मोदी सरकार में सार्वजनिक स्थानों पर नाटक करने से डरने लगे हैं कलाकार

जिन लोगों ने पिछला चुनाव देखा है, उन्हें लगता है कि इस बार नुक्कड़ नाटकों का शोर खो गया है जो लोगों को चुनाव के मुद्दे समझा रहे थे। पिछले पांच साल में देश में कुछ ऐसा वातावरण बना है कि कलाकारों को सार्वजनिक स्थानों पर नाटक करने में डर लगने लगा है।

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र भारत में लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। देश में 2014 में हुए लोकसभा चुनाव की चर्चा सबसे अधिक चाय की चौपाल पर होती थी, क्योंकि चाय बेचना भी एक कला है। अब तो यह बात डंके की चोट पर कही जा सकती है कि अगर आप में लगन है, तो इस कला का सही इस्तेमाल करके आप कहीं से कहीं पहुंच सकते हैं, मतलब कहीं भी।

लेकिन इस बार के चुनावों की चर्चा अप्रत्याशित और अभूतपूर्व है। देश में, विदेश में, चाय की दुकान पर, नदी पर, नाव पर, विश्वविद्यालयों में, पुस्तकालयों में, मेट्रो में, बस में- मतलब कोई भी स्थान ऐसा नहीं है जो इससे अछूता रह गया हो। 21वीं सदी होने के कारण संचार और प्रचार के सभी माध्यमों को इस महायुद्ध में पूरी तरह से झोंक दिया गया है। पता नहीं ‘कल हो ना हो’। सोशल मीडिया, पेड मीडिया, अनपेड-अंडर पेड मीडिया, सिनेमा, सिनेमा के हीरो, टीवी के ऐंकर सभी इसमें जी जान से जुटे हैं। फिर भी लगता है कि कुछ तो है जो नहीं है।

जिन लोगों ने 2014 के लोकसभा चुनावों को कवर किया है, उनको लग रहा है कि इस बार गली-गली और बाजारों में, मॉल में, मोहल्लों में होने वाले नुक्कड़ नाटकों का शोर कहीं खो गया है, जो लोगों को चुनाव के मुद्दों के बारे में समझा रहा था।

इस बारे में लोगों से बात हुई, तो सबका लगभग यही कहना था कि पिछले पांच वर्षों में देश में कुछ ऐसा वातावरण बनाया गया है या बन गया है कि कलाकारों को सार्वजनिक स्थानों पर नाटक, प्रदर्शन करने और जुलूस इत्यादि निकालने से डर लगने लगा है। पता नहीं किस बात का क्या मतलब निकल जाए।

शासन का तो ये हाल हो गया है कि पुलिस हिरासत में भी कोर्ट में ले जाने पर भीड़ किसी पर हमला कर सकती है। ये भीड़ वकीलों की भी हो सकती है। उन पर मुकदमा कौन करेगा और फैसला कौन करेगा। कितने ही वक्ताओं, गायकों और समाज के प्रतिष्ठित नागरिकों को ऐसी धमकियां मिलने लगीं कि उन्हें चुपचाप घर बैठना ही ठीक लगने लगा, क्योंकि भीड़ से लड़ने की हिम्मत जुटाना आसान नहीं होता। कहते हैं ना कि भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता और जैसा कि अपने अनुभव के आधार पर रवीश कुमार ने बताया है भीड़ को कानूनी रूप से किसी भी हिंसा के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

पिछले चुनाव में अपने नुक्कड़ नाटकों द्वारा लोगों में जन जागरण में प्रमुख भूमिका निभाने वाले जाने-माने अस्मिता थिएटर के प्रणेता अरविंद गौड़ ने बताया कि प्रजातंत्र में नाटकों की हमेशा प्रमुख भूमिका रही है और आज भी है। पिछले 15 वर्षों से भीष्म साहनी के ‘हानूश’, गिरीश कर्नाड के ‘रक्त कल्याण’ और ‘तुगलक’, धर्मवीर भारती के ‘अंधा युग’, अल्बर्ट कामू के ‘कालिगुला’, महेश दत्तानी के ‘फाइनल सोल्यूशन’ जैसे 100 से ज्यादा नाटकों का मंचन करने वाले अरविंद गौड़ का कहना है कि वो आज भी जनता के बीच में सवालों को उठाते हैं।

वह कहते हैं, “हम ने साल 2013-14 में ‘सवाल’ नाम का नाटक तैयार किया था। इन सवालों के माध्यम से हम ने जनता को बताया कि वो वोट बैंक कि राजनीति से बचें और अपने सवालों के जवाब सोचने के बाद ही अपना वोट दें। हम ने हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब हर जगह जनता के बीच में यह नुक्कड़ नाटक किए और आज भी कर रहे हैं। लोगों को ये समझा रहे हैं कि सरकार बनाने में उनकी भी भागीदारी है।

वह कहते हैं कि जब तक सरकार के काम में पारदर्शिता नहीं होगी, उनका काम खत्म नहीं होगा। लेकिन ये एक लंबी लड़ाई है और यह कार्य चुनाव तक सीमित नहीं रहता। उन्होंने कहा कि उनके नाटक ‘अम्बेडकर और गांधी’ देखें या पिछले साल भर से चल रहे नाटक गोडसे@गांधी.कॉम को देखें जो दो परस्पर विचार धाराओं को सामने लाता है और लोगों को सोचने पर विवश करता है।

‘जन नाट्य मंच’ की संयोजक माला हाशमी ने भी चुनावों में नाटकों की भूमिका के बारे में उदासीनता की बात को स्वीकारा। उन्होंने बताया कि जरूरी नहीं है कि हर चुनाव में नुक्कड़ नाटकों की अहम भूमिका रही हो- कभी होती है और कभी नहीं। उन्होंने कहा, “जहां तक ‘जन नाट्य मंच’ की बात है, हम लोग तभी सक्रिय होते हैं, जब कोई वामपंथी कैंडिडेट चुनाव में होता है। दिल्ली में हम पिछले निगम चुनावों में सक्रिय थे।”

उन्होंने बताया कि “इस बार हम अपने नाटक ‘जुमला अब नो मोर’ को राजस्थान लेकर जा रहे हैं। इस नाटक से हम जनता को ये बताना चाहते हैं कि चुनावों में असली मुद् बेरोजगारी, किसानों की समस्या, नफरत से पनपे अपराध (हेट क्राइम) जैसी बातों पर कोई चर्चा नहीं हो रही है। हमने यह नाटक और भी राज्यों में लोगों को दिया है कि वो जैसे चाहें इसको अपने हिसाब से बना कर इसका प्रयोग कर सकते हैं। अभी तक तो इसकी ज्यादा डिमांड नहीं आई है, लेकिन देखते हैं।”

लेकिन दूसरी ओर यह भी सच है कि नाटकों के विपरीत अगर हम पिछले कुछ महीनों में रिलीज हुई फिल्मों को देखें तो साफ पता चलता है कि अधिकतर फिल्में जनता में युद्ध का उन्माद फैला रही हैं, जो कहीं ना कहीं चुनावों के परिणाम को लक्षित करके बनाई गई हैं। अगर इन फिल्मों की लाइन प्रधानमंत्री और उनके अन्य प्यादे भी अपनी सभाओं में दोहराने लगें, तो आप समझ ही जाएंगे निर्माता का ‘हाउ इज द जोश’।

(नवजीवन के लिए अमिताभ श्रीवास्तव की रिपोर्ट)

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