदोलन आरंभ किया जिसने अंततः भारत की आजादी के आंदोलन को रूप दिया। यह अपने देश का दुर्भाग्य है कि आजादी के बाद जल्द ही गांधीजी की हत्या कर दी गई। आज, 72 साल बाद, (गांधीजी के हत्यारों के) उसी सिद्धांत पर चलते हुए हमारे पास शासक के तौर पर 2 लोग हैं और ये लोग उनकी (गांधीजी की) भावना को चोट पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। एनआरसी और नागरिकता कानून का सिर्फ एक ही आधार है- मुसलमानों के साथ भेदभाव करना और उन्हें इस देश से बाहर निकालना। एकता के पूरे सिद्धांत को गांधीजी के अपने देश में ही तहस-नहस किया जा रहा है।”
हैदराबाद के जाहिद अली खान भी लगभग यही बात कहते हैंः “इस कानून का पहला निशाना मुसलमान और दूसरा दलित हैं। उनकी योजना देश को हिंदू राष्ट्र बनाना है। दिल्ली में गैर सरकारी संगठन- दिल्ली यूथ वेलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष मो. नईम भी अपनी चिंता इस तौर पर जताते हैंः “यह कानून समाज को विभाजित करने के अलावा कोई काम नहीं करने वाला। सरकार चुनौतियों वाले अन्य मुद्दों से ध्यान भटका रही है। इसका मकसद मुस्लिम समुदाय में भय और हड़बोंग पैदा करना हो सकता है ताकि उनके बच्चे पढ़ नहीं पाएं और वे लोग अपने रोजाना के मुद्दों पर ध्यान न दे पाएं। लिंचिंग की कई घटनाओं के बाद वे लोग यह सब मुसलमानों की प्रगति रोकने के लिए कर रहे हैं।
मुसलमानों के हर वर्ग में इसी वजह से चिंता और भय है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में अब्दुल्ला गर्ल्स काॅलेज छात्र संघ की अध्यक्ष अफरीना फातिमा कहती भी हैंः “इस वक्त, ईमानदारी से कहूं, तो मैं यह सब नहीं सोच रही कि यह कानून गांधीजी के भारत के खिलाफ है, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र को खतरा है आदि-इत्यादि। दूसरी तरह से इसे देखने का कोई जरिया ही नहीं है।” एएमयू छात्रसंघ के अध्यक्ष सलमान इम्तियाज भी कहते हैं किः “ यह कानून इसरायली कानून की बिल्कुल प्रतिकृति है जहां सिर्फ यहूदियों को नागरिकता दी जाती है और हिंदुत्व में आस्था रखने वाले लोग हम लोगों के देश को दूसरा इसरायल बनाना चाहते हैं।”
जाहिद अली एक और खतरे की ओर ध्यान दिलाते हैं। वह कहते हैं कि जब आम आदमी समस्या में हो, तो देश प्रगति कर ही नहीं सकता। वह कहते हैंः “अभी की सरकार ने जो कुछ किया है- चाहे वे आर्थिक मुद्दे हों या सामाजिक मुद्दे हों, वे सब जनविरोधी हैं। ये लोग देश को उस स्थिति में ले जा रहे हैं, जहां लोगों को न्याय नहीं मिलेगा। जब आम आदमी प्रगति नहीं करेगा, तो देश की प्रगति कैसे होगी? बल्कि मैं तो कहूंगा कि अब तो देश की प्रगति की संभावनाएं भी नहीं हैं। देश की कीमत पर एक खास किस्म के सिद्धांत को विकसित किया जा रहा है।
इस मसले पर मुसलमानों में देश भर में भय और चिंता है। केरल के वरिष्ठ पत्रकार एम. हसानुल बन्ना ने भी कहा किः “लोकसभा में इस बिल के पारित होने के बाद से ही केरल के मुसलमानों को असुरक्षा की भावना ने घेर लिया है। केरल के मुसलमान बहुत डरे हुए हैं। मुस्लिम परिवार आपस में बात कर रहे हैं कि उन्हें एनआरसी के लिए कौन-कौन-से और कैसे-कैसे दस्तावेजों की जरूरत होगी।”
बन्ना की चिंता की वजह यह भी है कि उन्होंने असम में एनआरसी की प्रक्रिया होते देखी है। वह कहते हैं किः सवाल यह है कि एनआरसी कराएंगे कैसे। इसे कराने के लिए एक साॅफ्टवेयर होगा और वह साॅफ्टवेयर किसी भी ऐसे दस्तावेज को स्वीकार ही नहीं करेगा जिसमें इमले की गलती (स्पेलिंग मिस्टेक) होगी, मतलब दस्तावेजों में नाम-पते वगैरह को लेकर किसी तरह का अंतर हुआ, तो उसे साॅफ्टवेयर स्वीकार नहीं करेगा। और अगर साॅफ्टवेयर ने इमले की गलती की वजह से इसे स्वीकार नहीं किया तो उस व्यक्ति का नाम रजिस्टर भी नहीं होगा। कोई भी साबित नहीं कर सकता कि यह सब इसलिए है क्योंकि साॅफ्टवेयर कर रहा है। उदाहरण के लिए, कुछ लोग मोहम्मद नाम में अंत में ईडी लगाते हैं, जबकि कुछ लोग एडी। असम ने साबित किया है कि इसे नहीं सुधार सकते।”
यूपी के सामाजिक कार्यकर्ता खालिद नदीम कहते हैं कि उनके जानने वाले कई मुस्लिम परिवार तरह-तरह के दस्तावेज जुटाने में लगे हैं। वैसे, इन सबके बीच दिल्ली विश्वविद्यालय में लेक्चरर खालिद अलवी की एक बात आशा की किरण वाली भी है। वह कहते हैं किः “मुझे लगता है कि कोर्ट नागरिकता कानून को रद्द कर सकता है। इसलिए मुसलमानों और लिबरलों को न्यायपालिका के दरवाजे खटखटाने चाहिए।
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