नेहरू ने गांधी के विचारों पर चलकर भारत को आधुनिक विश्व के सामने खड़ा किया

संपादक आर.के. करंजिया से बातचीत में नेहरू कहते हैं कि उनका रास्ता कोई विलक्षण या खुद उनका बनाया नहीं है बल्कि यह गांधी का रास्ता है। नेहरू कहते हैं, जो गांधी पथ है, वह दरअसल भारतीय पथ ही है।

फोटोः सोशल मीडिया
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अपूर्वानंद

“वर्ष 1947 से हमारे देश में नेहरू युग का आरंभ हुआ। क्या मेरा यह निष्कर्ष ठीक है कि आजादी के बाद से आपने गांधीवादी साधनों के सहारे नेहरू-साध्य को हासिल करने की कोशिश की, यानी संसदीय तानेबाने में समाजवाद फिर धर्मनिरपेक्षता और अंत में विश्व शान्ति और गुटनिरपेक्षता पर आधारित विदेश नीति पर आपका जोर?”

“नेहरु युग या नेहरू नीति जैसे शब्दों का आपका प्रयोग गलत है। मैं अपने समय को प्रामाणिक गांधीवादी काल कहना चाहूंगा और जो नीतियां और दर्शन हम लागू करने का प्रयास कर रहे हैं, वे गांधीजी की सिखाई हुई नीतियां और दर्शन हैं।”

यह सवाल और जवाब 1960 का है। एक पत्रकार और एक प्रधान मंत्री के बीच बातचीत का। ब्लिट्ज के मशहूर संपादक आर.के. करंजिया ने प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू से 1960 से 1964 के बीच कई बार बातचीत की। “द माइंड ऑफ मिस्टर नेहरू” और द फिलॉसॉफी ऑफ मिस्टर नेहरू” शीर्षक से छपी दो पुस्तकों में ये इंटरव्यू छपे हैं। यहां उद्धृत प्रश्नोत्तर 1960 की एक बातचीत का आरंभिक हिस्सा है। नेहरू जोर देकर यह कहते हैं कि उनका रास्ता कोई विलक्षण उनका बनाया नहीं, बल्कि यह गांधी का रास्ता है। नेहरू कहते हैं कि जो गांधी पथ है, वह दरअसल भारतीय पथ ही है।

करंजिया के यह कहने पर कि आजादी के बाद एक नया वक्त शुरू होता है और मुल्क एक तरह का मोड़ लेता है, नेहरू उन्हें रोकते हैं और कहते हैं कि 1947 के पहले और बाद के हमारे विचारों में एक निरंतरता है। यह ठीक है कि नए तकनीकी और वैज्ञानिक विकास ने कुछ हद तक हमें पुनर्विचार के लिए प्रेरित किया है और नए वक्तों के मुताबिक अपनी नीतियों को ढालने के लिए भी। लेकिन इस प्रसंग में भी हम देख सकते हैं कि गांधी बड़ी हद तक प्रासंगिक बने हुए हैं।

नेहरू गांधी की इस प्रासंगिकता को समझाते हुए कहते हैं, “उनके(गांधी के) विचारों, तरीकों और समाधान ने हमें औद्योगिक क्रान्ति और परमाणु-युग के बीच की खाई को पाटने में मदद की है। आखिरकार, परमाणु-बम का एकमात्र संभव उत्तर तो अहिंसा ही है। क्या यह सही नहीं?”

नेहरू ने गांधी के विचारों पर चलकर भारत को आधुनिक विश्व के सामने खड़ा किया

नेहरू के इस इंटरव्यू को पढ़ते हुए उनकी विनम्रता तो प्रभावित करती ही है, उससे अधिक इस बात पर ध्यान जाता है कि वे खुद, एक राजनेता और एक राज्यनिर्माता के तौर पर अपनी व्यावहारिक समस्याओं के समाधान के लिए एक दार्शनिक ढांचा किस तरह बना रहे हैं। उसकी धुरी अहिंसा और परस्पर सहयोग ही हो सकती है।

करंजिया जब यह कहते हैं कि नेहरू ने अहिंसा से आगे बढ़कर परमाणु बम के खतरे का उपाय पंचशील और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के अपने सिद्धांत के जरिए निकाला है तो वे जवाब देते हैं, “यह सब कुछ गांधीवाद में अन्तर्निहित था। बल्कि, यह पंचशील, शांति, सहिष्णुता का रास्ता, जियो और जीने दो का रुख युगों से भारतीय चिंताधारा की बुनियाद रहा है और इसे आप सारे धर्मों में पाएंगे। ”अशोक जैसे महान सम्राटों ने इसका अभ्यास किया और गांधीजी ने इसे कर्म के एक व्यावहारिक दर्शन में संगठित कर दिया जिसे हमने विरासत में प्राप्त किया है।”

