मुजफ्फरनगर दंगों के 5 साल बाद भी त्रासदी में जी रहे हैं लापता लोगों के परिजन
जुम्मा का क़त्ल हुआ, उन्हें उनके घर के अंदर जला दिया गया, डीएनए टेस्ट और गवाहों के बयानों से इसकी पुष्टि हुई, तत्कालीन डीएम कौशलराज शर्मा ने बाकायदा इस पर सरकार को एक रिपोर्ट लिखी, मगर जुम्मा के परिजनों को ‘एक रुपया’ भी मुआवजा नही मिला।
5 साल पहले हुए मुजफ्फरनगर दंगों में पीड़ितों को इंसाफ मिलने की उम्मीद खत्म होने लगी है। हद यह है दंगे में मारे गए लोगों के सभी परिजनों को अब तक मुआवज़ा भी नही मिल पाया है और हद यह है कि दंगों के आरोपियों को अदालतें सबूतों के अभाव में बरी भी करने लगी है। सबसे बदतर हालात उन पीड़ितों की है जिनके करीबी 5 साल पहले दंगों में लापता हुए थे और उन्हें मृतक मान लिया गया था। ऐसे लोगों की संख्या लगभग 27 बताई जाती है। उनमें से 15 को अखिलेश सरकार ने 2016 में मुआवज़ा दिया था।
दंगों में सबसे बड़ी त्रासदी हड़ोली गांव के जुम्मा की है। 8 सितंबर 2013 को रात 8 बजे मुजफ्फरनगर के शाहपुर थानाक्षेत्र के हड़ोली गांव में शैतान बन चुके इंसानों ने समूहबद्ध होकर अल्पसंख्यकों पर हमला कर दिया। हमलावरों के हाथों में गंडासे, बल्लम, तलवारें और बंदूके थीं। इस घटना की चश्मदीद मोमिना बताती हैं, "हमले में शामिल सभी लोग जाट नही थे, बल्कि झींवर (कश्यप) आगे-आगे थे। मस्जिद में आग लगा दी गई। हमारे घरों में लूटपाट हुई। ज्यादातर लोग अपना घर छोड़कर भाग गए। हम एक घर में छिप गए। हम बच गए मगर मेरे जेठ जुम्मा मार दिए गए। 52 साल के जुम्मा जिद्दी थे, वे अपने घर से बाहर नही भागे। वे शादीशुदा नहीं थे। उन्होंने घर नही छोड़ा, कहा कि मर भी जाऊंगा तो मेरा क्या है! उन्हें मार दिया गया। पुलिस हमें बचाकर ले आई, मगर उनकी लाश नही मिली।”
मोमिना अब हड़ोली से 3 किमी पहले शिकारपुर गांव में रहती हैं। यहां एक तालाब के किनारे हड़ोली से रातों-रात जान बचाकर भाग आए 39 अल्पसंख्यक मुसलमानों की गंदी सी दिखने वाली बस्ती में रिहाइश है। वे कहती हैं, "हमारी जान बच गई और यह भी पता चल गया कि समीर (जुम्मा के भाई का बेटा) के ताया अब्बा (चाचा) को काट कर मार दिया गया। कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्होंने उनको मरते देखा। मारने वाले गांव में कहते घूम रहे थे कि एक 'कटवा' कम कर दिया। चार और लोगों को भी काटा गया, मगर वे बच गए। पुलिस ने एफआईआर लिखने से मना कर दिया। जब लाश ही नहीं मिली तो फिर हत्या का मुकदमा दर्ज नही किया जा सकता था।"
जमीयत उलेमा हिन्द के प्रवक्ता मौलाना मूसा क़ासमी इससे आगे की कहानी सुनाते हैं। वे कहते हैं, "अक्टूबर 2013 में बेहद अनुरोध के बाद प्रशासन ने बुरी तरह जल चुके जुम्मा के घर के मलबे को जेसीबी मशीन से हटाया। मलबे को हटाने पर हड्डियां मिल गईं। एक ख़ास साजिश के तहत इन्हें जानवर की हड्डियां बताया गया। इसके बाद हड्डियों को डीएनए टेस्ट के लिए भेज दिया गया। एक साल में रिपोर्ट आई, जिसमें हड्डियों के किसी मानव का होने की पुष्टि हो गई। यह शायद दंगों में डीएनए रिपोर्ट के आधार पर हत्या के आरोप तय होने का पहला मामला था।”
