सीबीआई के लिए नए पिंजरे की तैयारी, वहां भी मोदी आएंगे, तभी ‘अच्छे दिन’ आएंगे
अब चूंकि सीबीआई निदेशक बनने की राकेश अस्थाना की संभावनाएं व्यवहारिक रूप से खत्म हो चुकी हैं, वाईसी मोदी को सीबीआई निदेशक के तौर पर लाने की तैयारी चल रही है। और अस्थाना का पुनर्वास एनआईए में हो सकता है और इस तरह कुर्सियां बदलने का कारोबार चलता रह सकता है।
एक सेवारत् नौकरशाह के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उन्हें पता चला कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) के महानिदेशक वाईसी मोदी को सीबीआई का अगला निदेशक बनाया जा सकता है। उनका डर आधारहीन नहीं था क्योंकि राकेश अस्थाना की तरह ही इनका भी गुजरात से मजबूत नाता है।
असम-मेघालय कैडर के आईपीएस अधिकारी योगेश चंदर मोदी की नियुक्ति 2002 से 2010 तक सीबीआई में थी। सीबीआई में उनके कार्यकाल की मुख्य बात यह थी कि वे गुजरात के गृह मंत्री और नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक विरोधी हरेन पंड्या की हत्या की जांच कर रहे थे और इसके अलावा उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों के कई महत्वपूर्ण मामलों की भी जांच की थी।
पंड्या हत्या मामले में मोदी की टीम द्वारा दोषी ठहराए गए सारे आरोपियों को हाई कोर्ट ने बरी कर दिया था। मोदी की टीम का यह निष्कर्ष था कि उनकी हत्या गोधरा के बाद हुए दंगों के बदले की कार्रवाई के तहत की गई थी। चार्जशीट में किए गए दावों से सबूतों का मेल नहीं हो पाया और यहां तक कि अभियोजन पक्ष ने मामले को आगे ले जाने के लिए पुलिस के सामने दिए गए अपराध-स्वीकृति से जुड़े बयानों पर विश्वास भी नहीं किया। जांचकर्ताओं ने दावा किया था कि पंड्या को उनके कार में गोली मारी गई थी, लेकिन उनके कार में खून के थोड़े से धब्बे मिले जबकि उनके कपड़े पूरी तरह खून से तरबतर थे।
2010 में सीबीआई निदेशक आरके राघवन के नेतृत्व वाली एसआईटी के सदस्य के तौर पर वाईसी मोदी ने दंगों की तीन महत्वपूर्ण वारदातों की जांच की थी – गुलबर्ग सोसायटी, नरोदा पाटिया और नरोदा गाम।
2015 में उन्हें फिर सीबीआई में विशेष निदेशक का कार्यभार दिया गया और बाद में उन्हें एनआईए का महानिदेशक बना दिया गया जब नरेन्द्र मोदी के एक अन्य पसंदीदा नौकरशाह शरद कुमार ने सितंबर, 2017 में अपना कार्यकाल पूरा कर लिया। इसका एक उद्देश्य एनआईए के मुखिया के तौर पर एक प्रतिबद्ध वफादार को लाना था, और ऐसा कहा गया कि दूसरा उद्देश्य अगले सीबीआई निदेशक के रूप में राकेश अस्थाना के लिए जगह बनाना था।
अनिल सिन्हा के सेवानिवृत होने के बाद अस्थाना को सीबीआई का अंतरिम निदेशक बनाया गया। लेकिन उस वक्त वे उस पद के लिए जरूरी योग्यता नहीं रखते थे और सरकार को निदेशक के पद पर आलोक वर्मा को नियुक्त करना पड़ा। अस्थाना अतिरिक्त निदेशक के अपने पद पर वापस चले गए लेकिन वर्मा के आपत्तियों को दरकिनार करते हुए 2016 में उन्हें विशेष निदेशक बना दिया गया।
