मीडिया पर नियंत्रण लोकतंत्र के लिए खतरनाक और बीजेपी के लिए हो सकता है आत्मघाती 

टीवी मीडिया के एक बड़े वर्ग पर मोदी सरकार का नियंत्रण है। मीडिया विशेषज्ञ इस बात पर एकमत हैं कि सत्ता और सत्ता की स्वस्थ आलोचनाओं पर अघोषित सेंसरशिप घातक साबित होती है। नीतियों और योजनाओं के कार्यान्वयन की सटीक जानकारियां न मिलना अंधेरे और दिशाहीनता की ओर भटका देता है।

फोटो: सोशल मीडिया
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उमाकांत लखेड़ा

बहुत पहले से ही मोदी सरकार ने मीडिया को नियंत्रित करने की अपनी कोशिशों से आम चुनावों के सही, सटीक और संतुलित आकलन के रास्ते बंद कर दिए थे। टीवी मीडिया के एक बड़े वर्ग पर मोदी सरकार का नियंत्रण है। मीडिया विशेषज्ञ इस बात पर एकमत हैं कि सत्ता और सत्ता की स्वस्थ आलोचनाओं पर अघोषित सेंसरशिप घातक साबित होती है, क्योंकि नीतियों और योजनाओं के कार्यान्वयन की सटीक जानकारियां न मिलना अंधेरे और दिशाहीनता की ओर भटका देता है।

आम चुनावों के मौसम में मीडिया को नियंत्रित करने और 7 चरणों की थका देने वाली लंबी चुनावी प्रक्रिया ने चुनावी आकलन की गति को और भी कठिन बना दिया है। बीजेपी को इस बात का शायद जरा भी आभास नहीं कि मीडिया को अपनी गोद में बिठाने से आलोचनात्मक खबरें और सूचनाओं को तो रोका जा सकता है, लेकिन जमीनी हकीकत और सच्चाईयों पर पर्दा डालना, और झूठ का प्रचार उसके लिए आत्मघाती साबित हो सकता है। देश के अलग-अलग प्रदेशों और अंचलो में अपने पक्ष में मन पसंद खबरें प्रकाशित करवाने में दूसरी विरोधी पार्टियों को कोसों पीछे छोड़ बीजेपी भले ही अपनी पीठ थपाथपा रही है, लेकिन वह तस्वीर के दूसरे पक्ष के प्रति एकदम आंखे मूदे हुए है।

जाने माने पत्रकार व एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष रहे एच के दुआ कहते हैं, "किसी भी व्यवस्था में सूचनाओं को रोकना और मीडिया पर नियंत्रण करने की मंशा पालना लोकतंत्र और संविधान के खिलाफ है। इस प्रवृत्ति के दूरगामी परिणाम देश की जनता ही नहीं सरकारों के लिए भी घातक साबित हुए हैं।" राज्यसभा सांसद रहे दुआ आगे कहते हैं कि संसदीय व्यवस्था और लोकतंत्र में असहमति का होना लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी है। मीडिया स्वतंत्र रहे यह सुनिश्चित करना सत्ता और विपक्ष दोनों के लिए बेहद जरूरी है। बकौल एच के दुआ, अगर आम लोगों और मीडिया को सरकार में सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों से सवालों के जवाब नहीं मिलना लोकतंत्र के लिए खतरे का इशारा है।

मोदी राज में मीडिया की स्वतंत्रता पर सवाल उठते रहे हैं। वैसे इस सवाल पर देश के मीडिया क्षेत्र के स्वतंत्र विश्लेषकों की राय अलग अलग है। 2004 में शाइनिंग इंडिया और फील गुड फैक्टर के वाबजूद बीजेपी चुनाव हार गई थी। तब भी बीजेपी के पक्ष कुछ ऐसा ही माहौल था। तो क्या आज और तबके हालात में कोई अंतर है? इस सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार जाल खंबाता कहते हैं, "उस वक्त भले ही बीजेपी सत्ता में थी लेकिन वाजपेयी सरकार की नीतियों से असहमति जाहिर करने वाले पत्रकारों या मीडिया को डराने का शिकंजा इस कदर निरंकुश नहीं था जैसा की आज है।" वो कहते हैं, "सरकारें मीडिया को एक ही लाठी से तभी हांकने की हिमाकत करती हैं जब मीडिया घराने या मालिक कायरता दिखाने लग जाएं।" खंबाता कहते हैं, "कोलकाता से निकलने वाले अंग्रेजी अखबार ‘टेलीग्राफ’ की निर्भिकता मौजूदा दौर में एक बड़ी मिसाल है। यह अखबार प्रबंधन पर मोदी सरकार कई तरह के दबावों के बावजूद बैखौफ पत्रकारिता कर रहा है।"

जानी मानी अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका "इकोनमिस्ट" का मानना है कि पूरी दुनिया में नए दौर के सोशल मीडिया यानी फेसबुक, गूगल और ट्विटर से यह अपेक्षा की गई थी कि समाज को झूठ और पूर्वाग्रहों से मुक्त सूचनाएं सुलभ होंगी लेकिन दुर्भाग्य से परिणाम अलग ही हैं।

भारत में मीडिया का स्वामित्व निजी हाथों में होने के बावजूद उस पर सरकारों का भारी प्रभाव है। खास तौर पर क्षेत्रीय भाषा की मीडिया की भूमिका पहले की अपेक्षा काफी बढ़ी है। लेकिन सरकारों पर आर्थिक मदद का दबाव बढ़ाने के साथ ही मीडिया हाउस की आड़ में दूसरे व्यावसायिक धंधों के कारण सत्ताधारी पार्टियों से उनका स्वाभाविक गठजोड़ हो जाता है।

अहमदाबाद के वरिष्ठ पत्रकार और गुजरात समाचार के संपादक रहे देवेंद्र पटेल कहते हैं, "गुजरात की राजनीति में नरेंद्र मोदी के पदार्पण के बाद मीडिया खास तौर पर भाषाई पत्रकारिता ने सत्ता के प्रति अपनी धार खो दी। इसका मतलब यह नहीं कि राज्य में बीजेपी सरकार के खिलाफ खबरें नहीं छपतीं। देवेंद्र पटेल के मुताबिक, वजहें जो भी हों, अब अंतर यह आया है कि आलोचनात्मक खबरों की तादाद गुजरात की पिछली सरकारों की तुलना में बेहद कम हुई हैं।

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