पुलिस ने इसी रिपोर्ट के आधार पर 8 लोगों के विरुद्ध हत्या और सबूत मिटाने का मामला दर्ज कर लिया। वे सभी फ़िलहाल जमानत पर बाहर हैं।
जुम्मा का क़त्ल हुआ, उन्हें उनके घर के अंदर जला दिया गया, डीएनए टेस्ट और गवाहों के बयानों से इसकी पुष्टि हुई, तत्कालीन डीएम कौशलराज शर्मा ने बाकायदा इस पर सरकार को एक रिपोर्ट लिखी, मगर जुम्मा के परिजनों को 'एक रुपया' भी मुआवजा नही मिला (नीचे पढ़ें, डीएम का पत्र)।
इस्लामन हमें बताती है, “हड़ोली से जान बचाकर भाग आए 39 अल्पसंख्यक मुस्लिम परिवारों में से किसी को कोई मुआवज़ा नही मिला। जुम्मा को मार दिया गया, चार और गंभीर रूप से घायल थे। घर जला दिए गए। सामान सब खत्म हो गया। कोई सरकारी मदद नही मिली, गांव में सबने अब अपने घर आधी से कम कीमत पर बेच दिए हैं। हमारे घर पर अब झिवंरो (कश्यप) का कब्ज़ा है। वे जो पैसे भी देंगे, हमें लेने पड़ेंगे वरना हम उनका क्या बिगाड़ लेंगे।”
गौरतलब है कि अखिलेश सरकार ने मुजफ़्फ़रनगर दंगे के बाद 95 करोड़ के मुआवजे बांटने का दावा किया था। उसमें मृतकों के परिजनों को 15-15 लाख और घायलों और बेघरों को 5-5 लाख रुपए दिए गए। 2016 में शामली में लिसाढ़ गांव के 11 लापता लोगों को भी मृतक मानकर मुआवज़ा दिया गया। इससे अलावा बहावड़ी और दूसरे गांवों के चार अन्य लोगों को भी मुआवज़ा मिला, मगर जुम्मा के परिजनों को मुआवज़ा नही मिला।
जुम्मा के भाई नजीर अहमद के मुताबिक, मुआवज़े का फैसला स्थानीय नेतागणों की मर्ज़ी से तय हुआ। दंगे में बर्बाद हो गए लोग आज भी दो वक़्त की रोटी के लिए जूझ रहे हैं।
अखिलेश सरकार के माध्यम से दिए गए मुआवजे के बाद उस समय की विपक्षी पार्टी बीजेपी ने जमकर बवाल काटा था और सूबे की सरकार पर तुष्टिकरण का आरोप लगाया था। हालांकि, यह मुआवज़ा समान रूप से वितरित किया गया था। मगर सैकड़ों लोग इससे फिर भी अछूते रह गये। मुजफ़्फ़रनगर के राशिद अली के मुताबिक, मुआवज़ा वितरण में सरकारी कर्मचारी और स्थानीय नेतागणों ने ईमानदारी से काम नही किया। सरकार के चुनाव का तरीका भी अजीब था। जैसे जिन गांवों में ज्यादा हिंसा हुई थी - लांक, बहावड़ी, लिसाढ़, मोहम्मदपुर रायसिंह, कुटबा कुटबी आदि के पीड़ितों का गाँव के हिसाब से चुनाव कर लिया गया। इससे कई वास्तविक पीड़ित लोग न न्याय पा सके और न उन्हें मुआवज़ा मिला। लिसाढ़ गांव के मुमताज अब जौला में रहते हैं। वे कहते हैं, “हमारा भाई इलियास आज तक हमें नहीं मिला। वह कहां है, हमें कुछ नही पता। गांव के लोग बताते हैं कि उसे घर के साथ जला दिया गया था। हम जान बचाकर भाग आए। लाश भी मिलती तो दिल को सब्र आ जाता।”
शिकारपुर में तालाब की किनारे वाली दंगा पीड़ितों की इस पूरी बस्ती समेत ऐसे बहुत से दंगा पीड़ित है जिन्हें मुआवज़ा के नाम पर कुछ नहीं मिला।
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