सारे संवेदनशील पदों पर अपने नजदीकी अधिकारियों को नियुक्त करने की मंशा नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की शासन प्रणाली का मुख्य पहलू है। और जब दो सेवा-विस्तार और एक साल के अनुबंध के बाद एनआईए मुखिया के तौर पर शरद कुमार को जारी रखना नामुमकिन हो गया, उन्हें केंद्रीय सतर्कता आयोग में सतर्कता आयुक्त बना दिया गया। इस आपत्ति को भी दरकिनार कर दिया गया कि वे अनुबंध पर थे इसलिए उस पद के लिए अयोग्य हैं।
आईपीएस जमात के भीतर ऐसा दावा किया जाता है कि शरद कुमार के पिता लंबे समय तक आरएसएस के प्रचारक थे और उनके हरियाणा के घर पर कई बार नरेन्द्र मोदी ने आतिथ्य भी स्वीकार किया था। इस तथ्य को खुद उस वक्त बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार ने हरियाणा में हुई अपनी रैलियों में स्वीकार किया था।
इसलिए, अब चूंकि सीबीआई निदेशक बनने की राकेश अस्थाना की संभावनाएं व्यवहारिक रूप से खत्म हो चुकी हैं, वाईसी मोदी को सीबीआई निदेशक के तौर पर लाने की तैयारी चल रही है। और अस्थाना का पुनर्वास एनआईए में हो सकता है और इस तरह कुर्सियां बदलने का कारोबार चलता रह सकता है।
अंदर के लोगों का मानना है कि ऊंचे स्तर पर बिना पूरी सफाई किए भटकी हुई सीबीआई को ट्रैक पर नहीं लाया जा सकता। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद लगभग 20 वरिष्ठ अधिकारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और ज्यादातर गुजरात से ताल्लुक रखने वाले उनकी पसंद के अधिकारियों को लाया गया।
एक पूर्व सीबीआई अधिकारी ने बताया, “यह सही है कि यूपीए के कार्यकाल के दौरान भी हमें कुछ लोगों पर नरमी बरतने के लिए कहा जाता था।” उन्होंने जोड़ा, “लेकिन सरकार के ऐसा शायद ही कोई होता था, जो हमें ‘नहीं’ कहने का लचीलापन देता था।”
उन्होंने याद किया कि सीबीआई के उच्च अधिकारियों को कभी-कभार कहा जाता था, “जरा देख लीजिएगा” या “देख लीजिए, कुछ मदद हो सकती है कि नहीं”। लेकिन पिछले चार सालों के दौरान सीबीआई के अधिकारियों की आदेश पाने की आदत हो गई है। उन्हें पूरी तरह सिर्फ आदेश का पालन करना ही नहीं होता, बल्कि ‘कार्रवाई की रिपोर्ट’ भी देनी होती है।
पहले सीबीआई के संयुक्त निदेशक (नीति) एजेंसी का चेहरा होते थे और सरकार के साथ संवाद करते थे और सीवीसी के साथ मासिक समीक्षा बैठकों में एजेंसी का प्रतिनिधित्व करते थे। लेकिन इस शासन में तेजी से पहले अतिरिक्त निदेशक, फिर अंतरिम निदेशक और आखिर में विशेष निदेशक के तौर पर राकेश अस्थाना ने एजेंसी का प्रतिनिधित्व करना शुरू किया और यह बताना शुरू किया कि सरकार क्या चाहती है।
अंदर के लोगों का दावा है कि अस्थाना को पीएमओ से कहा गया कि जल्द से जल्द वे सीबीआई के मुखिया बनेंगे। इसलिए, जब आलोक वर्मा के पक्ष में उन्हें अंतरिम निदेशक का पद छोड़ना भी पड़ा, उन्होंने एक तरह से सीबीआई के मुखिया के तौर पर व्यवहार करना जारी रखा, जिसका वर्मा ने विरोध किया।
उनके रिश्ते बिगड़ते चले गए और वर्मा ने लिखित में विरोध किया जब सरकार ने उन्हें विशेष निदेशक के तौर पर पदोन्नति देने की और सीबीआई में नंबर 2 बनाने की कोशिश की। अक्टूबर, 2016 में वर्मा ने सीवीसी को लिखा और उन्हें बताया कि सीबीआई अस्थाना के 6 आरोपों की जांच कर रही है, उनकी साख खराब है और वे अवांछित लोगों से घुल-मिल रहे हैं।