नेहरू इसके बाद करंजिया से पूछते हैं कि क्या उन्हें चाणक्य की कहानी मालूम है? करंजिया को वह याद नहीं। तब नेहरू उन्हें यह किस्सा सुनाते हैं। यह राजा चन्द्रगुप्त और उनके प्रधानमंत्री चाणक्य का एक किस्सा है। चाणक्य शांतिप्रिय, चतुर, बहुपठित, विद्वान्, अभिमानी, निःस्वार्थ और अत्यंत ही बुद्धिमान माने जाते थे। एक वक्त की बात है कि कुछ राजाओं ने चन्द्रगुप्त का विरोध किया और संगठित होकर उसके साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। चन्द्रगुप्त ने चाणक्य को राज्य का नेतृत्व करने को कहा। चाणक्य ने बिना युद्ध किए शत्रुओं को भ्रमित करके परास्त करने में सफलता प्राप्त की। असली परीक्षा उसके बाद शुरू होती है। चन्द्रगुप्त ने चाणक्य से पूछा कि इसके बाद क्या करना चाहिए। चाणक्य ने उत्तर दिया कि उनका काम पूरा हुआ। उन्होंने शत्रु को परास्त कर दिया है और अपने राजा के लिए विजय हासिल कर ली है। अब वे जिम्मेदारी से छुट्टी चाहते हैं, जिससे अपनी पढ़ाई-लिखाई में लग सकें। राजा हतप्रभ रह गया। आखिर चाणक्य की जगह कौन ले सकता है? चाणक्य का उत्तर क्लासिक है और भारतीय चिंताधारा का एक उदाहरण भी। वे राजा को सलाह देते हैं कि वे शत्रु पक्ष के परास्त नेता को अपना महामात्य नियुक्त करें। साम्राज्य के लिए शान्ति और सद्भाव का यही बेहतर रास्ता हो सकता है।

नेहरू किस्सा सुनाने के बाद पूछते हैं, “अब यह 2000 हजार साल पहले सहअस्तित्व (का सिद्धांत) था या नहीं?”

प्रश्न यह नहीं है कि भारत में वास्तव में अहिंसा प्रेम स्वाभाविक और पारंपरिक था या नहीं। जैसा इतिहासकार उपिंदर सिंह ने अपनी हाल की किताब में दिखाया है, हिंसा भी भारत के लिए कोई विजातीय भाव न थी। असल बात यह है, जैसा वे खुद एक इंटरव्यू में कहती हैं, उपनिवेशवादी हिंसा से लड़ने और उसे पराजित करने के बाद एक नए राष्ट्र भारत के नेता राष्ट्रीय स्वभाव की कल्पना किस रूप में कर रहे हैं। संभव है कि परंपरा का यह निर्माण नेहरू और गांधी की कल्पना ही हो लेकिन वह कल्पना एक आक्रामक राष्ट्रवाद के मुकाबले तो बेहतर ही थी।

करंजिया नेहरू से सहमति जाहिर करते हुए लेकिन अपनी बात जारी रखते हैं और कहते हैं कि बहुत सारे प्रगतिशीलों का यह ख्याल है कि गांधीजी ने वैज्ञानिक समाजवाद में उनके यकीन को अपने भावुकतावादी और आध्यात्मिक समाधानों के जरिए कमजोर कर दिया है।

नेहरू ने गांधी के विचारों पर चलकर भारत को आधुनिक विश्व के सामने खड़ा किया

नेहरू जवाब देते हैं कि उन्हें गांधीजी के कई विचार पुराने लगते थे और वह उनसे बहस और मुकाबला करते रहते थे। लेकिन यह कहना कि उन्होंने, उन्हें या फिर किसी और को कमजोर किया, गलत होगा। यह उनका तरीका ही नहीं था।

नेहरू के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण था गांधीजी के साधन की शुचिता पर बल देना। साध्य बहुत कुछ साधनों के द्वारा निर्मित होते हैं, इसलिए साधनों का शुभ, पवित्र और सत्य से प्रतिबद्ध होना आवश्यक है।

गांधी के तरीके को भावुकतावादी और आध्यात्मिक कहने के बारे में नेहरू कहते हैं कि करंजिया जिसे भावुकता कह रहे हैं वह शायद मानवता है, अर्थात एक गहरा मानवीय रवैया। वे कहते हैं कि जैसे गांधीजी के वैसे ही उनके सोचने के तरीके में यह हमेशा शामिल रहा है। वे कहते हैं कि जहां तक आध्यात्मिकता का प्रश्न है, उसे भी वे जरूरी मानते हैं। आज के तकनीक के प्रभुत्व के दौर में बढ़ते हुए आध्यात्मिक खालीपन के उत्तर के रूप में तो यह रवैया और भी प्रासंगिक हो उठा है।

नेहरू का यह आत्मनिषेध और स्वयं को गांधी और भारतीय चिन्तनधारा का मात्र एक प्रतिनिधि मानना रणनीतिक नहीं, यह इन दोनों किताबों को पढ़ने से मालूम पड़ता है। यह भी कि क्यों व्यावहारिक राजनीति के लिए नेहरू हमेशा एक पहेली बने रहने को अभिशप्त हैं।

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Published: 14 Nov 2017, 5:20 PM