यह एक असाधारण स्थिति थी और आरोप गंभीर थे। लेकिन सीवीसी और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने इसकी उपेक्षा की और आपत्तियों का खारिज कर दिया। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं कि उसके बाद से दोनों अधिकारियों के रिश्ते और बिगड़ गए और आपसी संवाद लगभग टूट गया। इसी समय पर दोनों ने एक-दूसरे की जासूसी शुरू की और सबूत जुटाने शुरू किए।
हालांकि, मुख्य सतर्कता आयुक्त कार्रवाई करने में असफल रहे। एक अंदर के सूत्र ने बताया, “सीवीसी को दोनों को बुलाना चाहिए था और उनसे सही व्यवहार करने के लिए कहना चाहिए था।” लेकिन सीवीसी साफ तौर पर अपनी भूमिका को नजरअंदाज करते हुए कार्रवाई करने के लिहाज से लकवाग्रस्त दिखी। केंद्रीय सतर्कता आयुक्त बने पहले राजस्व सेवा अधिकारी केवी चौधरी खुद ही भ्रष्टाचार की कई शिकायतों का सामना कर रहे थे, लेकिन जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने उन शिकायतों पर कार्रवाई करने से इंकार करते हुए उनकी नियुक्ति को चुनौती देने वाली एनजीओ कॉमन कॉज की याचिका को खारिज कर दिया।
अंदर के सूत्र ने दावा किया कि इस मामले में सीवीसी के पंगु होने की एक वजह प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल का जबरदस्त ‘हस्तक्षेप’ थी। यह एनएसए ही थे जिन्होंने पिछले महीने आगे बढ़कर सीवीसी को रात के 9 बजे बैठक कर यह अनुशंसा करने को कहा कि वर्मा और अस्थाना दोनों को छुट्टी पर भेजा जाए। ऐसा कहा गया कि एनएसए ने ही डीओपीटी के सचिव को नोटिफिकेशन का इंतजार करने के लिए कहा और पीएमओ से सीबीआई के ‘आधी रात के तख्तापलट’ को लगभग संचालित किया।
सीवीसी की यह अनुशंसा भी विवादों में फंस चुकी है क्योंकि ऐसी खबरें हैं कि सरकार ने दावा किया था कि सीवीसी ने वर्मा और अस्थाना दोनों को जबरन छुट्टी पर भेजने की अनुशंसा की, जबकि सीवीसी का जो नोटिस उसके वेबसाइट पर लगाया गया उसमें अस्थाना का जिक्र नहीं था।
सीबीआई डोओपीटी के मातहत है, जो सीधे तौर पर पीएमओ के तहत आता है। लेकिन इसके बारे में कोई साफ जानकारी नहीं है कि सीबीआई की इस आपसी लड़ाई में एनएसए को क्यों पड़ना चाहिए था। अंदर के सूत्र ने कहा, “सीबीआई और सीवीसी दोनों समझौतापरस्त हो चुकी है, और एक पूर्ण बदलाव जरूरी है।”
अब सवाल उठता है कि सुप्रीम कोर्ट 12 नवंबर को क्या करने जा रहा है? क्या यह सीवीसी और डीओपीटी को खरी-खोटी सुनाएगा? क्या यह आलोक वर्मा को निदेशक के तौर पर फिर से वापस लाएगा?
वकीलों को लगता है कि अगर सीवीसी आलोक वर्मा के खिलाफ कोई गंभीर सबूत जुटाने में असफल रहता है तो सुप्रीम कोर्ट निश्चित तौर पर यह आदेश देगा कि वर्मा को एजेंसी की पूरी जिम्मेदारी दी जाए। अगर सीवीसी को वर्मा के खिलाफ मामूली सबूत भी मिलते हैं तो ऐसा हो सकता है कि सरकार उस जानकारी को सीबीआई निदेशक का चुनाव करने वाली उच्च-स्तरीय समिति के सामने रखने का फैसला दे। और अगर सबूत बहुत ज्यादा गंभीर हुए तो कोर्ट वर्मा की याचिका को खारिज कर एक स्वतंत्र जांच का आदेश दे सकता है।
लेकिन इस कचरे को साफ करना सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी नहीं है। यह सरकार, संसद और राजनीतिक वर्ग की जिम्मेदारी है कि वे सीबीआई को आजाद करें।
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